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हमारे पितृ पुरुष: इंजीनियर बलदाऊ विश्वकर्मा ने रंगमंच के पर्दे पर देवरिया को दी पहचान

देवरिया के बलदाऊ विश्वकर्मा ने रंगमंच के पर्दे पर देवरिया को पहचान दी। उनकी कृति ‘मेघदूत की पूर्वांचल यात्रा’ की नाट्य प्रस्तुतियों ने देश-विदेश में प्रसिद्धि पाई। विभिन्न नाटकों में उनकी...

हमारे पितृ पुरुष: इंजीनियर बलदाऊ विश्वकर्मा ने रंगमंच के पर्दे पर देवरिया को दी पहचान
शशिकांत मिश्र उत्कर्ष त्रिपाठी, देवरियाSat, 06 Oct 2018 12:24 PM
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देवरिया के बलदाऊ विश्वकर्मा ने रंगमंच के पर्दे पर देवरिया को पहचान दी। उनकी कृति ‘मेघदूत की पूर्वांचल यात्रा’ की नाट्य प्रस्तुतियों ने देश-विदेश में प्रसिद्धि पाई। विभिन्न नाटकों में उनकी निभाई भूमिकायें अविस्मरणीय हैं। उनकी रचनाओं में भोजपुरी का सौंदर्य और माधुर्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हालांकि दुनियावी चकाचौंध से दूर रहने की चाहत से बलदाऊ को अपेक्षित पहचान नहीं मिली।

आजादी के कुछ ही दिनों बाद दो सितंबर 1947 को बलदाऊ का लार क्षेत्र के विशुनपुरा पांडेय गांव में जन्म हुआ। बलदाऊ के पिता पश्चिम बंगाल में आसनसोल के पास बर्नपुर के रेलडिब्बा कारखाना के क्लर्क थे। वहीं से बीएसएसी करने के बाद बलदाऊ मुंबई चले गए। वहां से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया। उस जमाने में बलदाऊ को कई अच्छी नौकरियों के ऑफर मिले पर पिता के कहने पर उन्होंने नौकरी नहीं की। बलदाऊ के मन में साहित्य, कला के प्रति शुरु से ही अनुराग था। वह गीत, गजलें, नाटक आदि लिखते रहे। 

यू तों बलदाऊ का जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ पर उन्हें सामाजिक स्वतंत्रता के कहीं दर्शन नहीं हुए। उनके मन में सामाजिक असमानता और जमींदारों का अत्याचार घर कर गया था। इसकी झलक बलदाऊ की रचनाओं में दिखायी देती है। ‘धूरी के सोहाग’ नाटक में उन्होंने अंतरजातीय विवाह और जमींदारों के अत्याचार को बखूबी उकेरा है। अच्छी खासी पढ़ाई के बाद परिस्थितिवश आई बेरोजगारी से उनके जीवन में उपजे दर्द ने ‘कहानी एक घर की’ नाटक का रुप ले लिया। इसमें बेरोजगारी से उपजी गरीबी का दर्द बयां है। 1999 में बलदाऊ विश्वकर्मा ने अमर कृति नृत्यगीत नाटिका ‘पूर्वांचल की मेघदूत यात्रा’ की रचना की। इसमें भोजपुरी के सौंदर्य और माधुर्य की झलक मिलती है। इसमें संग्रहित लोकगीत और बलदाऊ रचित गीत आज के फिल्मी भोजपुरी के उलट सौम्य, सुसंस्कृत, शालीन भोजपुरी की छवि प्रस्तुत करते हैं।  

कई नाट्य संगठनों से जुड़े रहे बलदाऊ
बलदाऊ विश्वकर्मा को रंगकर्मी के तौर अधिक याद किया जाता है। गोरखपुर में दवा व्यवसाय करते हुए बलदाऊ रंगकर्म से जुडे़ रहे। आकाशवाणी के निदेशक हसन अब्बास रिजवी के साथ रंगकर्म के क्षेत्र में गोरखपुर में धाक जमाई। कई नाट्य संगठनों के साथ कार्य किया। संस्कार भारती से जुड़े रहे। सलेमपुर सांस्कृतिक संगम में सलाहकार सदस्य के तौर पर जुड़कर रंगकर्म को नई दिशा दिया। भिखारी ठाकुर की रचना ‘गब्बर घिचोर’, ‘घास की रोटी’, ‘चंद्रशेखर आजाद’, ‘सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र’, ‘रामायण’, ‘साईं बाबा’, मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित ‘कफन’, ‘मिस्टर ग्लाड’ में अभिनय किया। ‘उल्लू फोबिया’ नाटक में किए मूक अभिनय को काफी सराहना मिली।

मिल चुके हैं कई सम्मान
बलदाऊ विश्वकर्मा को एक जमाने में सिंचाई मंत्री रहे वीरबहादुर सिंह ने सम्मानित किया था। श्रीरामलीला समिति देवरिया समेत अन्य कई संस्थाओं से सम्मानपत्र हासिल हुआ था।

आज भी याद आते हैं बलदाऊ
बलदाऊ विश्वकर्मा बीते जमाने के साथ वर्तमान में भी प्रासंगिक हैं। गली मोहल्ले के युवा उन्हें सौम्य व्यक्ति के तौर पर याद करते हैं। वहीं सामाजिक जीवन से जुड़े लोग उनके व्यक्तित्व की विविधता से परिचित हैं। प्रधानाचार्य  अजय मणि त्रिपाठी बलदाऊ को देशज और मौलिक रुप में चीजों को उठाने और प्राचीन सामाजिक रुढ़ियों और परंपराओं के प्रति आग्रही मानते हैं। सलेमपुर सांस्कृतिक संगम के अध्यक्ष वाईशंकर मूर्ति बलदाऊ को खांटी रंगकर्मी मानते हैं। कस्बा निवासी सुधाकर गुप्त बलदाऊ को श्रमिक, साहित्यकार, लेखक के तौर पर जानते हैं। बलदाऊ अभिनीत केवट की भूमिका शिक्षक रहे नरसिंह तिवारी को नहीं भूलती। प्रधानाचार्य वी के शुक्ल बलदाऊ सलेमपुर का प्रथम रंगमंच कलाकार कहते हैं। व्यापारी नागेन्द्र गुप्त बलदाऊ को अच्छा पड़ोसी, कला के प्रति समर्पित व्यक्तित्व बताते हैं। युवा चंदन गुप्त हों,  संजय गोंड़ या त्रिपुनायक विश्वकर्मा सभी बलदाऊ के रंगकर्म के कायल हैं।

जीविका चलाने को किया कठिन संघर्ष
इकलौते पुत्र बलदाऊ विश्वकर्मा ने पिता की सलाह पर नौकरी नहीं की। पिता की बीमारी और बेरोजगारी ने उन्हें काफी परेशान किया। आजीविका के लिए उन्होंने सलेमपुर में इलेक्ट्रॉनिक की दुकान खोली। पूर्वांचल के सिनेमाघरों में मशीनों की मरम्मत किया। गोरखपुर में असुरन चौक के पास थोक दवा की दुकान किया। इस दौरान रंगमच से जुड़े रहे। वापस सलेमपुर आकर नवरंग स्टूडियो शुरु किया। सारे व्यवसाय उनकी रंगमंच में सक्रियता के चलते ठप हो गए।

पिता की रचनाओं को प्रकाशित कराना लक्ष्य-अविनाश विश्वकर्मा
बलदाऊ विश्वकर्मा के पुत्र अविनाश पिता की विरासत को संभालकर रखे हैं। उन्हें पिता की कृतियों का प्रकाशित न होना सालता है। अविनाश बताते हैं कि मेरे पिता बलदाऊ विश्वकर्मा काफी पहले से नाटक, गीत, गजल लिखते रहे हैं। उनकी रचनाओं को कभी फलक पर पहचान नहीं मिली। इसके पीछे बलदाऊ का प्रचार से दूर रहना प्रमुख रहा। हालांकि कई पत्र पत्रिकाओं ने उन्हें छापा। आर्थिक कठिनाईयों ने जीवन भर पिता का पीछा किया। इसके चलते उन्होने कृतियों को प्रकाशित कराने के बारे में नहीं सोचा। अब वह नहीं हैं, उनकी कृतियों की पांडुलिपियां सहेज कर रखा हूं। एक बहन का विवाह अभी बाकी है। इसके बाद छपवाऊंगा। मेरे हिसाब से कृतियां पुस्तकाकार होंगी तभी पिताजी को सही तर्पण कर पाऊंगा। अपने समय के प्रमुख भोजपुरी गीतकार और साहित्यकार मोती बीए से भी उनकी अच्छी जान पहचान थी। मोती बीए के लिखित कई पत्र आज भी सहेज कर रखा हूं। इसमें पिताजी को दाऊ कहकर मोती बीए ने संबोधित किया है।

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