बनारस की होली: .... और कई रंगों के अबीर से बनती थी इंद्रधनुषी छटा
बनारस की होली और लोक गायन का चोली दामन का साथ है। इस साथ को बनारस के प्रख्यात भोजपुरी साहित्यकार पं. हरिराम द्विवेदी ने भरपूर जीया है। यही वह शहर है जहां मजदूरों से लेकर बुद्धिजीवियों तक की अड़ी होली...
बनारस की होली और लोक गायन का चोली दामन का साथ है। इस साथ को बनारस के प्रख्यात भोजपुरी साहित्यकार पं. हरिराम द्विवेदी ने भरपूर जीया है। यही वह शहर है जहां मजदूरों से लेकर बुद्धिजीवियों तक की अड़ी होली पर लगती थी। बनारसी होली तब और अब की इस कड़ी में आइए परिचित होते हैं उनके संस्मरणों से...।
बेढब से बेधड़क तक जुटते थे अड़ी पर
मैं बात 50 से 70 के दशक के बीच की होली की कर रहा हूं। दशाश्वमेध में डेढ़सी के पुल पर साहित्यकारों की बड़ी अड़ी लगती थी। अद्भुत दृश्य होता था। बड़ी बड़ी परातों में कई रंग के अबीर भर-भर कर रखे जाते थे। जब आखिरी में सारी अबीर एक साथ उड़ाते थे तो इंद्रधनुषी छटा होती थी। सड़क पर दूर तक एक इंच मोटी परत अबीर की बिछ जाती थी। उसमें बेढब बनारसी, बेधड़क बनारसी, पुष्कर जी, खाक बनारसी, भैयाजी बनारसी, त्रिलोचन शास्त्री जैसे लोग जमा होते थे। पक्के महाल के कुछ रईस भी आते थे। मुझे याद है उसी जगह प्रख्यात ठुमरी गायक पं. महादेव मिश्र ने बिना साज के ही इतनी जबरदस्त होली गाई थी कि लोग नाच उठे थे। बाद की पीढ़ी में पं. अशोक मिश्र ‘सामयिक’ का संचालन उस गोष्ठी की सबसे बड़ी खासियत थी। वह बिखरे हुए लोगों को अपनी वाक्कला से बांध लेते थे। गांव में लोगों की टोलियां फाग गाते हुए गांव के मंदिर पर जमा होती थीं। सभी एक साथ, एक ही गीत गाते थे। ‘सदा आनंद रहे एही द्वारा मोहन खेलें होरी’ गीत से ही होली का समापन होता था और चैता, चैती, घाटों का गायन शुरू होता था।
खमसा सुनने को तरस गए कान
होली पूरे देश में प्रीति पर्व के रूप में मनाई जाती थी। इसमें भद्दगी के लिए बिल्कुल जगह नहीं थी। गांवों में इसका अद्भुत रंग रहा है। शहर में भी सब धूमिल हो गया है। तब बनारस में मोहल्ले-मोहल्ले लोग गायन गोष्ठी करते थे। फगुआ, चहका, बेलवइया, चौताला गाया जाता। वह गोष्ठियां मर्यादा के अनुकूल चलती थीं। होली का गायन ऋतुगीत के रूप में होता रहा है। ऋतु गीतों के काल निर्धारित हैं। अब उनका पालन नहीं किया जा रहा। बसंत गीत बसंत पंचमी से लेकर रंगोत्सव के दिन तक गाए जाते थे। रंगोत्सव की शाम से चैता, चैती घाटों का गायन शुरू होता था। तब फगुआ, चहका, बेलवइया, चौताला का गायन वर्जित हो जाता था। आज तो फरमाइश हो गई तो सावन में भी फगुआ और चैत में कजरी गाने से भी लोग परहेज नहीं करते। शहर में अपने ढंग की अलग ही कलाकारी थी। बनारस में कसेरा जाति के लोग खमसा गाया करते थे। अब तो खमसा सुनने के लिए कान तरस जाते हैं। चौताला, चहका, बेलवईया, फगुआ भी गायब हो रहा है। विश्वेश्वरगंज सट्टी के पास श्रमिकों की अड़ी पर इनका गायन खूब होता था।
यह मेरा संदेश ...
होली प्रीति पर्व है। इसे प्रीति पर्व ही रहने दीजिए। बनारस की होली को अन्य क्षेत्रों के प्रभाव में आने से बचाने के लिए मर्यादाओं का पालन किया जाना चाहिए। गाली के कवि सम्मेलन के रूप में जो धब्बा बनारस की होली पर लगा है, उसे मिटाने और होली को प्रीत का पर्व बनाने में हर कोई अपनी जिम्मेदारी का ईमानदारी से पालन करे।