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 जैसे थे, बिल्कुल वैसे ही साहित्य और कविता में भी दिखते हैं केदारनाथ सिंह

डॉ. केदारनाथ सिंह के बारे में ठीक से जानना समझना हो तो उनकी कविताएं व साहित्य पढ़िए। वह जैसे मूल स्वभाव से थे, वैसी ही उनकी कविताएं व साहित्य भी हैं। हर रचना में गांव व गरीब की चिंता, संवेदना व...

 जैसे थे, बिल्कुल वैसे ही साहित्य और कविता में भी दिखते हैं केदारनाथ सिंह
कार्यालय संवाददाता ,गोरखपुर Wed, 21 Mar 2018 05:14 PM
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डॉ. केदारनाथ सिंह के बारे में ठीक से जानना समझना हो तो उनकी कविताएं व साहित्य पढ़िए। वह जैसे मूल स्वभाव से थे, वैसी ही उनकी कविताएं व साहित्य भी हैं। हर रचना में गांव व गरीब की चिंता, संवेदना व आत्मीयता गहरे स्तर तक दिखती है। उनकी रचनाओं में समाज की कुरीतियों पर प्रहार भी वैसे ही मिलता है, जैसा वह बोलते थे।   

यह विचार हैं डीडीयू में डॉ. केदारनाथ सिंह पर शोध करने वाली रत्ना पाठक व रागिनी यादव के। प्रो. चित्तरंजन मिश्र के निर्देशन में दोनों की पीएचडी दिसंबर 2017 में पूरी हुई है। रत्ना पाठक ने केदारनाथ सिंह के काव्य: संवेदना,  सृजन एवं सपने विषय पर शोध किया, जबकि रागिनी ने उनके गद्य पर। रत्ना पाठक ने बताया कि उनके पिता हरिश्चंद्र पाठक व केदारनाथ सिंह के करीबी दोस्त थे। जब उनका परिवार गोरखपुर आ गया और केदारनाथ सिंह दिल्ली चले गए तब भी वह गोरखपुर आते तो घर आना नहीं भूलते थे।

बचपन में उन्हें जैसा देखा व समझा था, अंत तक वह वैसे ही सरल व सहज व्यक्तित्व के स्वामी रहे। महानगर में रहकर और साहित्य जगत में इतनी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी उनकी न तो गांव के प्रति चिंता बदली थी और न ही गंवई स्वरूप के प्रति, जिसमें गहरी आत्मीयता थी। कब्रिस्तान की पंचायत उन्होंने पडरौना के एक विवाद पर लिखी है। कविताएं आम आदमी की हैं। अकाल में सारस उनकी ऐसी कविता है, जिसमें जीवन की जीजीविषा का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

उनकी सभी कविताएं यथार्थ के धरातल पर हैं। कविता के जरिए वह बड़ी से बड़ी बात सहज ढंग से कह जाते थे। वह हमेशा भेद भाव रहित और संवेदनशील समाज के सपने देखते थे और हर रचना इसका अख्श दिखता है। वह कहती हैं अब दुनिया में दूसरा केदारनाथ सिंह नहीं हो सकता। 
केदारनाथ सिंह के गद्य पर शोध करने वाली रागिनी यादव का कहना है कि शोध के दौरान एक बार केदारनाथ सिंह से मिलने का प्रोग्राम बना मगर दुर्भाग्य से मुलाकात नहीं हो सकी।

उनके बारे में जिना पढ़ा और जाना उसके अनुसार वह जैसे इंसान थे, वैसी ही रचनाएं करते थे। इतनी ऊंचाई के बाद व महानगर के परिवेश का होने के बाद भी बेहद सरल व संवेदनशील इंसान थे। गांव से उनका रिश्ता इस कदर था कि गांव आने के बाद उन्हें बाइक से भी चलना मंजूर नहीं था। कहते थे कि पैदल चलने के दौरान जो गंवई परिवेश हम देख व महसूस कर सकते  हैं, गाड़ी से चलने पर वह नहीं मिलेगा। शब्द को ब्रह्म मानते हुए किसी लिखे को रद्दी नहीं मानते थे। लंबे समय बाद इसका इस्तेमाल करते थे। यही कारण है कि कुछ चिट्ठियां कैलाशपति निषाद के नाम जैसा उनका संस्मरण सामने आया। 

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