मजबूर मजदूर : गंगा किनारे आंधी-बारिश में कांस बनी सहारा
यूं तो गंगा किनारे उगने वाली घास (कांस) बेकार समझी जाती है लेकिन, आंधी बारिश में यह भी मजबूरी का सहारा बन गई। दरअसल रात के वक्त आंधी से उड़ रही रेत से बचने के लिए मजदूरों ने घास की आड़ ले...
यूं तो गंगा किनारे उगने वाली घास (कांस) बेकार समझी जाती है लेकिन, आंधी बारिश में यह भी मजबूरी का सहारा बन गई। दरअसल रात के वक्त आंधी से उड़ रही रेत से बचने के लिए मजदूरों ने घास की आड़ ले ली। दोपहरी में धूप से भी घास ने ही बचाया।
गंगा के खादर इलाके में ऐसा वीराना जहां दिन में भी डर लगता है। वहां पचास से अधिक मजदूरों ने रात गुजारी। दूर तक कोई मकान नहीं, कोई ठिकाना नहीं। सिर्फ पालेज लगाने वालों की छोटी सी झोपड़ियां। गुरुवार को गंगा के उस पार सिमली कला के सामने सैकड़ों मजदूरों की भीड़ इकट्ठा थी। इन्हें इंतजार था केवट का जोकि, गंगा पार करा दे। गौरतलब है कि ये नाव में बैठकर यूपी और उत्तराखंड का बार्डर बनी गंगा को पार करना चाहते थे। खैर, नाव चलाने वालों ने इन्हें पार नहीं लगाया। आजमगढ़ के एक मजदूर रामबहादुर ने हिन्दुस्तान को बताया कि वह बुधवार की शाम गंगा किनारे आ गया था। रात में आंधी और बारिश आ गई। सिर छिपाने के लिए कोई ठिकाना नहीं था। आंधी में रेत की मार से बचने के लिए घास की आड़ ले ली। लेकिन, बारिश से खुद को नहीं बचा पाए। सुबह होने पर और भी मजदूर आ पहुंचे। सैकड़ों मजदूरों की भीड़ गंगा की रेती में धूप से बचने के लिए घास की आड़ में बैठी हुई थी। तरबूज और खरबूजे खाकर मिटाई भूखभूख में गुल्लर भी पकवान लगते हैं। ऐसा ही गंगा किनारे पड़े मजदूरों के साथ हुआ। पिछले कई दिनों से भरपेट भोजन नहीं करने वाले मजदूर गंगा तट पर पहुंचे तो यहां भी खाना तो मिलने वाला नहीं था। आस पास में पालेज लगी हुई थी। ऐसे में तरबूज और खरबूजे खाकर मजदूरों ने भूख मिटाई। जिनके पास पैसे नहीं थे, उन्हें पालेज वालों ने फ्री में ही दे दिए।