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अयोध्यानामा : अयोध्या मामले में 1 फरवरी 1986 का दिन मील का पत्थर है, जानें क्यों

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में 1 फरवरी, 1986 का दिन मील का पत्थर है। इस दिन 37 साल तक अटके विवाद में एक नया मोड़ आया। राजीव गांधी सरकार की पहल पर विवादित परिसर का ताला खुला। इसके बाद राम मंदिर...

अयोध्यानामा : अयोध्या मामले में 1 फरवरी 1986 का दिन मील का पत्थर है, जानें क्यों
हिन्दुस्तान टीम, नई दिल्ली।Wed, 06 Nov 2019 05:11 PM
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राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में 1 फरवरी, 1986 का दिन मील का पत्थर है। इस दिन 37 साल तक अटके विवाद में एक नया मोड़ आया। राजीव गांधी सरकार की पहल पर विवादित परिसर का ताला खुला। इसके बाद राम मंदिर निर्माण के आंदोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ लिया। यह राजनीतिक तौर पर एक सोचा-समझा कदम था।

अयोध्या के राम जन्मभूमि विवाद का एक महत्वपूर्ण पड़ाव वह है, जब दिनांक 1 फरवरी 1986 को फैजाबाद जिला न्यायाधीश के आदेश से विवादित स्थल का ताला खोला गया था। तब देश में राजीव गांधी की सरकार थी और उन्हीं की अनुमति से ताला खुलवाया गया था।

विवाद की शुरुआत हुई 22-23 दिसंबर 1949 से, जब यहां राम दरबार से जुड़ी कुछ मूर्तियां मिलीं। तब उत्तर प्रदेश में गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे। मामला अदालत पहुंचा, जिस कारण मंदिर पर ताला लगा दिया गया। मामला सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दर्ज करवाया था। 1961 में हामिद अंसारी इस मुकदमे में वादी की तरह जुड़ गए थे।

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बाद में एक वकील उमेश चंद्र पांडेय ने अदालत में मंदिर का ताला खुलवाने की अपील की, जिस पर 1 फरवरी 1986 को फैसला आया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अनुमति से ताला खुलवाया गया था। राजीव गांधी आगे कुछ करते, इससे पहले ही उनकी *हत्या हो गई।

कहा जाता है कि ताला खुलवाने का फैसला देने से पहले काफी तैयारी की गई थी। तत्कालीन जिला जज के.एम. पांडेय ने जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक से बैठक की। उन्होंने फैसले से होने वाले तमाम नतीजों पर भी विमर्श किया और यह पाया कि इसका कानून-व्यवस्था पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके बाद अदालत ने यह फैसला दिया कि विवादित स्थल का ताला खोल दिया जाए। फैसले के 40 मिनट बाद ही ताला खुल गया था।

तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव रहे माधव गोडबोले की हाल ही में आई पुस्तक ‘द बाबरी मस्जिद-राम मंदिर डिलेमा : एन एसिड टेस्ट फॉर इंडियन कॉन्स्टीट्यूशन' में इस पूरे घटनाक्रम का जिक्र किया गया है। उन्होंने हाल ही में बयान दिया कि मंदिर का ताला खुलवाने से लेकर शिलान्यास करने तक का कार्य राजीव गांधी सरकार में हुआ था। इस तरह वह भी कारसेवक कहे जा सकते हैं।

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यह वह दौर था, जब शाहबानो केस में आए फैसले के बाद राजीव गांधी की छवि मुसलिम तुष्टिकरण वाली बन गई थी। माना जाता है कि इस छवि से बाहर निकलने के लिए ही यह फैसला लिया गया था। लेकिन चुनाव करीब थे, जिस कारण पूरे मुद्दे पर सियासत गहरा गई। मुस्लिम नेताओं ने इस फैसले का विरोध किया और लखनऊ में एक बैठक के बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने 26 जनवरी 1987 के गणतंत्र दिवस समारोह के बहिष्कार का आह्वान किया। यह अलग बात है कि बाद में आंदोलन भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में शामिल हो गया। राजीव गांधी फैसले के परिणामों के बारे में नहीं सोच पाए थे।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘द टर्बुलेट ईयर्स : 1980-1996' में लिखा है कि अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का एक गलत निर्णय साबित हुआ। इससे देश-विदेश में रहने वाले मुस्लिम समुदाय की भावनाएं बहुत आहत हुईं।

राजनीति विश्लेषक जोया हसन अपनी पुस्तक ‘कांग्रेस आफ्टर इंदिरा' में लिखती हैं, ‘राजीव गांधी सरकार में मंदिर का ताला खुलवाने के आदेश का विश्व हिन्दू परिषद ने लाभ उठाया। 1989 तक आते-आते मामला बहुत बढ़ गया। जब विहिप ने शिलान्यास के लिए पत्थर ले जाने की घोषणा की तो देश भर में माहौल गर्मा गया और कांग्रेस सरकार ने विवादित ढांचे में विहिप को शिलान्यास की अनुमति प्रदान कर दी। इस समूचे प्रकरण को लेकर राजीव गांधी ने कानूनसम्मत रुख अख्तियार किया कि राम मंदिर बनने से कोई विरोध नहीं है लेकिन मस्जिद को आंच नहीं आनी चाहिए। पार्टी को उम्मीद थी कि इससे चुनावों में उन्हें लाभ मिल सकता है लेकिन इससे पहले ही भाजपा और विहिप ने मुद्दे को अपने पक्ष में कर लिया था और हिंदुओं को यह भरोसा दिलाने का अभियान छेड़ दिया था कि शिलान्यास उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है और उन्होंने ही उत्तर प्रदेश सरकार को ऐसा करने के लिए विवश किया। इस पूरे घटनाक्रम से कांग्रेस को क्षति पहुंची और खासतौर पर उत्तर प्रदेश में उनका जनाधार खिसक गया।'

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