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मुंशी प्रेमचंद की 128वीं जयंती आज

लखनऊ। वरिष्ठ संवाददाता मुंशी प्रेमचंद...नाम से ज्यादा इस शख्सियत को किसी परिचय की जरूरत नहीं। पिछले 10-15 वर्ष को छोड़ दें तो उससे पहले की हर पीढ़ी का एक साक्षात्कार प्रेमचंद से जरूर हुआ है। किसी के...

मुंशी प्रेमचंद की 128वीं जयंती आज
हिन्दुस्तान टीम,लखनऊSun, 30 Jul 2017 07:40 PM
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लखनऊ। वरिष्ठ संवाददाता मुंशी प्रेमचंद...नाम से ज्यादा इस शख्सियत को किसी परिचय की जरूरत नहीं। पिछले 10-15 वर्ष को छोड़ दें तो उससे पहले की हर पीढ़ी का एक साक्षात्कार प्रेमचंद से जरूर हुआ है। किसी के जेहन में प्रेमचंद 'ईदगाह' बनकर दर्ज हैं तो कोई उन्हें 'गोदान' और 'गबन' में ढूंढता है और हिन्दी का शायद ही कोई छात्र रहा हो जिसकी मुलाकात 'नमक का दरोगा' से न हुई हो। इन कालजयी कहानियों, उपन्यासों और इनके पात्रों को जन्म देने वाले मुंशी प्रेमचंद की सोमवार को 128वीं जयंती है। प्रगतिशील लेखक आंदोलन को गति देने वाले प्रेमचंद प्रगतिशील लेखन को आज भी कैसे प्रेरणा दे रहे हैं और किस तरह उनकी कही व लिखी बातें आज चरितार्थ होती दिख रही हैं...ऐसे ही सवालों पर कुछ यूं है हिन्दी के विद्वानों की राय... लोकतंत्र नहीं, स्वराज्य के पक्षधर थे प्रेमचंद प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित, पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष लखनऊ विवि प्रासंगिकता की बात करें तो वह प्रेमचंद आज भी हैं, अभी 'आउटडेटेड' नहीं हुए हैं। उन्होंने यह साबित करके दिखाया था कि लेखक केवल बाजार के लिए और मनोरंजन के लिए नहीं होता। उन्होंने लेखन से जीविकोपार्जन भी किया और अपनी कहानियों में सामाजिक सरोकारों को भी जोड़ा। उनको पढ़कर लगता है कि दृष्टि बड़ी व्यापक थी उनकी। प्रेमचंद नए भारत का सपना देख रहे थे। वह न कट्टर मार्क्सवादी, न कट्टर गांधीवादी। जब वह अपनी कहानियों में महाजनी को विरोध करते हैं मार्क्स के पास दिखते हैं और जब हृदय परिवर्तन व अहिंसा का पक्ष लेते हैं तो गांधी के पास खड़े नजर आते हैं। स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान उन्होंने कहा कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुत उपयुक्त नहीं होगी। वह स्वराज्य के समर्थक थे क्योंकि वह जानते थे कि अंग्रेजी हुकूमत या जमींदारी गई तो सरकारी समिति और नौकरशाह आ जाएंगे। कुल मिलाकर गरीब जनता तब भी लुटेगी, भ्रष्टाचार बढ़ेगा और वोट की राजनीति होगी। यही सबकुछ हम आज झेल रहे हैं, जिसकी भविष्यवाणी उन्होंने 70 साल पहले कर दी थी। प्रेमचंद ने सीधी-सादी कहानियों से लोगों को गूढ़ बातें समझाईं। एन्होंने बताया कि आदर्श का फॉर्मूला यथार्थ के साथ हमेशा जुड़ा होना चाहिए वरना यथार्थ डरा देगा। हिन्दी कहानी को समाजशास्त्र बना देने का श्रेय अगर किसी को है तो वह प्रेमचंद ही हैं। वह आज भी प्रगतिशील लेखन की प्राणवायु हैं वीरेन्द्र यादव, वरिष्ठ आलोचक 1936 में लखनऊ प्रेमचंद ने प्रगितशील लेखक संघ के प्रथम स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता की तो देश गुलाम था। उस समय लेखकों का संकल्प था कि देश की आजादी के साथ-साथ मेहनतकश व संघर्षशील जनता सही अर्थों में आजाद हो। आजादी के बाद यह संकल्प सांगठनिक रूप से तो उतनी मजबूती के साथ अपनी भूमिका नहीं निभा पाया लेकिन प्रगतिशील लेखन आंदोलन को जो संकल्प व मूल्य प्रेमचंद ने दिए थे वे समूचे भारतीय लेखन व लेखक समुदाय के लिए प्राणवायु की तरह हैं। इस धारा के इस समय कई संगठन हैं और वे अपनी सामर्थ्य भर साम्प्रदायिकता के विरुद्ध और बहुलवादी संस्कृति के पक्ष में अपनी सकारात्मक और कारगर भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। हालांकि इस समय जैसा व्यापक आंदोलन होना चाहिए उसका अभाव है। जरूरत है कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनीतिक मुहिम एकाकार हो और प्रगतिशल आंदोलन के जो संकल्प थे वो पूरी तरह चरितार्थ हों। नए लेखन की बात करें तो प्रेमचंद की कहानियां स्मृति में जरूरी टंकी हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि नए लेखक लिख नहीं रहे हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस पर जब दूधनाथ सिंह 'आखिरी कलाम' लिखते हैं और गीतांजलि श्री गुजरात की साम्प्रदायिक स्थिति पर 'हमारा शहर उस बरस' जैसा कुछ लिखती हैं तो यह प्रेमचंद परम्परा का ही विस्तार है।

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