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हिन्दुस्तान स्पेशल: यह थाना आज भी नील किसानों के दमन की दिलाता है याद, अंग्रेजों के जमाने से है मशहूर

यूपी में बस्ती जिले में स्थित वाल्टरगंज थाना आज भी नील किसानों के दमन की याद दिलाता है। यहां नील की खेती कराने के साथ क्रांतिकारियों के दमन के लिए अंग्रेजी फौज की टुकड़ी हरवक्त मौजूद रहती थी।

हिन्दुस्तान स्पेशल: यह थाना आज भी नील किसानों के दमन की दिलाता है याद, अंग्रेजों के जमाने से है मशहूर
Srishti Kunjसुरेंद्र पांडेय,बस्तीWed, 19 Jul 2023 12:04 PM
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यह थाना आज भी नील किसानों के दमन की याद दिलाता है। यहां नील की खेती कराने के साथ क्रांतिकारियों के दमन के लिए अंग्रेजी फौज की टुकड़ी हरवक्त मौजूद रहती थी। जी हां, बात हो रही है बस्ती जिले में स्थित वाल्टरगंज थाने की। जिला मुख्यालय से महज छह किलोमीटर की दूरी पर वाल्टरगंज कस्बे का नाम नील की खेती कराने वाले अंग्रेज ठेकेदार वॉल्टियर के नाम पर पड़ा, जो धीरे-धीरे वाल्टर हो गया। वॉल्टियर 1867 के आसपास इस इलाके में आकर नील की खेती कराने और नील बनवाने का काम करने लगा था। यहीं पर अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी भी रहती थी। क्रांतिकारी या फिर शक के आधार पर पकड़े गए लोगों को यहीं पर यातनाएं भी दी जाती थीं।

अंग्रेजी सेना ने बनाई थी छावनी
1857 में राजा नगर उदय प्रताप सिंह के विद्रोह बाद उनको मात देने के लिए अंग्रेजी सेना ने पहले इस क्षेत्र में अपनी छावनी बनाई। सुरक्षा के लिहाज से कुआनो नदी के उत्तर तरफ का हिस्सा व आक्रमण के लिए दक्षिण तरफ का हिस्सा गनेशपुर से लेकर तिलकपुर तक रहा। तिलकपुर में अंग्रेजों ने अपनी चांदमारी भी बना रखा थी। राजा उदय प्रताप सिंह के शहीद होने पर क्षेत्र में विद्रोह को दबाने के लिए इस इलाके में अंग्रेज अधिकारी अपनी एक टुकड़ी के साथ स्थायी तौर पर रहने लगे थे। हालांकि कई बदलाव के बाद आज भी यहां का थाना वाल्टरगंज के नाम से ही है।

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नील मजदूरों संग बेरहमी से पेश आते थे अंग्रेज
बिहार के चंपारण और पश्चिम बंगाल में नील की खेती अपने चरम पर थी। वहां से कलकत्ता बंदरगाह से नील जर्मनी को निर्यात हो रहा था, तो उसी दौर में 1867 में नील की खेती करने वाले एक अंग्रेज ठेकेदार मॉक वाल्टियर ने बड़ी बक्सई में नील की खेती कराने के लिए आया था। मॉक वाल्टियर का फार्म हाउस अंग्रेजी सैनिकों के टुकड़ी का आरामगाह बना। नील की खेती कराने के लिए मजदूरों को बंधक बनाया जाता था। विरोध करने वाले मजदूरों से अंग्रेज सैनिक काफी बेरहमी के साथ पेश आते थे।

बड़ी बक्सई गांव में था नील का प्लांट
कुआनो नदी किनारे बड़ी बक्सई गांव में नील बनाने का प्लांट लगाया। प्लांट से कुआनो नदी को एक सुरंग जोड़ती है। यहां पर एक कुंआ था, जो कुआनो नदी से जुड़ा था। इस कुंए से पानी निकाला जाता था। नील तैयार करने के लिए काफी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती थी। इस कुंए और प्लांट का अवशेष बड़ी बक्सई में आज भी मौजूद है। वर्तमान की श्रीपालपुर ग्राम पंचायत, जिसका हिस्सा वाल्टरगंज कस्बे का एक राजस्व गाव ‘साहबगंज’ है। साहबगंज में वॉल्टियर ने मजदूरों आदि के लिए बाजार लगवाने की व्यवस्था की। मॉक वाल्टियर को क्षेत्रीय लोग साहब कहते थे, इसलिए इस बाजार का नाम साहबगंज पड़ गया। वर्तमान के वाल्टरगंज क्षेत्र में मॉक वाल्टियर का आवास था, जिसके कारण लोग वाल्टरगंज के नाम से जानने लगे।

मौजूद है मॉक वाल्टियर की कोठी का अवशेष
नील के ठेकेदार मॉक वाल्टियर की तरफ से स्थापित बड़ी बक्सई में नील कोठी के नाम से स्थापित नील का प्लांट आज भी गुलामी की दास्तां को बयां करता है। नील हौज और अंग्रेजों का बैठका आज भी देखा जा सकता है। प्लांट की मोटी-मोटी दीवारें आज भी हैं, जहां पर नदी से पानी खींचने के लिए लगे उपकरण आदि के निशान भी मिलते हैं।

आजादी बाद नाम बदलने का हुआ प्रयास
देश आजाद होने के बाद भी वाल्टियर का छोड़ा गया नाम आज भी बरकरार है। हालांकि इसे स्थानीय लोगों ने बदलने का प्रयास किया। क्षेत्र को ग्राम पंचायत बनाते वक्त इसका नाम वाल्टरगंज न करते हुए श्रीपालपुर रखा गया। जब यहां पर रेलवे स्टेशन बना तो उसका नाम क्षेत्रीय नागरिक भरौली बाबू निवासी गोविन्द सिंह के नाम पर रखा। चीनी मिल स्थापित हुई तो भी उसका नाम गोविन्दनगर शुगर मिल रखा गया। अब वाल्टरगंज को श्रीपालपुर के नाम से नगर पंचायत बनाने की प्रक्रिया चल रही है।

सरकारी जमीन हो गई है मॉक वाल्टियर की कोठी व प्लांट
क्षेत्रीय लेखपाल जितेन्द्र सिंह बताते हैं कि मॉक वाल्टियर की कोठी और प्लांट की जमीन किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर सरकारी खाते में दर्ज है। ग्राम पंचायत बड़ी बक्सई के नाम दर्ज यह जमीन वैसे ही खंडहर के तौर पर पड़ी है।

काम न करने पर होती थी पिटाई
बड़ी बक्सई निवासी बुजुर्ग रामदुलारे, सत्यदेव, पल्टनपुर निवासी राम लखन और तिलकराम ने बताया कि स्थानीय किसानों की जमीन को जबरन लेकर नील की खेती कराई जाती थी। नील की खेती के चलते जमीन बंजर हो जाती थी। जिस किसी किसान ने विरोध किया तो उसे सजा मिली। आसपास के लोगों को पकड़कर मजदूरी कराया जाता था। जिसने विरोध किया उसकी पिटाई होती थी। बुजुर्ग बताते थे कि यहां पर नील की खेती, पेड़ से निकले नील की कुटाई व घिसाई कर नील तैयार होता था। नील तैयार होने पर कलकत्ता भेजा जाता था।

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