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तृष्णा से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है

मने सब कमाया और तुमने पाया कि सब कमाना अपने को गंवाना है। बुद्ध निरंतर कहते हैं कि तुम तृष्णा से मुक्त हो जाओ, तुम संसार से मुक्त हो गए।

Shrishti Chaubey लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीTue, 5 Dec 2023 10:50 AM
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Pravachan Today: हम में से प्रत्येक व्यक्ति संसार से मुक्त होने की इच्छा रखता है, लेकिन अपनी तृष्णाओं से मुक्त नहीं होता, उससे घिरा रहता है। जब तक ये हमारे भीतर जीवित हैं, हम संसार से मुक्त नहीं हो सकते। इससे मुक्त होकर इस संसार से जाने पर दोबारा जन्म नहीं होता। वास्तव में तृष्णा से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है

तुम अहंकार की ऊंचाइयों पर उठे और वहां भी तुमने भीतर क्षुद्रता का ही वास पाया। तुम महलों में रहे, लेकिन तुम्हारे भीतर की वासना का भिखमंगापन नहीं मिटा। तुमने सब कमाया और तुमने पाया कि सब कमाना अपने को गंवाना है। बुद्ध निरंतर कहते हैं कि तुम तृष्णा से मुक्त हो जाओ, तुम संसार से मुक्त हो गए। तुम कोई कामना नहीं करो कि यह मुझे पूरा करना है। तुम जैसे हो वैसे होने से राजी हो जाओ, फिर तुम्हारा कोई जन्म नहीं होगा। तुम जहां हो वहीं ऐसे तृप्त हो जाओ जैसे मंजिल पर हो। कोई यात्रा नहीं है करने की, कहीं जाना नहीं है। जो पा लिया, वह काफी से काफी है। जो मिल गया, वह पर्याप्त से ज्यादा है। जो हो गया, उससे ज्यादा का कोई खयाल नहीं है। तब तुम्हें कैसे जन्म मिल सके गा? तब तुम पूरे होकर मरोगे। और जो पूरा होकर मरता है, उसके आने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। उसने मरने की कला जान ली। जो तृष्णा-शून्य मरता है, वह मरने की कला जान गया।’

कितने जन्मों से तुम मर रहे हो और एक क्षण को तुमने विचार नहीं किया, लौट कर एक बार नहीं सोचा कि तुम क्यों इस जाल में फंसे हो।

‘एक सयानी आपनी, परबस मुआ संसार।’

— कबीर कहते हैं कि मैं सयाना होकर मरा; तुम परबस होकर मर रहे हो। यहीं भेद है। यही एक बुद्ध की मृत्यु का और एक अज्ञानी की मृत्यु का भेद है। दोनों में गुणात्मक फर्क है। चिकित्सक नहीं पहचान सकेगा इस फर्क को। अगर बुद्ध मर रहे हों, कबीर मर रहे हों और तुम मर रहे हो एक ही अस्पताल में और तुम चिकित्सक से कहो कि इनकी मृत्युओं में क्या फर्क है, चिकित्सक कोई फर्क नहीं बता सकेगा। चिकित्सक कहेगा कोई भी फर्क नहीं है। इसकी हृदय की धड़कन भी समाप्त हो रही है; इसकी श्वास भी डूबी जा रही है; इसकी खून की चाल खोई जा रही है—दोनों एक जैसे मर रहे हैं। कोई गुणात्मक भेद नहीं है।

लेकिन समझने की कोशिश करो।

तुम्हारे और कबीर के मरने में गुणात्मक भेद है। वही कबीर कह रहे हैं ‘एक सयानी आपनी, परबस मुआ संसार।’ हम सयाने होकर मर रहे हैं, हम पूरे होकर मर रहे हैं। हम जान कर मर रहे हैं। तुम बिना जाने मर रहे हो। तुम बिना पूरे हुए मर रहे हो। तुम बिना सयाने हुए मर रहे हो। तुम बूढ़े होकर मर रहे हो, हम सयाने होकर मर रहे हैं—यह कबीर कह रहे हैं। तुम्हारी मृत्यु परबस है। तुम असहाय मर रहे हो। तुम चीख-पुकार करके मर रहे हो कि कोई सहारा दे दे, किसी तरह बच जाऊं, कोई दवा ईजाद हो जाए। आदमी मरता है, लेकिन मरना नहीं चाहता—परवश! तुम कितने उपाय करते हो न मरने के; झूठी-सच्ची बातों पर भरोसा कर लेते हो। कोई ताबीज बांध लेता है, कोई कुछ कर लेता है। सब तरह से उपाय करते हो कि बच जाएं। यह जो आदमी है, बूढ़ा तो हो गया, लेकिन सयाना नहीं हुआ। सयाना होने का तो अर्थ ही यह है कि तुम्हें यह पता चल जाए कि इस जीवन में कुछ है ही नहीं पाने योग्य जिसके लिए बचना जरूरी हो। सयाने होने का अर्थ तो यह है कि तुम सब वासनाओं को परख लो और उनमें कुछ सार न पाओ। तुमने प्रेम भी किया और तुमने पाया कि वहां भी कुछ नहीं था, कामवासना थी। तुमने प्रेम किया और तुमने पाया कि वहां भी प्रकृति केवल तुम्हारा उपयोग कर रही थी, संतति पैदा करवाने के लिए। तुमने धन कमाया और पाया कि वे ठीकरे थे, जिन पर समाज राजी हो गया था कि इनका मूल्य है। तुमने पद कमाए, तुम बड़े पदों पर पहुंचे, लाखों लोगों ने तुम्हारी तरफ आंखें उठा कर देखा; लेकिन तुमने पाया, उससे भी कोई तृप्ति नहीं है; उससे भी कोई मन का अधूरा घड़ा भरता नहीं।

तुम अहंकार की ऊंचाइयों पर उठे और वहां भी तुमने भीतर क्षुद्रता का ही वास पाया। तुम महलों में रहे, लेकिन तुम्हारे भीतर की वासना का भिखमंगापन नहीं मिटा। तुमने सब कमाया और तुमने पाया कि सब कमाना अपने को गंवाना है—तब तुम सयाने हुए; तब तुमने देखा कि इस जीवन में कुछ पाने योग्य नहीं, तुमने रत्ती-रत्ती खोज लिया। अनुभव से तुम सिक्त हुए, भर गए और तुमने सब तरफ पहचान कर, किसी की कहा-सुनी से नहीं, कबीर के वचन पढ़ कर नहीं, मेरी बात सुन कर नहीं—तुमने अपने ही अनुभव की परख और कसौटी से यह पा लिया कि यह सारा खेल अज्ञानियों का है। यहां जानने वाले के लिए कोई काम नहीं। यह बच्चों का खिलौना है। बच्चे खेल रहे हैं, खिलौनों में लीन हैं। लेकिन तुम सयाने हो गए हो और तुम्हें खेल दिखाई पड़ गया और तुम हंसे। उसी क्षण तृष्णा का धागा टूट गया। इसको पतंजलि समाधि की अवस्था कहते हैं—निर्विकल्प समाधि। अब तुम्हारे मन में कोई विकल्प नहीं रहे कि यह करूं, वह करूं, यह पाऊं, वह पाऊं, सब विकल्प हट गए।

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