बोले सीतापुर : मूर्तियों के लिए मिट्टी और मिले बाजार तो अच्छा चले कारोबार
Sitapur News - नवरात्र और दीपावली जैसे त्योहारों की तैयारियों के बीच मूर्तिकारों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता और मिट्टी की उपलब्धता भी एक बड़ा मुद्दा है। केवल...

नवरात्र के साथ ही त्योहारों का मौसम शुरू हो जाएगा। शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों का माहौल उत्सवी रंगों में डूबने लगा है। घर-घर में देवी मां के जयकारे गूंजने के साथ ही बाजारों में भी रौनक बढ़ने लगी है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में पूजा-पंडालों की स्थापना का काम चल रहा है। उत्साह और उल्लास के बीच एक ऐसा वर्ग है जिसकी मेहनत त्योहारों की शोभा में चार चांद लगाती है। वह है पूजा पंडालों व हमारे घरों में विराजमान दुर्गा मां व गणेश लक्ष्मी की प्रतिमाएं। इन प्रतिमाओं को बेहतरीन कारीगरी से गढ़ने से लेकर उन्हें खूबसूरत रंगों से सजाने का काम करते हैं मूर्तिकार।
मगर मूर्तियों में जान डालने वाले इन कारीगरों को वह सम्मान और सहूलियत नहीं मिलती जिसकी वे हकदार हैं। मूर्तिकार कई समस्याओं का सामना करते हैं। सिर्फ चार माह यह मूर्तियां बनाते और शेष समय मजदूरी। यही नहीं बड़े व्यापारी जहां इनका फायदा उठाते हैं। वहीं इन्हें सरकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल पाता है। मूर्ति बनाने वालों ने कहा उन्हें सरकारी योजना का लाभ दिया जाए ताकि उनकी कला को और अधिक बढ़ावा मिल सके। त्योहारों का मौसम शुरू होने वाला है और इसके साथ ही देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों के काम में भी तेजी आ गई है। नवरात्र, दशहरा और दीपावली जैसे बड़े त्योहारों के लिए मूर्तियों की मांग बढ़ जाती है, लेकिन मूर्तियों को गढ़ने की कला से जुड़े मूर्तिकारों की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। इनमें से कई कलाकारों का मानना है कि सरकारी स्तर पर उन्हें वो मदद नहीं मिल पाती जिसके वे हकदार हैं। सभी ने कहा कि इस कला के अस्तित्व को बचाने के लिए सरकारको प्रयास करना चाहिए, जिससे आने वाली पीढ़ी का इसके प्रति आकर्षण बना रहे। सबसे बड़ी चुनौती मिट्टी की उपलब्धता न होना : शहर के मोहल्ला कजियारा में लगभग पांच परिवार पीढ़ियों से मूर्ति बनाने के इस काम में लगे हैं। इसके अलावा जिले में करीब 20 परिवार इस पेशे से जुड़े हैं। यह कला उन्हें विरासत में मिली है और उनकी बनाई मूर्तियों की मांग आसपास के कई जिलों में भी है। इसके बावजूद उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह सिर्फ मिट्टी को आकार देने का काम नहीं है, बल्कि एक कला है जो सदियों से चली आ रही है। इन परिवारों के लिए यह सिर्फ रोजी-रोटी का जरिया नहीं, बल्कि एक पहचान भी है। मूर्तिकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मिट्टी की उपलब्धता न होना है। शहरीकरण और प्रदूषण के कारण शहरों के आसपास उपयुक्त मिट्टी मिलना मुश्किल हो गया है। मूर्तिकार बताते हैं कि सबसे बड़ी समस्या है कि शहर और आस-पास के इलाकों में मूर्ति बनाने योग्य मिट्टी आसानी से नहीं मिलती। सभी को आसपास के गांवों से मिट्टी मंगानी पड़ती है। एक ठेला मिट्टी की कीमत करीब तीन सौ रुपये तक चुकानी पड़ती है। सिर्फ मिट्टी लाने में ही उनका अच्छा-खासा खर्च हो जाता है। इसके बाद मिट्टी को तैयार करने की लंबी प्रक्रिया होती है। मिट्टी तैयार कर उससे मूर्ति का ढांचा बनाना बहुत मेहनत भरा काम है। बारिश और उमस के मौसम में यह चुनौती और कठिन हो जाती है। मूर्ति बनाने का काम त्योहारों पर ही होता है। बड़े कारोबारी उठाते हैं अधिक मुनाफा : मूर्तिकार बताते हैं कि साल में केवल चार महीने ही काम मिलता है, जिसमें दीपावली के दौरान गणेश और लक्ष्मी की मूर्तियों का ऑर्डर सबसे ज्यादा होता है। जिले में दुर्गा पंडालों की परंपरा ज्यादा प्रचलित नहीं है। लोग अपने घरों में ही छोटी-छोटी मूर्तियों की स्थापना करते हैं। यही वजह है कि स्थानीय मूर्तिकारों के लिए दीपावली का समय सबसे अहम होता है। मुख्य रूप से दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी-गणेश की ही मूर्तियों पर इन मूर्तिकारों की जीविका निर्भर है। केवल चार महीने का काम रहता है, बाकी के आठ महीने परिवार का खर्च चलाने के लिए उन्हें मजदूरी करना पड़ती हैं। शहर के ज्यादातर मूर्तिकारों को उनके घरों पर ही आर्डर मिल जाते हैं और व्यापारी खुद ही तैयार मूर्तियां ले जाते हैं। जिससे इन मूर्तिकारों को उनकी मेहनत का पूरा लाभ भी नही मिल पाता है। इनका कहना है कि कारोबारी कम कीमत पर मूर्तियां लेते हैं और बाजारों में काफी ज्यादा कीमत पर बेच कर मोटा मुनाफा कमाते हैं। वहीं डिजिटल दुनिया में भी इन कारीगरों को अपने ग्राहकों तक पहुंचने में मुश्किल होती है। उनके पास अपनी मूर्तियों का प्रचार करने या आनलाइन आर्डर लेने के लिए डिजिटल प्लेटफार्म नहीं हैं। सभी ने कहा कि अगर इन कलाकारों को उचित प्रोत्साहन और सरकारी मदद मिले तो उनकी कला न सिर्फ बची रहेगी, बल्कि और भी फल-फूल सकती है। योजनाओं को लेकर जागरूक किया जाए, लाभ लेने की प्रक्रिया भी हो सरल सरकार ने कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन जानकारी के अभाव और जटिल प्रक्रियाओं के कारण इन मूर्तिकारों को उनका लाभ नहीं मिल पाता है। मूर्ति गढ़ने की कला से जुड़े लोगों का कहना है कि एक तो हम लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं हो पाती है। अगर जानकारी मिल भी गई तो फॉर्म भरना, अधिकारियों से मिलना और सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाना उनके लिए मुश्किल होता है। इसके अलावा वे अपने काम में इतने व्यस्त होते हैं कि उनके पास इन प्रक्रियाओं को समझने का समय नहीं होता है। जिले में मूर्ति गढ़ने का काम केवल पुरूष ही नहीं करते हैं, इस काम में इन घरों की महिलाएं भी बराबर की भागीदार हैं। एक तरह से यह पारिवारिक व्यवसाय है, जहां परिवार के सभी सदस्य मिलकर काम करते हैं। महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सभी ने कहा कि अगर प्रशासन सरकारी योजनाओं का लाभ मूर्ति कला से जुड़े लोगों तक पहुंचाना चाहती है, तो जागरूकता कार्यक्रमों के साथ-साथ योजनाओं का लाभ लेने की प्रक्रिया को भी सरल बनाना होगा। आठ महीने तक दिहाड़ी मजदूरी करना मजबूरी त्योहारी सीजन की शुरुआत से महीनों पहले मूर्तिकार काम में जुट जाते हैं। पूरे परिवार का पसीना इस कला में बहता है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसी न किसी रूप में इसमें हाथ बंटाते हैं। मूर्तिकारों का कहना है कि उन्हे खासकर दीपावली के मौके पर ही आर्डर आते हैं। दीपावली पर विशेषकर गणेश लक्ष्मी की मूर्तियों की मांग रहती है। लेकिन साल के बाकी महीनों में घर का खर्च चलाने के लिए हम लोगों को दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। अगर उनकी कला को बढ़ावा मिले तो हम लोग गणेश-लक्ष्मी के अलावा अन्य मूर्तियों का भी निर्माण कर सकते हैं। मगर उसके लिए हमें बाजार नहीं मिलेगा। सरकार को चाहिए कि मूर्ति कला को जीवित रखने के लिए कोई विशेष योजना चलाए। बयां किया दर्द नवरात्र शुरू होने के साथ ही पूरे शहर में उत्सव का माहौल बन जाता है। दुर्गा पूजा, दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों की तैयारी शुरू हो चुकी है। खासकर दीपावली के मौके पर मूर्तियों की मांग भी बढ़ जाती है। इन्हीं त्यौहार के बदौलत ही कई महीनें का खर्च निकलता है। मगर डिमांड अधिक नहीं होती है। - गुड्डू लाल हम लोग परंपरागत रूप से इस कला को संजोए हैं। त्यौहारों को मनाने में भी हम अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन इसके बावजूद हमारी परेशानी कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। जानकारी के अभाव में हमें सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पा रहा है। जिससे आर्थिक संकट बना रहता है। - कामिनी देवी शहर के मोहल्ला कजियारा में हम लोगों के करीब पांच परिवार हैं। हम लोग कई पीढ़ियों से मूर्तिकला का काम कर रहे हैं। मिट्टी की मूर्तियों की मांग सीतापुर ही नहीं बल्कि आसपास के जिलों तक रहती है। फिर भी हमें उचित सम्मान, सहूलियत और मेहनताना नहीं मिल पाता। जिससे परिवार चलाना कठिन होता है। -सुशील प्रजापति पहले हम लोगों को शहर और आस-पास ही अच्छी मिट्टी मिल जाती थी, लेकिन अब हमें गांवों से मिट्टी मंगवानी पड़ती है। एक ठेलिया मिट्टी लाने में करीब तीन सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इस कला को जीवित रखने के लिए मिट्टी को लेने में हमे छूट मिलनी चाहिए। सरकारी योजनाओं का लाभ दें ताकि हमारी संख्या बढ़े। - मेजर लाल बोले जिम्मेदार जिले में अपना व्यवसाय शुरू करने वालों के लिए उद्योग विभाग के पास कई योजनाएं हैं। मुख्यमंत्री युवा उद्यमी के तहत 18 से 40 तक के लोग आवेदन करके पांच लाख तक का लोन प्राप्त कर सकते हैं। 100 से ज्यादा लोगों को इस योजना से लोन दिया जा चुका है। इस योजना का लाभ लेकर कोई भी व्यक्ति अपने व्यवसाय को आगे बढ़ा सकता है। -संजय सिंह, उपायुक्त उद्योग प्रस्तुति: अविनाश दीक्षित फोटो: रितिक सक्सेना
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