सैनिकों के साथ खड़ा हो मुल्क
साढ़े तीन सौ से अधिक सेवारत सैन्यकर्मियों का सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर करना निश्चित तौर पर हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के सर्वोच्च हित में है। अप्रैल, 2017 में शीर्ष अदालत द्वारा क्यूरेटिव पिटिशन...
साढ़े तीन सौ से अधिक सेवारत सैन्यकर्मियों का सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर करना निश्चित तौर पर हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के सर्वोच्च हित में है। अप्रैल, 2017 में शीर्ष अदालत द्वारा क्यूरेटिव पिटिशन यानी उपचारात्मक याचिका खारिज किए जाने के बाद इन सैनिकों के पास संभवत: यही आखिरी विकल्प बचा था। क्यूरेटिव पिटिशन जुलाई, 2016 के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए केंद्र सरकार ने दायर की थी। उस पिटिशन में अटॉर्नी जनरल ने जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में जारी छद्म युद्धों और विद्रोहों के खिलाफ चलने वाले अभियानों पर फैसले से पड़ने वाले प्रतिकूल असर की बात प्रमुखता से कही थी। इसके साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा पर लंबी अवधि तक पड़ने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा भी उन्होंने की थी।
साफ है कि वह फैसला एक असंगत युद्ध-ढांचे को पूरी तरह समझे बिना दिया गया था, जिसके बारे में क्यूरेटिव पिटिशन में स्पष्ट किया गया था। इस ‘एसमेट्रिक वारफेयर’ यानी असंगत जंग में छद्म युद्ध, उग्रवाद, गुरिल्ला युद्ध, आतंकवाद सहित तमाम तरह के संघर्ष शामिल हैं। नई रिट याचिका दरअसल सेना और देश को एक और मौका दे रही है कि वे अशांत क्षेत्रों में सैनिकों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों से अदालत को अवगत कराएं। उम्मीद है, इस बार का फैसला स्थिति को पुराने रूप में ले आएगा।
किसी भी क्षेत्र को ‘अशांत’ तभी घोषित किया जाता है, जब वहां की स्थिति गंभीर हो जाती है और हथियारबंद लड़ाके संविधान को कमजोर करने और सरकार के अधिकार को चुनौती देने के लिए खूनी तरीका अपनाकर आंदोलन को हिंसक बना देते हैं। नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में ज्यादातर आतंकी व विद्रोही संगठनों का लक्ष्य अलगाव, यानी अपने लिए अलग स्वायत्त क्षेत्र की मांग है। इस मांग से टकराने और उसे कमजोर करने का काम सिर्फ सुरक्षा बल ही अपना खून और पसीना लगाकर करते हैं। वहां काफी अराजक माहौल होता है और इसका चरित्र अस्थिर, अप्रत्याशित, अस्पष्ट, अनिश्चित और काफी जटिल होता है। इंटेलिजेंस की विफलता, निरंतर सैन्य अभियानों का न चलना, दुश्मन और दोस्त में भेद न कर पाना, दुर्भावनापूर्ण मीडिया रिपोर्टिंग, आतंकियों द्वारा रणनीति व तकनीक में बदलाव, मिशन को पूरा करने में अति-भावुकता और आम लोगों, यहां तक कि प्रशासन के एक खास वर्ग का प्रतिकूल रवैया, इस सबकी वजहें हैं।
कोई भी छद्म युद्ध या विद्रोह स्थानीय समर्थन के बिना सांस नहीं ले सकता। ये स्थानीय लोग ही हैं, जो आतंकियों को राष्ट्र के खिलाफ जंग लड़ने में मदद करते हैं। ये दहशतगर्दों की दैनिक जरूरतें पूरी करते हैं, उन्हें सुरक्षा बलों से छिपाकर रखते हैं, उन्हें गाइड करते हैं, सुरक्षा बलों की खुफिया सूचनाएं देते हैं, उनके माल-असबाब ढोते हैं और आईईडी बम लगाते हैं।
विडंबना यह है कि आतंकी और उनके समर्थक जहां सुरक्षा बलों से अंतरराष्ट्रीय प्रस्ताव व नियम-कानूनों के पालन की अपेक्षा रखते हैं, तो वहीं खुद इन पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं करते। उनके कामकाज का ढर्रा छल-कपट व धोखे से भरा हुआ, विश्वासघाती, तर्कहीन और बर्बर होता है। चालाकी से वे इन सबका इस्तेमाल सुरक्षा बलों के खिलाफ माहौल बनाने में करते हैं और सैनिकों को कमजोर करने के प्रयास करते हैं। फौजियों का मनोबल तोड़ने के लिए उनके पास एक और विकल्प है, जिसमें लागत कम होती है और फायदा ज्यादा; यह कहीं ज्यादा प्रभावी भी होता है। और यह विकल्प है, सैनिकों को मानवाधिकार-हनन में फंसाकर उन्हें बदनाम करना। इस तरह की तर्कहीन कवायदों के लिए उन्हें आईएसआई जैसे बाहरी दुश्मनों से फंड मिलता है। राष्ट्र विरोधी तत्वों के लिए यह एक फलता-फूलता कारोबार है, जबकि ऐसे कई उदाहरण जगजाहिर हैं, जिनमें सुरक्षा बलों से लड़ते हुए आतंकियों ने ढाल के रूप में स्थानीय लोगों का इस्तेमाल किया, उनकी नृशंस हत्या की और आरोप सैनिकों के मत्थे मढ़ दिया।
ऐसी जंग में फंसे किसी दूसरे देश के सशस्त्र बलों से यदि हम अपनी तुलना करें, तो कानून का शासन कायम रखने और मानवाधिकारों का सम्मान करने में भारतीय सेना का प्रदर्शन सराहनीय माना जाएगा। अमेरिका, नाटो और पाकिस्तान की सेना के विपरीत, हमारी फौज आतंकियों के खिलाफ लड़ाकू विमान, जंगी जहाज और तोप का इस्तेमाल नहीं करती। खुद नुकसान उठाने के बाद भी सेना दहशतगर्दों के खिलाफ कम से कम बल का इस्तेमाल करती है। आंकड़े बताते हैं कि सेना के खिलाफ मानवाधिकार-हनन के लगभग 96 फीसदी मामले झूठे साबित हुए हैं। और जिन्हें आपराधिक दुव्र्यवहार या जान-बूझकर नियमों के गलत इस्तेमाल का दोषी पाया गया, उन्हें कानून के मुताबिक सख्त सजा दी गई है। यह सरकार की पूर्व स्वीकृति के साथ सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफस्पा) के तहत होता रहा है।
हमारे सैनिक यह जंग इसलिए नहीं लड़ रहे हैं कि उन्हें इसमें कोई आनंद मिल रहा है, बल्कि वे इसलिए इसमें शामिल हैं, क्योंकि उनके लिए राष्ट्र की सुरक्षा और उसकी सलामती हमेशा सर्वोपरि है। लिहाजा इस समय हमारे महान देश को इस महत्वपूर्ण मसले पर अपनी सेना के साथ खड़ा होना चाहिए। यह मसला हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा पर किसी आसन्न खतरे का संकेत है। इस जांचे-परखे ‘एसमेट्रिक वारफाइटिंग’ (असंगत जंग से लड़ने वाले) ढांचे के साथ कोई भी छेड़छाड़ हमारे अभियानों के खिलाफ प्रतिकूल कदम माना जाएगा। बीतते समय के साथ यह हमारी संप्रभुता, एकता और अखंडता को चोट पहुंचाएगी। हमारे सैनिकों की आक्रामकता और कार्रवाई को ऐसी कवायद कुंद करेगी ही। ऐसे में, साफ तौर पर यह मसला तमाम स्तरों पर आत्म-निरीक्षण की मांग करता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)