साहित्य अकादमी अवार्ड: डा. अनीस अशफ़ाक ने कहा- उर्दू की लिपि बदली गई तो मर जाएगी ज़बान
साहित्य की दुनिया में लखनऊ एक बार फिर सुर्खियों में आया। इस शहर-ए-अदब के जाने-माने लेखक, समालोचक, शायर डा. अनीस अशफाक को इस साल का साहित्य अकादमी अवार्ड दिए जाने का एलान हुआ। पढ़ें बातचीत के अंश

साहित्य की दुनिया में लखनऊ एक बार फिर सुर्खियों में आया। इस शहर-ए-अदब के जाने-माने लेखक, समालोचक, शायर डा. अनीस अशफाक को इस साल का साहित्य अकादमी अवार्ड दिए जाने का एलान हुआ। पुराने लखनऊ के नक्खास इलाके में बंजारी टोला (बजाजा) मोहल्ले में 1953 में जन्मे, यहीं पले-बढ़े।
इसी शहर के जुबली कालेज में कक्षा छह से आगे की तालीम हासिल करने वाले डा. अशफाक ने लखनऊ विश्वविद्यालय से बीए, एमए, पीएचडी और डी.लिट् की उपाधि हासिल की। उसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में वर्ष 1983 से 2012 तक अध्यापन किया। 16 साल उर्दू विभागध्यक्ष भी रहे। इससे पहले उन्हें साहित्य अकादमी का एक पुरस्कार वर्ष 2000 में मिला था।
जब उन्होंने वरिष्ठ हिन्दी लेखक निर्मल वर्मा के उपन्यास 'कौव्वे और कालापनी' का उर्दू में अनुवाद किया था। उन्हें भोपाल की एक संस्था ने इकबाल सम्मान से भी नवाजा। उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उनकी किताबों पर उन्हें पुरस्कृत किया। अब साहित्य अकादमी ने उन्हें उनके 2017 में प्रकाशित हुए उपन्यास 'ख्वाब सराब' पर पुरस्कार देने का एलान किया है। इससे पहले वर्ष 2014 में उनका उपन्यास 'दुखियारे', 2018 में 'परीनाज़ और परिन्दे' आया। 2017 में उनकी गज़लों का एक संग्रह 'एक नैज़ा-खून-ए-दिल' भी प्रकाशित हुआ।
हाल ही में उनकी एक किताब का विमोचन दिल्ली के ग़ालिब इंस्टीट्यूट में हुआ, किताब का नाम है-'ग़ालिब-दुनिया-ए-मायनी का मुतालया।' और एक किताब और आने वाली है-'अदब की बातें बहसो तनकीद।' अब वह गोमतीनगर लखनऊ के विपुल खंड निवासी हैं।
'हिन्दुस्तान' ने साहित्य अकादमी अवार्ड मिलने पर डा. अनीस अशफाक से कुछ मुद्दों पर बातचीत की। पेश है बातचीत के कुछ खास अंश:
-पहले तो हम सबकी तरफ से आपको बहुत-बहुत मुबारकबाद। आज उर्दू ज़बान की जो हालत है उसे किस नज़र से देखते हैं?
बहुत से लोग मायूसी जताते हैं मगर मैं कतई मायूस नहीं हूं। कोई भी ज़बान हो वह तब तक जिन्दा रहती है जब तक उसके लिखने वाले, पढ़ने वाले रहते हैं। जब तक उर्दू साहित्य लिखा जाता रहेगा तब तक उर्दू क़ायम रहेगी।
-कहा जाता है कि अगर उर्दू फारसी लिपि की बजाए देवनागरी लिपि में लिखी जाए तो ज्यादा लोगों तक पहुंचेगी और उसका बहुत विस्तार होगा?
हां, एक धड़ा ऐसा है जो यह कहता है कि उर्दू का लिप्यांतर होना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो जो लोग उर्दू लिपि पढ़ना नहीं जानते वह भी उर्दू में लिखा गया साहित्य पढ़ सकेंगे। दूसरा धड़ा यह कहता है कि अगर लिपि बदल दी गई तो ज़बान मर जाएगी। मैं महान उपन्यासकार बाबू अमृत लाल नागर के घर जाता रहता था, साहित्य पर उनसे बातचीत होती थी। वह मुझे अशफाक कहते थे। मैंने उनसे पूछा था कि आप लोग हिन्दी देवनागरी में नुक्ता लगाने से क्यों परहेज करते हैं, उन्होंने कहा था कि अगर हम लोगों ने नुक्ते लगाने शुरू कर दिए तो हिन्दी खत्म हो जाएगी। मेरा भी यही मानना है कि अगर लिपि बदली गई तो उर्दू ज़बान जीते जी मर जाएगी।
-आज के दौर में उर्दू के पठन-पाठन का सिलसिला बहुत सीमित हो गया है। उर्दू मुशायरों तक सिमटती चली गई?
यह सही है यह बदकिस्मती रही कि उर्दू रोजी-रोटी से नहीं जोड़ी जा सकी। दूसरी सरकारी ज़बान बन जाने के बाद यूपी के सरकारी दफ्तरों में उर्दू में कामकाज नहीं होता। सिर्फ उर्दू पढ़ने वालों को नौकरी नहीं मिलती। एक दौर था जब उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी बहुत सक्रिय रहा करती थी। अकादमी की ओर से उर्दू पठन-पाठन की रात्रिकालीन कोचिंग चलती थीं। पुस्तकालयों को अनुदान मिलता था, मगर अब उर्दू अकादमी पूरी तरह निष्क्रिय है।
-उर्दू फिर से अपने पुराने दौर में लौटे इसके लिए आप क्या उपाय सुझाते हैं?
सबसे पहले तो लोग खुद उर्दू के लिए अपनी दिलचस्पी पैदा करें और दूसरे ये कि उर्दू को सरकारी सरपरस्ती भी मिले।
-आप समालोचक हैं। प्रो. शम्सुर्रहमान फारूकी, प्रो. गोपीचंद नारंग के बाद अब आज उर्दू समालोचना कहां पर आकर ठहरी है?
उर्दू समालोचना बहुत ही एडवांस है और वैज्ञानिक है। किसी भी तरह की कमी नहीं है। चाहे वह आधुनिकता हो या उत्तर आधुनिकता का साहित्य, जितने भी ट्रेण्ड हैं वह हमारे यहां उर्दू में मिलते हैं। उर्दू समालोचना बहुत ही समृद्ध है।