विश्व अस्थमा जागरूकता दिवस : ऑपरेशन से होने वाले बच्चों में अस्थमा का खतरा, बरतें ये सावधानी
देश में वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। इस वजह से अस्थमा के मरीजों की संख्या में बढ़ रही है। इससे बच्चों, महिलाओं से लेकर बुजुर्ग तक प्रभावित हैं। डॉक्टरों का कहना है कि ऑपरेशन से पैदा होने वाले...
देश में वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। इस वजह से अस्थमा के मरीजों की संख्या में बढ़ रही है। इससे बच्चों, महिलाओं से लेकर बुजुर्ग तक प्रभावित हैं। डॉक्टरों का कहना है कि ऑपरेशन से पैदा होने वाले बच्चों में अस्थमा का खतरा ज्यादा रहा रहता है।
अस्थमा एलर्जी है, जो धूल, पशुओं के फर, वायरस, हवा के प्रदूषण से हो सकती है। बढ़ते प्रदूषण के बीच फेफड़ों को शुद्ध ऑक्सीजन की जरूरत है। इसके लिए अपने घर, ऑफिस और आसपास ज्यादा से ज्यादा पौधे लगाने चाहिए। इससे भरपूर ऑक्सीजन उचित मात्रा में मिल सकेगी। यह जानकारी डॉ. एके सिंह ने दी।
अस्थमा जागरूकता दिवस मंगलवार को मनाया जा रहा है। अस्थमा से बचाव और उसके इलाज को लेकर शहर के कई डॉक्टरों से बातचीत की गई। अपोलो मेडिक्स हॉस्पिटल के पल्मोनरी डॉ. एके सिंह ने बताया कि ज्यादा गर्म और सर्द मौसम के वाहनों से, औद्योगिक इकाइयों से निकलता जहरीला धुआं, वायु प्रदूषण भी अस्थमा के लिए जिम्मेदार है। अगर कोई अस्थमा से पीड़ित है तो सर्वप्रथम उसे घर में बिछी कारपेट को बराबर साफ करते रहना चाहिए, क्योंकि कारपेट में काफी धूल मौजूद रहती है। बेहतर होगा कि कारपेट इस्तेमाल ही न करें। अपने घर में एरिका, स्नेक पौधे लगाने चाहिए। इससे पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती है। जिन घरों के आगे पेड़ हैं, उन घरों में धूल के कण कम पाए जाते हैं।
फास्ट फूड नुकसानदेह: पीजीआई के पल्मोनरी विभाग के प्रमुख डॉ. आलोक नाथ ने बताया कि पिज्जा, बर्गर, चाउमीन, कोल्ड ड्रिंक आदि का सेवन करने वाले बच्चे मोटापे के शिकार हो रहे हैं। मोटे बच्चों में फेफड़े की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। रोगों से लड़ने की ताकत भी कम रहती है। इससे एलर्जी हो जाती है। अस्थमा एलर्जी का बिगड़ा रूप है।
इनहेलर बेहद कारगर
एरा मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि यूपी में करीब 30 लाख लोग अस्थमा की चपेट में हैं। इनमें बच्चों की संख्या छह लाख है। बच्चों के साथ महिला मरीजों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। अस्थमा का दवाओं, इंजेक्शन और इनहेलर से इलाज संभव है। उन्होंने बताया कि इनहेलर अस्थमा में बेहद कारगर है। क्योंकि दवाएं खून के जरिए पूरे शरीर में फैलती हैं। फेफड़े तक दवा पहुंचने में कम से कम आधे घंटे का समय लगता है।
बचपन से ही होती है अस्थमा की शुरुआत
केजीएमयू के डॉ. वेद प्रकाश ने बताया कि अस्थमा की शुरुआत बचपन से होती है। ऑपरेशन से होने वाले शिशुओं को अस्थमा होने का खतरा अधिक होता है। डॉक्टरों का कहना है कि महिलाएं प्रसव पीड़ा को सहन नहीं करना चाहती है। इसलिए समय से पहले ऑपरेशन से प्री-मेच्योर शिशु को जन्म देती हैं। प्री-मेच्योर शिशु में फेफड़े का विकास पूरा नहीं हो पाता है। फेफड़े के विकास के लिए डॉक्टर स्टेराइड देते हैं, जिससे शिशु की सेहत को नुकसान पहुंचता है। इसलिए समय से पूर्व जन्म लेने वाले बच्चों को अस्थमा का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
योग से अस्थमा हो सकता है नियंत्रित
केजीएमयू पल्मोनरी मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष डॉ. सूर्यकांत ने बताया कि योग और सुबह का टहलना सेहत के लिए बहुत अच्छा और जरूरी है। इससे अस्थमा मरीज को काफी राहत मिल सकती है। विशेषज्ञों की देख-रेख में रोजाना 30 मिनट योग करना चाहिए। नियमित रूप से प्राणायाम करने मात्र से ही एक तिहाई बंद नालिकाएं खुल जाती हैं, फेफड़ों की क्षमता बढ़ती है। इससे अस्थमा के मरीजों को काफी राहत मिलेगी।
स्तनपान से बच्चों में कम होगा खतरा
केजीएमयू के रेस्पेरेटरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन विभाग के डॉ. अजय वर्मा ने बताया कि महिलाएं फिगर मेंटेन करने के चक्कर में शिशुओं को स्तनपान कम कराती हैं। जबकि छह माह तक शिशुओं को सिर्फ मां का दूध पिलाना चाहिए। छह माह तक मां का दूध पीने वाले शिशुओं में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। शिशु को पोषक तत्व मिलते हैं। उसका शारीरिक विकास तेजी से होता है। अस्थमा के खतरे को भी काफी हद तक रोक सकते हैं।
ये सावधानी बरतें
दमे की दवा व कंट्रोलर इनहेलर हमेशा समय पर लें
सिगरेट, सिगार के धुएं से बचे तथा प्रमुख एलर्जी से बचें
फेफड़े को मजबूत बनाने के लिए सांस का व्यायाम करें
ठंड से खुद को बचाकर रखें।
ये हैं लक्षण
सांस फूलना ’ खांसी आना
आवाज के साथ खांसी आना
मौसम बदलने पर सांस लेने में तकलीफ
बुखार के साथ सांस लेने में दिक्कत
थोड़ी सी मेहनत या खेलने-कूदने में हांफना
अस्थमा के मरीज यह न करें
घर में पशु को न पालें ’ घर में धूल न जमने दें व गंदा न रखें
कोल्ड ड्रक्िंस, आइसक्रीम व फॉस्ट फूड न लें।
नौ फीसदी लोग ही लेते हैं सही से इनहेलर
मिडलैंड अस्पताल के प्रमुख वरिष्ठ चेस्ट रोग विशेषज्ञ डॉ. बीपी सिंह ने बताया कि सांस की नलियों की भीतरी दीवार से एजर्ली होती है। इससे फेफड़ों में हवा की मात्रा कम हो जाती है। ज्यादातर अस्थमा की समस्या बचपन में ही शुरू होती है।
एंटीबायोटिक दवाओं से मरीज बचें
सिविल अस्पताल के एमएस व सांस रोग विशेषज्ञ डॉ. आशुतोष दुबे ने बताया कि एक साल से कम उम्र के बच्चे को एंटीबायोटिक दवाएं नहीं दी जाती हैं। अफसोस की बात है कि गली-मोहल्ले में डॉक्टर हल्की खांसी-बुखार में भी एंटीबायोटिक दवाएं दे रहे हैं। अस्थमा पीड़ित बच्चों के इलाज में एंटीबायोटिक की कोई भूमिका नहीं होती है। ऐसे में बिना जरूरत एंटीबायोटिक देने से सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। एंटीबायोटिक दवाएं सीमित हैं। ऐसे में उनका इस्तेमाल सोच समझकर करना चाहिए।