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हिन्दी दिवस पर विशेष: पितृ पुरुषों की विरासत को ठीक से संजो न पाए हम 

संयोग ही है कि हिन्दी दिवस के आसपास ही पितृपक्ष की शुरुआत भी होती है। पितृपक्ष यानि पुरखों को याद करने का मौका। अपने शहर में हिन्दी की कई बड़ी शख्सियतें हुईं जिन्हें हम हिन्दी पट्टी के लोग हर साल...

हिन्दी दिवस पर विशेष: पितृ पुरुषों की विरासत को ठीक से संजो न पाए हम 
अजय कुमार सिंह ,गोरखपुर Sat, 14 Sep 2019 12:40 PM
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संयोग ही है कि हिन्दी दिवस के आसपास ही पितृपक्ष की शुरुआत भी होती है। पितृपक्ष यानि पुरखों को याद करने का मौका। अपने शहर में हिन्दी की कई बड़ी शख्सियतें हुईं जिन्हें हम हिन्दी पट्टी के लोग हर साल हिन्दी दिवस पर पुरखों के तौर पर याद तो करते हैं लेकिन उनकी यादों को संजोने के बारे में कुछ खास नहीं कर पाते। हिन्दी के ऐसे पुरखों में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का नाम सबसे पहले लिया जाता है। लेकिन उनके बाद और मौजूदा वक्त में भी हिन्दी की कई ‘नामवर’ हस्तियां शहर में हुईं और हैं। आइए जानते हैं उनमें से कुछ के बारे में जो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन जिनके शहर के होने का सौभाग्य हमें हमेशा गर्वान्वित करता रहेगा- 

मुंशी प्रेमचंद 
कथा सम्राट प्रेमचंद का गोरखपुर से अविक्षिन्न सम्बन्ध है। उन्होंने यहां नौकरी की, त्यागपत्र देकर राष्ट्रीय आंदोलन में कूदे। ईदगाह जैसी उनकी बहुत सी कहानियों और उपान्यासों की जमीन यहीं है। जमाना के सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम को रोज लिखी जाने वाली उनकी चिट्ठियां जो बाद में अमृतराय द्वारा लिखी गई उनकी जीवन ‘कलम के सिपाही’ का आधार बनीं, यहीं से लिखी गईं। ये सारा इतिहास गोरखपुर से जुड़ा है। 
लमही यदि प्रेमचंद की जन्मस्थली है तो गोरखपुर रचनाकार प्रेमचंद की। दीक्षा विद्यालय में प्रथम सहायक अध्यापक के रूप में तैनाती के दौरान 19 अगस्त 1916 से 16 फरवरी 1921 तक प्रेमचंद जिस भवन में रहे वहां जरूर उनकी स्मृतियों को संजोने की कोशिश की गई है। प्रेमचंद साहित्य संस्थान की लाइब्रेरी, आदमकद प्रतिमा, उनकी कहानियों के दृश्यों पर आधारित भित्तिचित्र और नाटकों के मंचन, कथा-कहानियों के पाठ की जगह। यह सब है यहां लेकिन  कभी उनकी रिहाईश रहे भवन का आधा हिस्सा जो अब भी गोरखपुर विकास प्राधिकरण के पास है रखरखाव के अभाव में बुरी तरह जर्जर हो चुका है। जीडीए की सम्पत्ति के रूप में बंद पड़े उस हिस्से और प्रेमचंद साहित्य संस्थान के बीच में पड़ने वाला पुराना कुंआ पट चुका है। लाइब्रेरी में आने वाले लोग अपने हीरो के आवास के उस हिस्से को खंडहर में तब्दील होता देखकर उदास होते हैं।

गोरखपुर में प्रेमचंद 
प्रेमचंद गोरखपुर में कुछ नौ साल रहे। पांच साल लगातार कुछ न कुछ रचते रहे। पहली बार 12 साल की उम्र में 1892 में आये। उनके पिता अजायबलाल यहां डाक विभाग में तैनात थे। रावत पाठशाला और मिशन स्कूल से आठवीं तक पढ़ाई की। यहीं पर उनमें साहित्य के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। लेखन के प्रति उनका रुझान यहीं से शुरू हुआ। दूसरी बार नौकरी के सिलसिले में गोरखपुर आये। 19 अगस्त 1916 से 21 फरवरी 1921 तक यहां रहे। 1921 में महात्मा गांधी का भाषण सुनकर सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। पूर्णकालिक लेखक के रूप में स्वाधीनता संग्राम के सेनानी बन गये। जनसहयोग से यहां 1960 में स्थापित उनकी मूर्ति का अनावरण उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने किया। 

ऐसे बनी लाइब्रेरी 
दीक्षा विद्यालय में प्रथम सहायक अध्यापक के रूप में तैनाती के दौरान 19 अगस्त 1916 से 16 फरवरी 1921 तक प्रेमचंद जिस भवन में रहे वहां वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में प्रेमचंद पार्क की स्थापना हुई। 1996 में इस जगह को आम लोगों के लिए खोल दिया गया। प्रसिद्ध साहित्यकार और आलोचक परमानंद श्रीवास्तव, सदानंद शाही और राकेश मल्ल सहित शहर के कुछ साहित्यप्रेमियों ने मिलकर इसे एक लाइब्रेरी का स्वरूप दिया। 

गोर्की, शेक्सपीयर का घर तीर्थस्थान, प्रेमचंद का क्यों नहीं 
प्रेमचंद अपने समय के महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की को बेहद आदर देते थे। दरअसल, मैक्सिम गोर्की की तरह प्रेमचंद भी जीवन भर समाज के वंचितों-शोषितों के लिए कलम चलाते रहे। रूसी समाज में गोर्की भी वैसे ही लोकप्रिय हैं जैसे भारत में प्रेमचंद। लेकिन अपने लेखकों से प्यार करने वाला, उन्हें सिर आंखों पर बिठाने वाला रूसी समाज गोर्की को याद रखने के लिए बहुत कुछ करता है जो हम प्रेमचंद या अपने दूसरे महापुरुषों के लिए नहीं कर पाये हैं। गोर्की की समाधि मास्को के क्रेमलिन के पास है। मास्को में गोर्की संग्रहालय की स्थापना की गई है। निइनी नावगरदनगर को ‘गोर्की’ नाम दिया गया।

प्रेमचंद साहित्य संस्थान की नींव रखने वालों में से एक प्रो.सदानंद शाही अपने यहां साहित्यकारों के प्रति उपेक्षा के भाव को कुछ इस प्रकार इंगित करते हैं- ‘हिन्दी पट्टी में लेखकों को लेकर एक प्रकार की उदासीनता है। यह भारत के भी दक्षिण के राज्यों में नहीं है। प्रेमचंद ही नहीं हिन्दी के भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, निराला जैसे बड़े लेखकों के घरों को लेकर भी समाज के भीतर एक उदासीनता का भाव रहता है। बंगाल में रविन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में लोग तीर्थ स्थान की तरह जाते हैं। हिन्दी के लेखकों के घर आम समाज नहीं जाता। सत्ता भी परवाह नहीं करती। गोर्की को रूस में और शेक्सपीयर को ब्रिटेन सहित पूरे अंग्रेजी भाषी समाज में जैसा सम्मान मिलता है वैसा अपने यहां क्यों नहीं दिखता इसकी वजहों पर विचार करना चाहिए। शेक्सपीयर के नाम से वर्षों से पत्रिका निकल रही है। उनका घर बड़ा तीर्थस्थान है। यहां हमने अपने लेखकों की विरासत को यूं ही छोड़ दिया है।’
 

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