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विश्व शरणार्थी दिवस: खाली हाथ आए थे, पा लिया सारा जहां

आजादी के साथ बंटवारे का दंश मिला। रातोंरात घर-बार छोड़ना पड़ा। पुरखों की रोपी गई जड़ें छिन्न-भिन्न हो गईं। ऐसे विकट हालात में भी हिम्मत नहीं हारे। पहले ठौर तलाशा। फिर जड़ों को जमाने में खून-पसीना एक...

विश्व शरणार्थी दिवस: खाली हाथ आए थे, पा लिया सारा जहां
अजय कुमार सिंह,गोरखपुर Wed, 20 Jun 2018 09:35 PM
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आजादी के साथ बंटवारे का दंश मिला। रातोंरात घर-बार छोड़ना पड़ा। पुरखों की रोपी गई जड़ें छिन्न-भिन्न हो गईं। ऐसे विकट हालात में भी हिम्मत नहीं हारे। पहले ठौर तलाशा। फिर जड़ों को जमाने में खून-पसीना एक कर दिया। अतीत की आग में जलने और मिटने की बजाय संघर्ष का रास्ता चुना। यह संघर्षगाथा है शहर के सिंधी समाज की जिसने मेहनत और जीवटता के बूते संघर्ष को सफलता के मुकाम पर पहुंचाया। इतना सब झेलने के बावजूद न तो इन्हें शरणार्थी कहलाना पसंद है और न ही कोई विशेष रियायत या सहूलियत की दरकार। इस बार विश्व शराणार्थी दिवस पर पेश है चंद परिवारों का प्रेरणादायी सफर...

जान बचाकर मुंबई आए, गोरखपुर पहुंचकर जीती जंग 

पुश्तों पुरानी जड़ों से काट दिया जाना, सब कुछ छिन जाना और शरणार्थी बनकर कैंपों में रहना क्या होता है? यह तो वही जानता है जिसने उन हालात को भोगा हो। शहर के विजय चौराहे पर चौधरी स्वीट्स के मेन काउंटर के पीछे स्व. मदनलाल और स्व. प्रह्लाद राय की तस्वीरें गवाह हैं उस संघर्ष की जिसे करता हुआ यह परिवार आज तरक्की के इस मुकाम पर पहुंचा है। 

सिंध प्रांत के शक्खर गांव के बहरुणा मल्ल के बड़े बेटे मदनलाल गांव पर ही खेती बाड़ी करते थे। जबकि छोटे बेटे प्रह्लाद राय, कराची की ‘चौधरी स्वीट्स’ दुकान में कर्मचारी थे। ‘चौधरी स्वीट्स’ के मालिकान की एक दुकान इसी नाम से लखनऊ में भी थी। बंटवारे के वक्त जब गांव में रहना खतरनाक हो गया। धमकियां मिलने लगीं तो एक रात मदनलाल और प्रह्लाद पूरे परिवार के साथ छिपते-छिपाते सुरक्षित ठिकाने की तलाश में पैदल ही निकल पड़े। एक नाव से किसी तरह यह परिवार मुंबई (तब बम्बई) पहुंचा। रोजी-रोटी की तलाश में परिवार दिल्ली चला गया जहां मेहरौली के पास गदाईपुर गांव में उन्हें ठिकाना मिल गया। शंकर मार्केट में म्युनिसिपैलिटी की ओर से एक दुकान भी मिली। उधर, अविवाहित रहे प्रह्लाद राय को अपने कराची वाले मालिकान के जरिए ‘चौधरी स्वीट्स’ लखनऊ में नौकरी मिल गई। कुछ समय बाद उन्हीं मालिकान ने साझेदारी में प्रह्लाद राय को गोरखपुर में दुकान करा दी। दुकान टिनशेड में चलती थी। 1953 आते-आते प्रह्लाद राय की दुकान इतनी चल निकली कि उन्होंने दिल्ली से अपने भाई मदनलाल, बहनों, बहनोइयों, सहित सभी रिश्तेदारों को भी गोरखपुर बुला लिया। 1956 में प्रह्लाद राय जी का निधन हो गया। मदनलाल मल्ल और उनके बेटों रमेश चन्द, शीतल कुमार, भीष्म और जीवन कुमार ने दुकान सम्भाली। आज ‘चौधरी’ होटल, स्वीट्स, बेकर्स के अग्रणी व्यवसायियों में शुमार हैं। 

पाई-पाई जोड़कर खड़ा किया कपड़े का कारोबार

कृपाल वस्त्रालय, कृपाल फैशन, कृष्णा वस्त्रालय, बहूरानी और नीर-निकुंज वॉटर पार्क। यह सब संचालित करने वाला वालानी परिवार भी  71 साल पहले पाकिस्तान से खाली हाथ गोरखपुर आया था। परिवार के मुखिया 90 वर्षीय शामनदास जी ने वह सब अपनी आंखों से देखा है। हालात खराब होने पर शामनदास के पिता नंदूमल जी और दादा वलीमल जी ने सब कुछ छोड़कर भारत चले आए। शामनदास के पुत्र अरुण वालानी बताते हैं, ‘बचपन से जो कहानियां सुनी हैं उनके मुताबिक हमारा परिवार एक नाव में सवार होकर भारत पहुंचा। यहां हर बंदरगाह के किनारे रिफ्यूजी बस्तियां थीं। शुरुआत में वहां रहने के बाद एक जानने वाले के भरोसे गोरखपुर आ गए। यहां गोरखनाथ क्षेत्र की रिफ्यूजी कालोनी में 12 सौ वर्गफीट का क्वार्टर मिला और जिन्दगी शुरू हो गई। पिताजी ने एक होटल पर नौकरी की और दादाजी साहबगंज से गेहूं खरीदकर उतने ही दाम पर चौरहिया गोला में बेचने लगे। जो बोरा बचता वही उनका मुनाफा होता था। हम लोग आज भी बोरा, गत्ता और सामान की ऐसी पैकिंग को बहुत सम्भालते हैं। नई पीढ़ी को नहीं मालूम कि व्यवसाय की इस अकलमंदी ने हमारे परिवारों को खड़ा करने में कितनी मदद की।’ 1964 में अलीनगर में वालानी परिवार की कपड़ों की पहली दुकान खुली। 1974 में गोलघर में कृपाल वस्त्रालय शुरू हुआ। इसके बाद इस परिवार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। श्यामनदास जी के पांच बेटे अर्जुन, सुरेश, अरुण, दिलीप और दिनेश व्यवसाय सम्भाल रहे हैं। अर्जुन और अरुण बलानी कहते हैं, ‘मेहनत और ईमानदारी’ बस ये दो बातें ही हैं जिन्होंने हमारे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाया है। 

15 गुणे 40 के टुकड़े से शुरू करके बना ली स्कूलों की चेन 

गोरखपुर, कुशीनगर और महराजगंज में हॉलमार्क स्कूल की चेन और बेक बाउन के आऊटलेट्स के साथ मनोहर लाल खट्टर का परिवार आज व्यवसाय के क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को छू रहा है। लेकिन मुल्क की आजादी से पहले ही बंटवारे के लिए दो कौमों में लगी आग की तपिश को महसूस कर इस परिवार को अपना सब कुछ छोड़कर सिंध से यहां आने का फैसला लेना पड़ा था। यह फैसला मनोहर लाल (76 वर्षीय) के पिता नैनुमल सिंधी का था। 1935 से ही नैनुमल गोरखपुर और आसपास के इलाकों में अपना व्यवसाय खड़ा करने की कोशिश करने लगे थे। 1946 के आखिरी महीनों में नफरत की आग कुछ ऐसी भड़की कि नैनुमल जी को परिवार सहित गोरखपुर आ जाना ही सुरक्षित लगा। यहां आम बाजार में इस परिवार की रिहाईश थी। मनोहर लाल बताते हैं, ‘मैं सात बहनों के बीच अकेला भाई था। पिताजी ने यहां अपने व्यवहार से इतनी प्रतिष्ठा पाई कि स्टेशन पर कोई मेहमान आ जाए तो तांगेवाला बिना किराया लिए ही उसे घर पहुंचा देता था। उन्होंने यहां चीनी, अनाज, जूते-चप्पल सहित कई तरह के व्यवसाय किए। अनाज-चीनी और नमक को खरीद दाम पर ही बेच देते थे। सिर्फ बोरे को अपना मुनाफा मानते थे। नैनुमल से शुरू हुए तरक्की के इस सफर को मनोहरलाल, उनके बेटों अनिल, दीपक, अरुण, उमेश और बेटी निधि मखीजा ने भी जारी रखा है।  

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