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लोकगीत-नृत्य बचाने को सहेजने होंगे गांव-आंगन

पहाड़ के लोकगीत और लोक नृत्यों की शानदार परंपरा को बचाना-बढ़ाना और समृद्ध करना है तो गांवों के घरों के उन आंगनों और खेतों को बचाना होगा जहां से ये गीत जन्मे थे। गांवों से लगातार महानगरों की ओर पलायन...

लोकगीत-नृत्य बचाने को सहेजने होंगे गांव-आंगन
हिन्दुस्तान टीम,हल्द्वानीSat, 19 Oct 2019 06:08 PM
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पहाड़ के लोकगीत और लोक नृत्यों की शानदार परंपरा बचाना-बढ़ाना और समृद्ध करना है तो गांवों के घरों के उन आंगनों और खेतों को बचाना होगा, जहां से ये जन्मे थे। गांवों से लगातार महानगरों की ओर पलायन हो रहा है और लोकगीत-नृत्य की समृद्ध परंपरा बचाए रखने वाले लोक गायक अब आखिरी पायदान पर खड़े हैं। सरकार की लोक संस्कृति बढ़ाने-बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। ऐसे में लोक संस्कृति की रक्षा के लिए एक नए सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत पड़ेगी।

यह निष्कर्ष शनिवार को उत्तराखंड वानिकी अकादमी सभागार में अभिव्यक्ति कार्यशाला लोक उत्सव आवाहन कार्यक्रम के तहत आयोजित व्याख्यान माला में दिग्गज संस्कृति कर्मियों के व्याख्यान के दौरान निकला। शुक्रवार को लोकनृत्य गीतों की परंपरा और भविष्य विषय पर लोकगीत और लोक नृत्यों के मर्मज्ञ नंदलाल भारती ने कहा कि पहाड़ के लोकगीत, लोक नृत्य लोक वाद्य यंत्र और लोक कलाकार आखिरी पायदान पर हैं। ये लोक कला और संस्कृति के विशेषज्ञ उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं। न इनकी कोई विरासत पाने वाला है, न इसे नौजवान पीढ़ी तक ले जाने को सामाजिक-सरकारी स्तर पर कोई प्रयास है।

लोककला बचाने की दुहाई देने वाले खुद पहाड़ छोड़ चुके हैं

नंदलाल ने कहा कि लोक संस्कृति खत्म होने के तीन प्रमुख कारण हैं। पहला तो ये कि संयुक्त परिवारों का विघटन हो रहा है। आर्थिक उदारीकरण होने के बाद भूमंडलीकरण से पश्चिमी अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ा है। पहाड़ों से पलायन बढ़ रहा है। गांव खाली होते जा रहे हैं। जो लोग आज लोककला बचाने की दुहाई दे रहे हैं वह खुद पहाड़ों से पलायन कर चुके हैं। लोक संस्कृति के पैरोकारों को खुद गांव में रहना होगा। गांव का आंगन लोक संस्कृति का वाहक रहा है, इसलिए उसे बहाल करना होगा।

लोकगीत सीखने की किसी में चाहत नहीं

हल्द्वानी। लोक संस्कृति, लोक कला की मर्मज्ञ डा. माधुरी बर्थवाल ने कहा कि नौजवान पीढ़ी लोकगीत सीखना नहीं चाहती। सब अपने गीत गाते हैं और उसे ही लोक गीत बताते हैं। मगर वह लोक गीत नहीं है, लोक गीत सामूहिकता से उपजा है। उसमें लोक के पूरे संस्कार, रीति-रिवाज, रहन-सहन, इतिहास-भूगोल निहित है। असली लोक कलाकार जो गांव में बैठा है, उसके लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है। सरकार जो महोत्सव करती है, उसमें 60 हजार का खर्चा कर बैंड-बाजे वाले बुलाते हैं मगर ढोल-दमाऊ बजाने वाले लोक कलाकारों को नहीं बुलाते। यह पैसा सरकार उनको क्यों नहीं देती? जबकि यही लोग लोक संस्कृति के असली वाहक हैं। डा. माधुरी नजीबाबाद रेडियो स्टेशन की पहली महिला संगीतकार रही हैं। उन्होंने वर्ष 1979 से 2010 तक यहां बतौर संगीतकार काम किया। इसके अलावा गढ़वाल मंडल के हजारों लोकगीतों को संग्रहित किया।

महोत्सव करने वालों ने व्यवसाय शुरू कर दिया

हल्द्वानी। लोक संस्कृति पर शोध करने वाले डा. पंकज उप्रेती ने कहा कि लोक संस्कृति के नाम पर महोत्सव करने वालों ने इसे व्यवसाय समझ लिया है। इनमें लोक गायक नहीं होते। लोकवाद्य बजाने वाला कोई कलाकार यहां नजर नहीं आता। लोक संगीत लोक की सामूहिक अभिव्यक्ति है। वह किसी एक व्यक्ति का नहीं हो सकता। आदि काल से लोक जीवन में गीत-संगीत का समावेश रहा है। गीत का विकास मानव जीवन के विकासक्रम से जुड़ा है। जैसे-जैसे मानव का मानसिक-आध्यात्मिक विकास हुआ, उसी क्रम में गीत भी विकसित होते गए। वेदों की ऋचाओं में गीत और संगीत का अद्भुत सामंजस्य रहा है। लोकगीतों की परंपरा के संवाहक ढोली, दास, मिरासी, पशुचारक, प्रवासी, घर से दूर सीमा सुरक्षा में लगे सिपाही आदि हैं। इन लोगों ने लोकगीतों को जिंदा रखा है, लेकिन अब इन पर गहरा संकट है।

लोक संस्कृति बचाने के लिए सरकार को करनी होगी पहल

हल्द्वानी। गीत-नाट्य प्रभाग में प्रशिक्षक और लोकगीतों का संग्रह करने वाले जस्सी राम ने कहा कि झोड़े-चांचरी-बैर और भगनौल को संरक्षित करना है तो इनसे जुड़े लोक गायकों की माली हालत ठीक करनी होगी। इसके लिए सरकार को पहल करनी होगी। लोक गीतों और लोकनृत्यों के प्रति जनता की अभिरुचि जगानी होगी। लोक संस्कृति से युवा पीढ़ी को जोड़ना होगा। बताना होगा कि यही पहाड़ का गौरव हैं। लोक गायक गांवों में बेहद बुरी स्थिति में हैं। उनका हाल पूछने वाला कोई नहीं है। सरकार उनको आर्थिक सहायता दे।

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