लोकगीत कजरी के साथ ही गायब हो गए झूले
नागेश्वर द्विवेदी जगतपुर, संवाददाता। रिमझिम फुहार के साथ सावन मास में गांव के...
नागेश्वर द्विवेदी
जगतपुर, संवाददाता। रिमझिम फुहार के साथ सावन मास में गांव के पेड़ों पर पड़ने वाले झूले अब गायब हो रहे हैं। गांव की महिलाएं व लड़कियां, बच्चे, झूले पर कजरी गाते हुए झूला झूलते थे। नाग पंचमी के त्योहार पर मायके आने वाली वाली बेटियां झूले के माध्यम से अपने-अपने ससुराल की कहानी अपने साथियों को बताती थी। कजरी के गीतों से गुलजार होने वाले झूले गायब हुए तो सावन का महीना ही सूना पड़ गया।
गांव में पड़ने वाले झूलों में इस कदर भीड़ होती थी कि महिलाओं और बच्चों की लाइन लग जाती थी। आधुनिकता की चकाचौंध में सावन का महीना भी बदल गया। बिंदागंज गांव की शिवकली, सुभद्रा, केश कली ने बताया कि जहां बचपन में गांव-गांव दो-दो तीन-तीन झूले पडते थे। अब यह प्रथा धीरे-धीरे खत्म हो रही है। इन्हीं झूलों पर बैठकर रिमझिम फुहार के साथ कजरी गई जाती थी। जिसका आनंद अलग ही था।
कट गए बड़े पेड़
सावन में झूले गायब होने के पीछे पुराने व बड़े पेड़ों की कटान भी एक कारण है। गांव में अंधाधूंध पेड़ों की कटान के चलते अब झूले डालने वाले बड़े पेड़ भी कम पड़ गए है। इसके साथ ही जब से कुंओं से पानी भरने की प्रथा समाप्त हुई तब से रस्से भी किसी के यहां नहीं रह गए। पहले खेतों में पानी लगाने के लिए पुराही की जाती थी। जिसमें सनई के बड़े व मोटे रस्से का उपयोग किया जाता था। इसी से झूले डाले जाते थे लेकिन अब यह किसी भी गांव में खोजे नहीं मिलते है।
मोबाइल ने ले ली जगह
लोगों के पास अब लोकगीत गाने का समय भी नहीं बचा है। हर कोई अपने मोबाइल में ऐसा व्यवस्त हुआ कि दूसरे हालचाल भी लेना मुश्किल हो गया है। ऐसे में मिलना जुलना भी बंद हो गया है। इससे अपासी भाई चारा भी प्रभावित हुआ है।
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