लोग यूं ही किसी की चालाकी पर उसे घाघ बोल देते हैं। उन्हें क्या पता कि घाघ धूर्तता नहीं विलक्षण प्रतिभा की वजह से आज तक जिंदा हैं। झारखंड से मप्र और उत्तराखंड से पंजाब तक गांव-गांव घाघ की कहावतें कही जाती हैं। उनका खेती और मौसम का ज्ञान दुर्लभ था। अब कहीं घाघ की कोई किताब या स्मारक नहीं है। बस कन्नौज के एक मोहल्ले में उनके कुछ वंशज रहते हैं। जो बताते हैं कि उनके पूर्वज घाघ देवोत्थानी एकादशी को जन्मे थे। 16 वीं सदी में कन्नौज के सरायघाघ गांव में रहते थे।
भाषा सिद्ध कर रही कन्नौज कनेक्शन
कन्नौज के इतिहास के अध्येता पीएसएम पीजी कॉलेज के डा. जीवन लाल शुक्ल बताते हैं, ‘घाघ की बोली अवधी-कन्नौजी मिश्रित है। भाषा विज्ञान के नजरिए से घाघ इसी क्षेत्र के रहे होंगे।’ घाघ का कोई दस्तावेजी सुबूत नहीं है। बस कहावतों में वह जिंदा हैं। सरायघाघ के अशोक दुबे कहते हैं-हम पिता-दादा से सुनते रहे हैं कि महाकवि घाघ हमारे पूर्वज थे। उनका नाम देवकली दुबे था। वह 16 वीं सदी में यहीं जन्मे। मौसम और खेती पर उनका जबरदस्त अध्ययन था। इसकी ख्याति अकबर के दरबार तक पहुंची। घाघ से प्रभावित होकर अकबर ने कन्नौज का एक हिस्सा उन्हें तोहफे में दे दिया। इलाके का नाम अकबरपुर-सरायघाघ पड़ा।
बरसों के अध्ययन से निखरी प्रतिभा
डा. शुक्ला कहते हैं, ‘घाघ ने खेती की जानकारी और मौसम की भविष्यवाणी करने की प्रतिभा बरसों के अध्ययन से पाई होगी। वह अपने दौर के कृषि वैज्ञानिक थे। सूर्य, चंद्र, तिथि, नक्षत्र, बादल और हवा की चाल से उन्होंने तमाम भविष्यवाणी के सूत्र दिए हैं। लोग कहते हैं कि ऐसी कहावतें आज भी खरी उतरती हैं।
देवोत्थानी एकादशी पर आयोजन
कन्नौज में देवोत्थानी एकादशी पर उनकी जयंती मनाई जाती है। सरायघाघ मोहल्ले में क्या पूरे देश में उनकी कोई निशानी नहीं है। न स्मारक है न इमारत। बस मोहल्ले के प्राइमरी स्कूल पर लिखा मोहल्ले का नाम सरायघाघ यहां आते-जाते लोगों का ध्यान खींचता है। दशकों पहले कन्नौज में घाघ नवयुवक संघ बना था जो अब निष्क्रिय है।
सदियों पहले जब न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। तब घाघ की कहावतें किसानों को राह दिखाती थीं।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो संग रहा।
जो हल जोतै खेती वाकी और नहीं तो जाकी ताकी।।
खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।
गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।।
सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।
सूकवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।