आधुनिकता की चकाचौंध में गुम हो गया कजरी पर्व का महत्व
आधुनिकता की चकाचौंध में पुरानी परम्पराएं ओझल होती जा रही हैं। कभी कजली पर्व आने के महीनों पहले से ही पेड़ों की डालियों पर महिलाओं का समूह झूला झूलते हुए कजरी गाता दिखता था। लेकिन आज ऐसा दृश्य देखने को...
आधुनिकता की चकाचौंध में पुरानी परम्पराएं ओझल होती जा रही हैं। कभी कजली पर्व आने के महीनों पहले से ही पेड़ों की डालियों पर महिलाओं का समूह झूला झूलते हुए कजरी गाता दिखता था। लेकिन आज ऐसा दृश्य देखने को आंखें तरस रही हैं। कुछ ऐसा ही अब जिले के ऐतिहासिक भोरी गांव के कजली मेले को लेकर भी देखा जा रहा है। त्योहार सिर पर है और मेले की तैयारियां नगण्य दिखाई दे रही हैं।
बता दें कि सुरियावां थाना क्षेत्र के महजूदा गांव स्थित ऐतिहासिक कजली मेले में त्योहार के दिन जनपद के साथ ही पूर्वांचल के जिले से भारी तादात में भीड़ उमड़ती है। कभी मेल को लेकर महीनों पहले से ही लोगों में उत्साह दिखाई देता था। दुकानें लगाने के लिए दुकानदार पहले से ही स्थान का चयन करते थे तो दूर दराज के रिश्तेदार सप्ताह भर पहले ही आकर डेरा जमा लेते थे। इतना ही नहीं, देश कि किसी भी कोने में गांव की रहने वाले बहन बेटियां कजली पर गांव जरुर पहुंचती थी। सावन महीना शुरू होते ही गांव की लड़कियों का झूंड मेला स्थान पर प्रतिदिन पहुंच कर कजरी गायन करता था। अफसोस, समय के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है।
संचार क्रांति के इस युग की युवतियां व महिलाएं कजरी से दूर होती जा रही हैं। वे फेसबुक, वाट्सअप, इंस्ट्राग्राम के साथ ही टेलीविजन को समय देना पसंद करती हैं, लेकिन परिवार, सहेलियों व पड़ोस की महिलाओं को नहीं। आलम यह है कि महजूदा में महीनों पहले से जहां कजरी की बयार बहने लगती थी, वहां के लोगों के कान कजरी सुनने को आतुर हैं। मेले का आयोजन भी खानापूर्ति तक ही सिमट गया है। कुछ ऐसा ही नजारा पूरे जनपद में देखने को मिल रहा है। कजरी पर्व बुधवार को मनाया जाएगा। न तो गीत सुनाई पड़ रहे हैं और न ही कहीं जरई दिख रही।