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लोकसभा चुनाव 2019 : इस बार फिर पश्चिमी यूपी से गरमाएगा सियासी समर

फिर वही पश्चिमी उत्तर प्रदेश लेकिन माहौल अबकी कुछ बदला-बदला सा...!  सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनाव की शुरुआत पश्चिमी यूपी से होगी। यह संयोग है कि बीते दोनों चुनाव यानी लोकसभा 2014 और...

लोकसभा चुनाव 2019 : इस बार फिर पश्चिमी यूपी से गरमाएगा सियासी समर
शिखा श्रीवास्तव,लखनऊ। Tue, 19 Mar 2019 12:28 PM
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फिर वही पश्चिमी उत्तर प्रदेश लेकिन माहौल अबकी कुछ बदला-बदला सा...!  सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनाव की शुरुआत पश्चिमी यूपी से होगी। यह संयोग है कि बीते दोनों चुनाव यानी लोकसभा 2014 और विधानसभा 2017 में भी वोट पश्चिम से पड़ने शुरू हुए थे। भाजपा ने तब मुजफ्फरनगर दंगों, कैराना से पलायन, लव जिहाद आदि को बड़ा मुद्दा बनाया था। मतदान के पहले से चरण से वोटों का ऐसा ध्रुवीकरण शुरू हुआ था कि पश्चिम की हवा पूरब तक ले जाकर भाजपा ने यूपी फतेह कर ली थी।  

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के विजय रथ की शुरुआत यहीं से हुई थी। इस बार भी लोकसभा चुनावों का यूपी में पहला और दूसरा चरण भी पश्चिमी यूपी से होकर गुजरेगा। यहां की 16 सीटों से ही 17 वीं लोकसभा के चुनावों का आगाज होगा। इस बार मगर हालात बदले से हैं। आज की तारीख में कोई मुद्दा नहीं। लिहाजा इस बार यहां मुद्दों की जमीन पर सियासी उबाल फिलवक्त बैठा हुआ है। शायद उसकी बड़ी वजह यह कि भाजपा केन्द्र और यूपी दोनों जगह इस बार सत्ता में है। 2014 और 2017 में ऐसा नहीं था। यूपी में भाजपा विपक्षी पार्टी के रूप में हमलावर थी। तीखे मुद्दे और तीखे भाषणों से माहौल बनाने का मौका उसने नहीं गंवाया था। सत्ता ने वह तीखापन कुंद किया। सत्ता की जवाबदेही अलग है। 

मौजूदा हालात
जाटलैण्ड कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए  गन्ना किसानों की मुश्किलें आज भी सबसे बड़ा मुद्दा है। सरकारें आती-जाती रहती हैं लेकिन इनकी मुश्किले ज्यों की त्यों रहती हैं। वहीं  महिलाओं के प्रति अपराधों का आंकड़ा यहां कुछ ज्यादा ही है तो सांप्रदायिक दंगों का दंश भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने ही सबसे ज्यादा झेला है। शुगर बाउल यानी चीनी का कटोरा कहलाने वाले पश्चिमी यूपी में किसानों का वोट सियासी रुख बदलने की क्षमता रखता है। किसानों की नुमाइंदगी करने वाले किसान यूनियन के मुख्यालय भी यहीं हैं।

ये भी हैं मुद्दे
कहने को जाट आरक्षण, हाईकोर्ट बेंच का गठन, स्मार्ट सिटी बनने में देरी, दलित आरक्षण को लेकर हिंसा और उनकी सुनवाई न होने समेत कई मुद्दे हैं लेकिन मतदान करते समय इन्हें याद रखा जाएगा या नहीं, ये कहना थोड़ा मुश्किल है।  

भीम आर्मी का दिखेगा असर ! 
इस जमीन पर जाट, जाटव और मुसलमानों की गोलबंदी करने में सफल पार्टी मुकाम तक पहुंच सकती है। उल्लेखनीय है कि बीते दोनों चुनावों में जाटवों के बड़े हिस्से ने भाजपा को भी वोट किया था लेकिन कैराना में हुए उपचुनाव में सपा की नेता तब्बसुम हसन रालोद के टिकट पर लड़ीं और जीत गईं। कांग्रेस ने तब समर्थन किया था जबकि बसपा का अघोषित समर्थन था। जाटव वोटों को लेकर असमंजस की स्थिति को चंद्रशेखऱ की भीम आर्मी ने गठबंधन के प्रत्याशी को वोट करने की अपील कर खत्म कर दिया था। भीम आर्मी के समर्थन से गठबंधन की उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित हो गई थी।  
कैराना उपचुनाव में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पहली बार जाट और मुसलमानों ने भी मिलकर किसी पार्टी के लिए वोट किया। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों और मुसलमानों के समीकरण बिगड़ गये थे लेकिन इस उपचुनाव में वे साथ जुड़ गये। वे जुड़े रहेंगे या अलग-अलग वोट करेंगे, इस पर सियासी गुरुओं की नजर रहेगी। भीम आर्मी फिर से सक्रिय है, इसकी भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।   अब यहां दलित युवाओं के हीरो माने जाते हैं। मायावती को चंद्रशेखऱ रास नहीं आ रहे जबकि प्रियंका गांधी ने हाल में चंद्रशेखऱ से मिलकर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। ऐसे में माना जा रहा है कि यहां के दलितों के सामने मुख्य रूप से दो चेहरे होंगे-मायावती और चंद्रशेखर... गठबंधन के सामने मुकाबले में भाजपा के अलावा चंद्रशेखर भी चुनौती होंगे। 

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