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सूर्यबाला की रचनाओं में दिखती है काशी की झलक

भारत-भारती पुरस्कार से सम्मानित डॉ. सूर्यबाला ने अपनी कई कहानियों में काशी की गलियों, मोहल्लों का वर्णन किया...

सूर्यबाला की रचनाओं में दिखती है काशी की झलक
हिन्दुस्तान टीम,वाराणसीSat, 27 Feb 2021 03:14 AM
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वाराणसी। वरिष्ठ संवाददाता

भारत-भारती पुरस्कार से सम्मानित डॉ. सूर्यबाला वाराणसी की रहने वाली हैं। नगर के चउछटवा (चेतगंज) में उनका आवास है। कायस्थ परिवार में जन्मी सूर्यबाला का पूरा नाम सूर्यबाला वीर प्रताप सिंह श्रीवास्तव है। अपने जन्मस्थान से उन्हें बेहद लगाव है। यहां से अनेक यादें जुड़ी हैं। उन्होंने अपनी कई कहानियों में काशी की गलियों, मोहल्लों का वर्णन किया है।

उन्होंने बीएचयू से हिन्दी साहित्य में पीएचडी किया। आर्य महिला डिग्री कॉलेज में उन्होंने अध्यापन किया। 1975 में मुम्बई चली गईं। ‘मेरे संधि पत्र उनका पहला उपन्यास था, जो काफी चर्चा में रहा। डॉ. सूर्यबाला ने अब तक 150 से अधिक कहनियां, उपन्यास और हास्य-व्यंग्य लिखा है। आकाशावाणी और दूरदर्शन पर भी उनकी रचनाओं पर आधारित कार्यकम प्रसारित हुए हैं। देश-विदेश के रेडियो और टीवी चैनलों से उन्होंने अपनी रचनाओं का पाठ किया। उनकी अनेक रचनाएं विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। समाज, जीवन, परंपरा, आधुनिकता और उससे जुड़ी समस्याओं पर उन्होंने अपनी दृष्टि डाली और अपने लेखन में शामिल किया।

उनके प्रमुख उपन्यासों में ‘मेरे संधि पत्र, सुबह के इंतजार तक, अग्निपंखी, यामिनी कथा, दीक्षांत आदि उपन्यास हैं। कहानी संग्रह की दृष्टि से ‘एक इंद्रधनुष, ‘दिशाहीन, ‘थाली भर चांद, ‘मुंडेर पर, ‘गृह प्रवेश, ‘सांझवती, ‘कात्यायनी संवाद, ‘इक्कीस कहानियां, ‘पांच लंबी कहानियां, ‘सिस्टर प्लीज आप नहीं जाना, ‘मानुषगंध, ‘वेणु का नया घर, ‘सूर्यबाला की प्रेम कहानियां आदि शामिल हैं। दूरदर्शन पर उनके लिखे कई धारावाहिक प्रसारित हुए हैं। इनमें ‘पलाश के फूल, ‘न किन्नी न, ‘सौदागर दुआओं के, ‘एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम, ‘सबको पता है, ‘रेस तथा निर्वासित प्रमुख हैं। उनकी रचनाओं में बदलते मूल्यों की चिंता स्पष्ट दिखाई देती है। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि मूल्यों के क्षरण पर बेचैनी होती है। तब किसी ऐसी रचना का सृजन होता है जो पाठकों को याद रह जाती है। भारतीय संस्कृति के साथ जितने भी बदलाव हुए हैं और हो रहे हैं, वे चिंतनीय हैं।

कोट:

मैं नि:शब्द हूं। यह पुरस्कार समर्पित है पाठकों को। जिनके प्यार, स्नेह और जिनकी प्रेरणा से मैंने मुड़कर नहीं देखा। मैंने खेल पत्रकारिता को पसीना नहीं, खून दिया है।

पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार

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