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Hindi Divas Special: हिन्‍दी पत्रकारिता के पुरोधा थे दशरथ प्रसाद द्विवेदी 

“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।” आजादी की लड़ाई में जन-जन तक स्वराज का संदेश पहुंचाने में सशक्त माध्यम बने...

Hindi Divas Special: हिन्‍दी पत्रकारिता के पुरोधा थे दशरथ प्रसाद द्विवेदी 
अजय कुमार सिंह ,गोरखपुर Sat, 14 Sep 2019 12:48 PM
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“जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।”

आजादी की लड़ाई में जन-जन तक स्वराज का संदेश पहुंचाने में सशक्त माध्यम बने गोरखपुर से निकलने वाले अखबार ‘स्वदेश’के पहले पन्ने पर ही ये पंक्तियां अंकित रहती थीं। प्रखर राष्ट्र भाव को प्रदर्शित करते हिन्दी के इस प्रतिष्ठित अखबार के कर्ताधर्ता दशरथ प्रसाद द्विवेदी का स्वदेश सदन आज भी शहर में हैं लेकिन उनकी धरोहरों को सहेजने का काम ठीक से नहीं हो पाया है। 

दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने देश के साथ-साथ हिन्दी की भी बड़ी सेवा की। पत्रकारिता को सेवा मानते हुए उन्होंने अपना काम किया और आने वाली पत्रकार पीढ़ी को भी यही संदेश दिया। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो.प्रत्यूष दुबे ने ‘स्वदेश की साहित्यिक चेतना’, ‘हिन्दी पत्रकारिता और स्वदेश’ पर पीएचडी की है। उन्होंेने स्वदेश में प्रकाशित साहित्यिक और सामाजिक सामग्री जैसे कविताओं, कहानियों, निबंध, एकांकी, साहित्यिक टिप्पणियों,आलोचनाओं और सम्पादकीय का संकलन किया। इसे उन्होंने ‘स्वदेश का साहित्य एवं समाज’ शीर्षक से दो वाल्यूम में प्रकाशित भी कराया। 

उन्होंने कहा, ‘स्वदेश अपने समय का एक महत्वपूर्ण पत्र था जो गोरखपुर से प्रकाशित हो रहा था। दशरथ प्रसाद द्विवेदी इसके सम्पादक और संचालक थे। वह दारोगा की नौकरी की ट्रेनिंग के लिए मुरादाबाद जा रहे थे। लखनऊ से उन्हें ट्रेन बदलनी थी। वहीं पर गणेश शंकर विद्यार्थी की सभा हो रही थी। विद्यार्थी जी के भाषण से वह इतना प्रभावित हुए कि दारोगा की ट्रेनिंग का विचार छोड़ दिया। उनके साथ कानपुर चले गए। प्रताप पत्रिका में काम शुरू कर दिया। छह अप्रैल 1919 को उन्होंने स्वदेश का प्रकाशन शुरू किया।

उस समय के सभी प्रमुख साहित्यकार जैसे अयोध्या प्रसाद उपाध्याय हरिऔध, मैथिली शरण गुप्त, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही, जयशंकर प्रसाद, निराला, प्रेमचंद आदि स्वदेश में प्रकाशित होते थे। अतिथि सम्पादकों की परम्परा स्वदेश ने ही शुरू की। उनके आवास और स्वदेश के दफ्तर रहे स्वदेश सदन में ये सामग्री सम्भाल कर रखी गई है। लेकिन गोरखपुर में स्वदेश पर जितना काम हो सकता था उसका चौथाई भी नहीं हुआ है।’

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