The Struggle of Meerut s Theatre A Cultural Hub in Decline बोले मेरठ : कहां खेलें नाटक, यहां थियेटर ही नहीं, Meerut Hindi News - Hindustan
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बोले मेरठ : कहां खेलें नाटक, यहां थियेटर ही नहीं

Meerut News - मेरठ का रंगमंच एक समय संस्कृति और संवाद का केंद्र था, लेकिन आज यह पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है। पहले नाटकों की गूंज होती थी, लेकिन अब कलाकारों की आवाज अनसुनी है। डिजिटल युग ने रंगमंच की अहमियत कम कर...

Newswrap हिन्दुस्तान, मेरठWed, 26 March 2025 06:19 PM
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बोले मेरठ : कहां खेलें नाटक, यहां थियेटर ही नहीं

मेरठ। कभी संस्कृति और संवाद का केंद्र रहा मेरठ का रंगमंच आज अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रहा है। जहां पहले नाट्य कला की गूंज होती थी, रामलीला के मंचन में भावनाओं का प्रवाह बहता था, वही अब मंच सूने हैं और कलाकारों की आवाज अनसुनी है। एक समय था जब रंगमंच सिर्फ अभिनय नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम हुआ करता था। नाटक मंडलियां लोगों की भावनाओं को मंच पर सजीव करती थीं और दर्शक उनकी हर अदा में जीवन का प्रतिबिंब देखते थे। रंगमंच सिर्फ मनोरंजन नहीं, एक आंदोलन था, संवाद, समाज और संवेदनाओं का। एक समय था जब मेरठ में गली और नुक्कड़ पर रंगमंच की गूंज सुनाई देती थी। रामलीला के संवाद, नाटकों के सजीव दृश्य और तालियों की गड़गड़ाहट जैसे इस शहर की रगों में दौड़ती थी। हर शाम रंगमंच एक ऐसा आइना बन जाता था, जिसमें समाज अपनी तस्वीर देखता था, कभी हंसता, कभी रोता और कभी सोच में पड़ जाता लेकिन अब ना वो रंगमंच रहे और ना ही वो कलाकार। हर कोई अभिनय से दूर एक नई दुनिया में डूबा हुआ है, जिसे सोशल मीडिया कहते हैं। जहां लोगों की पसंद ही बदल गई है, वो मंचन और संवाद अब कहां पसंद किया जाता है।

हिंदुस्तान बोले मेरठ ने रंगमंच के कलाकारों से संवाद कर उनके मन की बातें जानने की कोशिश की। भारत भूषण शर्मा, विनोद बैचेन और बंशीधर चतुर्वेदी जैसे कलाकार उस दौर के साक्षी हैं। वे कहते हैं, ‘रंगमंच हमारा धर्म था, मंच हमारी पूजा और अभिनय हमारी साधना। उनके शब्दों में एक टीस है, एक अधूरी पुकार जो आज की भीड़ में कहीं खो गई है। आज वही मेरठ है, वही लोग हैं, पर रंगमंच कहीं पीछे छूट गया है। न वो तालियां रहीं, न वो संवाद। डिजिटल युग ने लोगों को फोन की स्क्रीन में कैद कर लिया है। जहां पहले युवा नाटक मंडलियों में शामिल होकर संवाद और संस्कृति सीखते थे, आज वे यूट्यूब शॉर्ट्स और रील्स में मशगूल हैं। मंच पर किरदार जीने वाले कलाकार अब किरदार ढूंढते फिरते हैं, कभी अपनी पहचान में, कभी दूसरों की नजरों में।

अब रंगमंच शौक भी नहीं रहा

रंगमंच के वरिष्ठ कलाकार भारत भूषण शर्मा और सीमा समर की आवाज में एक पीड़ा झलकती है। वे कहते हैं, ‘जो बात पहले थी, अब वो नहीं रही। अब लोग आते हैं, सीखते हैं, पर वो समर्पण, वो तपस्या नहीं है। पहले रंगमंच धर्म था, अब शौक भी नहीं रहा। रंगमंच को जिंदा रखने के लिए सिर्फ कलाकारों की मेहनत ही नहीं, समाज की भागीदारी भी जरूरी है लेकिन आज जब कोई कार्यक्रम करने की बात आती है तो आर्थिक बोझ कलाकारों पर ही पड़ता है। संसाधनों की कमी, दर्शकों की उदासीनता और जनसमर्थन के अभाव ने रंगमंच को कोने में खड़ा कर दिया है।

पारसी थिएटर की शुरुआत मेरठ की नौचंडी मेला से मानी जाती है

नौचंदी मेला इतिहास के मुताबिक सबसे पहले नौचंदी के मंच पर ही पारसी थियेटर हुआ करता था। पारसी रंगमंच कर्मियों ने उसके बाद जगह-जगह इसके आयोजन किए। तब नौचंदी मेला का छोटा सा मंच हुआ करता था। लेकिन पारसी थियेटर परवान पर था। उसके बाद रंगमंचकर्मी लगातार थियेटर की मांग करते चले आ रहे हैं। 1989 में प्यारे लाल शर्मा स्मारक में पांच दिन का इप्टा का रंगमंच प्रतियोगिता हुई। इसमें देशभर की नाट्य संस्थानों ने भाग लिया। पहला पुरस्कार आरा ( बिहार) ने जीता। पुरस्कार वितरण प्रसिद्ध अभिनेता और रंगकर्मी रघुवीर यादव ( मुंगेरीलाल के हसीन सपने फेम) ने किया। उन्होंने भी तब कहा था कि मेरठ को एक थियेटर की दरकार है। इतने साल हो गए लेकिन यह सपना पूरा नहीं हुआ। मेरठ की तमाम नाट्य संस्थाओं का दर्द यह है कि कहां नाटक खेलें।

अब वो हालात बदल गए

हंसमुख चतुर्वेदी बताते हैं कि वे 15 साल की उम्र से रंगमंच कर रहे हैं। उनका कहना है कि अब हालात बदल गए हैं। सोशल मीडिया, यूट्यूब और रील्स की तेज रफ्तार ने रंगमंच की धीमी लेकिन गहरी चाल को पीछे छोड़ दिया है। लोग अब क्षणिक मनोरंजन के पीछे भागते हैं, जिसमें न गहराई है, न जुड़ाव। मंच पर प्रस्तुति देना अब जुनून से ज्यादा बोझ बनता जा रहा है। मुंबई जैसे बड़े शहरों में थियेटर अब भी सांसें ले रहे हैं, लेकिन मेरठ जैसे शहरों में रंगमंच की सांसें उखड़ती नजर आ रही है।

रंगमंच के बदल गए स्वरूप

रंगमंच को अपनी आत्मा मानने वाले भारतभूषण कहते हैं कि वो आज भी रंगमंच के लिए कलाकारों को तैयार करते हैं, जब किसी कार्यक्रम में अपने अभिनय का मंचन करने जाते हैं तो आंखें उस भीड़ को ढूंढती हैं, जो कभी उनके अभिनय पर तालियां बजाया करती थी। जहां अब कोई बच्चा नहीं पूछता कि अगला नाटक कब है, अब पूछते हैं, वीडियो कब अपलोड करोगे? वे मुस्कराते हैं, पर उनकी मुस्कान में वो खुशी नहीं, जो मंच पर चरित्र निभाने के बाद आती थी।

बार-बार मिलती है हिम्मत

रंगमंच कलाकार भारत भूषण शर्मा वर्तमान में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के सदस्य और पूरे प्रदेश से नाट्य विद्या के सदस्य हैं। वे कहते हैं, कई बार उन्होंने सोचा कि अभिनय की पाठशाला ही बंद कर दें, सब छोड़ दें, लेकिन फिर कहीं से कोई आता है, जो आंखों में सपने लिए अभिनय सीखना चाहता है। वो फिर हिम्मत देता है, शायद मंच की कहानी खत्म नहीं हुई है। वो बस एक ठहराव में है, एक लंबे अंतराल की तरह, मेरठ का रंगमंच आज भी कहीं जिंदा है, धड़क रहा है, पर किसी को सुनाई नहीं देता।

आज भी उम्मीद की जल रही लौ

रंगमंच को अपना कर्म मानने वाले अनिल शर्मा कहते हैं कि उन्हें चाहिए कुछ ऐसे कलाकार, जो रंगमंच की धड़कन समझें। रंगमंच को चाहिएं वो आंखें, जो किरदारों के दर्द को पढ़ सकें। और चाहिएं वो लोग, जो मंच को फिर से संवाद बना सकें क्योंकि मंच केवल अभिनय नहीं, एक आत्मा है और आत्मा कभी मरती नहीं, बस पहचान मांगती है। इसी तरह रंगमंच भी अपनी पहचान मांग रहा है। अभिनय किरदार की चाहत में इंतजार कर रहा है, उम्मीद की लौ आज भी जल रही है। एक दिन फिर रंगमंच पर कलाकार रंग लाएंगे।

इन्होंने यात्रा में रखा कदम

इस रंगमंच की मंडली में कुछ सीखने की चाह रखने वाले सागर शर्मा, सक्षम वत्स, उज्ज्वल सिंह और संभव शर्मा रोज प्रैक्टिस करने के लिए आते हैं। कई मंचों पर अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके हैं। कहते हैं कि रंगमंच के कलाकारों के लिए एक स्थाई स्थान होना चाहिए, जहां लाइट, साउंड और बेहतरीन मंच हो। इससे उन्हें प्रेरणा ही नहीं बल्कि आगे बढ़ने का जोश भी पैदा होगा। यह बहुत जरूरी है कि रंगमंच को जिंदा रखने के लिए सभी स्तरों पर सहायता की जाए।

औपचारिकता रह गया रंगमच

रंगमंच कलाकार दर्द बयां करते हैं कि हर साल 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस मनाया जाता है, जो अब एक औपचारिकता बनकर रह गया है। इस दिवस की शुरुआत 1961 में हुई थी, कहीं पीछे छूटती जा रही है। यह दिन रंगकर्मियों को सम्मानित करने, उनके संघर्षों को सराहने और समाज में रंगमंच की भूमिका को उजागर करने के लिए है लेकिन विडंबना यह है कि यह सब शब्दों तक ही सीमित रह गया है।

असुविधाओं में दब गया रंगमंच

मेरठ जैसे शहर में जहां रंगकर्मियों की ऊर्जा, समर्पण और संवेदनाएं कच्ची ईंटों से भी बेहतर मंच गढ़ लेती हैं, वहां आज तक एक स्थायी प्रेक्षागृह का ना होना, एक चुभने वाला सत्य है। रंगकर्मी अपने सीमित संसाधनों के बावजूद, समाज को जगाने का, सच्चाई को उजागर करने का, और शांति का संदेश देने का काम करते आ रहे हैं। वे अपनी कला के माध्यम से अंधकार में रोशनी की लौ जलाते हैं परंतु सुविधाओं के अभाव में यह लौ धीमी पड़ने लगती है।

रील्स में गुम हो गई कलाकारी

संगम आर्ट कल्चरल सोसाइटी के अध्यक्ष जुनैद फारूकी कहते हैं कि हमने थियेटर बहुत किया है। नौचंदी मेले में नाटकों का मंचन करते थे और पीएल शर्मा स्मारक की स्टेज पर अपनी कलाकारी का जज्बा दिखाया है। पहले संवादों को तैयार करते थे, उनको घर और बाहर खुद में समाकर देखते थे, बोलते थे, लेकिन सब कुछ अब रील्स ने खत्म कर दिया। रील्स बनाने वाला हर कोई खुद को कलाकार समझता है लेकिन वह इसके मर्म को नहीं समझ पाता। आज भी वो दिन याद आते हैं, नुक्कड़ और नाटक हुआ करते थे। जो होता था, वह मन से होता था, पर अब उसकी छटा नजर नहीं आती।

मेरठ से मुंबई तक का सफर

फिल्म और टीवी सीरियल्स में काम करने वाले गिरीश थापर बताते हैं कि नटरंग नाम से संस्था चलाया करते थे। जिसके डायरेक्टर कपिल शांडिल्य हुआ करते थे, वो चले गए तो संस्था बिखर गई। फिर मेरठ में उपटा के साथ काम किया, रंगमंच के साथ काम किया, और फिर मुंबई चले गए। दिल नहीं लगा तो वापस मेरठ चले आए, इसके बाद 2012 से मुंबई में ही हूं। 500 शो कर चुका हूं और 200 के करीब कॉमर्शियल एड कर चुका हूं, 50-60 बड़ी-बड़ी फिल्में कर चुका हूं। रेस-3, हाउसफुल 4, बंटी-बबली पार्ट-2 जैसी बड़ी फिल्में शामिल हैं। बड़ी वेब सीरीज में भी काम कर चुका हूं और कर भी रहा हूं।

रंगमंच कर्मियों को नहीं मिलती प्रतिष्ठा

गिरीश थापर बताते हैं कि थियेटर की स्थिति पहले भी ऐसी थी और आज भी ऐसी ही है, राकेश कपूर साहब के साथ रंगमंच चलाया था। उनके साथ काम किया, फिर वो यूएस चले गए। उनके बाद भारतभूषण शर्मा आज भी उपटा के नाम से संस्था चला रहे हैं। सही बात ये है कि हिंदी रंगमंच या रंगकर्मियों को आज भी वो प्रतिष्ठा नहीं मिलती है, जो अन्य क्षेत्रों के लोगों को मिलती है। मेरठ में कोई कॉमर्शियल थियेटर नहीं है, जो सरकारी रेट पर हमें मिल सके। रंगमच से लोग जुड़ें और इसके लिए प्रयास हों, फिलहाल जो प्रयास किए जा रहे हैँ वो ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं। मैं तो यही चाहता हूं, कि एक बार फिर रंगमंच की दुनिया में खुशहाली लौट आए।

आज भी जीवंत रखा है थियेटर

मुक्ताकाश नाट्य संस्थान के निदेशक आकाशदीप कौशिक बताते हैं कि संस्थान की स्थापना सन 1964 में स्वर्गीय सुरेंद्र कौशिक द्वारा की गई थी। आज भी यह नाट्य संस्था मेरठ में कलाकारों को नया आयाम दे रही है। सुरेंद्र कौशिक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली से 1964 बैच के स्नातक रहे और डिप्लोमा करने के बाद भारतीय थिएटर को जीवंत रखने के लिए अपने शहर मेरठ में स्थापना की। पिछले 60 वर्षों से मुक्ताकाश ने लगभग 150 पूर्णांक नाटकों के हजारों मंचन किए। विभिन्न ज्वलंत सामाजिक विषयों पर लगभग 75,000 नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया।

समस्या

- मेरठ में रंगमंच प्रस्तुतियों के लिए पर्याप्त थिएटर या मंच नहीं हैं

- थिएटर से जुड़े कलाकारों को स्थाई रूप आमदनी नहीं हो पाती है

- नाटक देखने आने वाले दर्शकों की संख्या लगातार कम हो रही है

- थिएटर ग्रुप्स को स्थानीय निकायों से सहयोग नहीं मिलता है

- नए रंगकर्मियों का सोशल मीडिया की तरफ रुझान बड़ी समस्या

सुझाव

- सरकारी और निजी संस्थानों को थिएटर प्रशिक्षण केंद्र खोलने चाहिए

- स्थानीय प्रशासन को कार्यक्रमों के आयोजन में सहयोग करना चाहिए

- नाटकों को प्रचारित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएं

- रंगकर्मियों को अनुदान, फैलोशिप या मासिक भत्ता योजनाएं शुरू हों

- स्थानीय प्रशासन को छोटे स्तर पर नाट्यशालाएं विकसित करनी चाहिए

रंगमंच के लिए जिले में कोई प्रेक्षागृह नहीं है, जहां कलाकार अपनी प्रैक्टिस कर सके और कला का मंचन कर सके। - भारत भूषण शर्मा, सदस्य यूपी नाटक अकादमी

बहुत कम उम्र से ही रंगमंच का कलाकार रहा हूं, बहुत सारे नाटकों का मंचन किया है, लेकिन अब रंगमंच को आयाम चाहिए। - बंशीधर चतुर्वेदी, रंगमंच कलाकार

1975 से लगातार नाटकों का मंचन करता आ रहा हूं, बचपन में बच्चों को लेकर नाटक करते थे, आज पहले जैसी बात कहां है। - अनिल शर्मा, रंगमंच कलाकार

दस साल की उम्र से ही नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया था, आज भी रंगमंच से लगाव है और नाटकों में मंचन करती हूं। -सीमा समर, रंगमंच कलाकार

कलाकारों की रिहर्सल के लिए एक स्थान होना चाहिए, ताकि रंगमच जीवंत रहे, कभी विक्टोरिया पार्क में नींव रखी गई थी। - विनोद बैचेन, रंगमंच कलाकार

डेढ़ साल से सीख रहा हूं, कई नाटकों में मंचन भी किया है, आगे भी सीखता रहूंगा, यहां रंगमंच के लिए प्लेटफॉम होना चाहिए। - सागर शर्मा, कलाकार

2021 से रंगमंच से जुड़ा हूं, कई वर्कशॉप में नाटकों का मंचन भी किया है, बस जरूरत है, तो कलाकारों के इस रंगमंच को मंच की। - उज्ज्वल सिंह, कलाकार

सर के सानिध्य में सीख रहे हैं, रंगमंच को नया आयाम मिले और हमें एक बेहतरीन प्लेटफॉर्म, इसलिए सीखने की चाह रहती है। - सक्षम वत्स, कलाकार

कई नाटकों में अपनी भागीदारी निभाई है, चाहता हूं कि मेरठ में ही नहीं बाहर भी रंगमंच के प्लेटफॉर्म में परफॉर्म करूं और आगे बढ़ूं। - संभव शर्मा, कलाकार

मैंने बहुत नाटकों में काम किया है, नौचंदी में मंच पर कई परफॉर्मेंस की हैं, लेकिन आज सभी लोग सोशल मीडिया की तरफ दौड़ रहे हैं। - जुनैद फारूकी, कलाकार

ये सत्य है रंगमंच सीमित दर्शकों तक पहुंचता है किंतु इसका असर सीधा दिल पर पड़ता है। रंगमंच एक स्वस्थ नशे की तरह है जो किसी का नुकसान नहीं करता,ये नशा थिएटर करने वाले कलाकारों को तो जुनूनी बनाता ही है साथ ही दर्शक भी थिएटर देख आनंदित होते हैं। - डॉ. इंदु कौशिक, संरक्षिका, मुक्ताकाश नाट्य संस्थान

वर्तमान में मुक्ताकाश संस्था रंगमंच को कमर्शियल थिएटर तक ले जाने के लिए प्रयासरत हैं, जिस तरह दिल्ली, भोपाल, मुंबई जैसे शहरों में लोग टिकट खरीद कर थिएटर का आनंद लेने जाते हैं उसी तरह मेरठ में भी ये माहौल तैयार होगा ऐसा मेरा विश्वास है। - आकाशदीप कौशिक, निदेशक, मुक्ताकाश नाट्य संस्थान

सही बात ये है कि हिंदी रंगमंच या रंगकर्मियों को आज भी वो प्रतिष्ठा नहीं मिलती है, जो अन्य क्षेत्रों के लोगों को मिलती है। मेरठ में कोई कॉमर्शियल थियेटर नहीं है, जो सरकारी रेट पर हमें मिल सके। रंगमच से लोग जुड़ें और इसके लिए प्रयास हों। - गिरीश थापर, अभिनेता, रंगमंच कलाकार

मेरठ में नाट्य संस्थाएं

- यूनाइटेड प्रोग्रेसिव थियेटर एसोसिएशन (उपटा)

- मुक्ताकाश नाट्य संस्थान

- इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इपटा)

- संगम आर्ट कल्चरल सोसाइटी

मेरठ के चर्चित नाटक

- सरफरोशी की तमन्ना

- आजादी की पहली जंग

- सबरी के श्रीराम

- दूसरी शादी

- दरोगा जी चोरी हो गई

- काली रात के हमसफर

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