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यहां से निकल सकती है नई राह

शीत युद्ध के बाद क्या विश्व-व्यवस्था एक नए बदलाव का गवाह बनने जा रही है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन...

यहां से निकल सकती है नई राह
शशांक, पूर्व विदेश सचिवTue, 17 Jul 2018 11:41 PM
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शीत युद्ध के बाद क्या विश्व-व्यवस्था एक नए बदलाव का गवाह बनने जा रही है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फिनलैंड की राजधानी हेलसिंकी में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन की एक सार्थक मुलाकात हुई है। इस ‘वन टु वन टॉक’ का पूरा ब्योरा तो अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है, पर जितनी बातें फिनलैंड के राष्ट्रपति भवन से छनकर बाहर आई हैं, उनसे यही लगता है कि दोनों नेता एक स्थिर विश्व की दिशा में काम करना चाहते हैं। परमाणु हथियारों को लेकर बैठक में खासतौर से चर्चा हुई होगी, जिसकी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने बैठक शुरू होने से पहले ही इशारा किया था। चूंकि परमाणु हथियारों का करीब 90 फीसदी जखीरा इन्हीं दोनों देशों के पास है, इसलिए अगर दोनों देश इसे थामने को लेकर एक राय बना पाए, तो निश्चय ही वैश्विक शांति की दिशा में यह मुलाकात मील का पत्थर साबित होगी। कहा यह भी जा रहा है कि आतंकवाद से निपटने और मध्य-पूर्व (भारत के लिए पश्चिम एशिया) में सीरिया जैसे देशों की अस्थिरता को खत्म करने के लिए भी लेकर दोनों नेता संजीदा हैं। यह खबर हमारे लिए भी सुखद है, क्योंकि इन मसलों से नई दिल्ली भी जूझ रही है।

इस बैठक पर दुनिया भर की नजरें यूं ही नहीं लगी थीं। माना जा रहा था कि इसमें क्रीमिया और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का मसला उठेगा, जिनकी वजह से वाशिंगटन और मॉस्को के रिश्ते हाल के वर्षों में बिगड़े हैं। क्रीमिया का तनाव तब बढ़ा था, जब रूस ने 2014 में उस पर अपना कब्जा जमा लिया था।  मॉस्को पर साल 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में दखल देने के आरोप भी हैं। मगर ट्रंप ने रूस के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में आई गिरावट की वजह किसी राष्ट्रपति चुनाव या क्रीमिया को नहीं, बल्कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति को माना है। आखिर ऐसा कैसे हुआ? मेरा मानना है कि इसकी वजह यूरोपीय देश हैं, जिनके अंदर उथल-पुथल का दौर जारी है। यूरोपीय संघ के कारण इटली, यूनान जैसे देशों की आर्थिक हालत काफी बिगड़ गई है। वे नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) में अपनी आर्थिक भागीदारी पूरी तरह नहीं निभा पा रहे हैं, जबकि शीत युद्ध के बाद से नाटो का लगातार विस्तार हुआ है। इसका अर्थ यह है कि नाटो में यूरोपीय संघ की हिस्सेदारी कमजोर हो रही है और एक गठबंधन के रूप में वे बंट-से गए हैं। ऐसे में, अमेरिका पर भार बढ़ गया है, जिसके खिलाफ घरेलू मोर्चों पर आवाजें उठने लगी हैं। ट्रंप भी इसका समर्थन कर चुके हैं।

वैसे अमेरिका की मौजूदा व्यवस्था की एक सच्चाई यह है कि कई मामलों में राष्ट्रपति ट्रंप और वहां के सत्ता-प्रतिष्ठान की राय बिल्कुल अलग होती है। यूरोपीय नीति को लेकर भी मसला कुछ ऐसा ही है। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान यूरोपीय गठबंधन की दोबारा मजबूती चाहता है; फिर चाहे कारोबारी रिश्ता आज जैसा ही क्यों न हो। मगर टं्रप इसके खिलाफ रहे हैं। दूसरी तरफ, यूरोप भी अपने तरीके से रूस और ईरान के साथ संबंध बनाना चाहता है। इसकी वजह यह है कि सर्दी के महीनों में यूरोप को तेल और गैस की ज्यादा जरूरत होती है। लिहाजा वह भी इन देशों के साथ अपने संबंध बिगड़ने देने के पक्ष में नहीं है। उसके लिए रूस और ईरान, दोनों महत्वपूर्ण सहयोगी बन जाते हैं। 

एक मसला मध्य-पूर्व यानी पश्चिम एशिया भी है। वहां की स्थिरता अमेरिका के लिए काफी मायने रखती है। रूस का सीरिया में बेस है, जबकि वहां ऐसे आतंकी समूह भी सक्रिय हैं, जो पश्चिम एशिया को अस्थिर कर सकते हैं। इसीलिए ट्रंप ने पुतिन से मुलाकात करके यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि पश्चिम एशिया में और अधिक उथल-पुथल न बढ़े। वह आतंकवाद के मसले पर एक समग्र बातचीत के पक्षधर दिखे, जो न सिर्फ पश्चिम के नजरिये से हो, बल्कि उसमें रूस के दृष्टिकोण को भी पर्याप्त जगह मिले। इसी तरह ईरान और अफगानिस्तान के साथ भी नए रिश्ते बनाने की कोशिश में ट्रंप दिखते हैं। 

इस मुलाकात के बहाने सिंगापुर से आगे बढ़ने की कोशिश भी की गई है। सिंगापुर में पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन की मुलाकात हुई थी। राष्ट्रपति ट्रंप जानते हैं कि उत्तर कोरिया को मुख्यधारा में तब तक शामिल नहीं किया जा सकता, जब तक ट्रंप की चीन व रूस के साथ एशिया के अन्य देशों के साथ इस मसले पर फैसलाकुन बातचीत न हो जाए। इसका मतलब यह भी है कि ट्रंप पारंपरिक नजरिये से अलग हटकर चीजों को नए चश्मे से देखना चाहते हैं, जिसमें जाहिर तौर पर कई चुनौतियों का सामना भी उन्हें करना होगा। सबसे पहले तो उन्हें घरेलू चुनौतियों से जूझना होगा, जो आसान काम नहीं है। हालांकि ट्रंप जिस रवैये के लिए जाने जाते हैं, उसमें अभी कुछ भी ठोस रूप से कहना गलत होगा।

रूस ने फीफा फुटबॉल वल्र्ड की मेजबानी करके मौजूदा तनातनी को काफी नरम करने का काम किया है। उसने न सिर्फ मुफ्त वीजा की पेशकश की, बल्कि वीजा आगे बढ़ाने जैसी उदारता भी दिखाई। यही नहीं, सबके सत्कार पर भी उसने पर्याप्त ध्यान दिया। लगे हाथ पुतिन ने ‘फुटबॉल डिप्लोमेसी’ के तहत 2026 के वल्र्ड कप की मेजबानी के अमेरिकी दावे का समर्थन भी किया । 

साफ है, एक नए संबंध की शुरुआत हो चुकी है। इसका एशिया, खासतौर से पश्चिम एशिया पर खासा असर पड़ेगा। मुमकिन है कि आने वाले दिनों में हम अमेरिका, रूस और चीन के बीच नए रिश्ते बनते देखें, जिनका हमें भी फायदा होगा। अमेरिका-रूस तल्खी की वजह से ही मास्को की निकटता बीजिंग (चीन) से बढ़ चली थी, जिसका लाभ पाकिस्तान को मिल रहा था। यह हमारे लिए चिंता की बात थी। उम्मीद है, अब अमेरिका और रूस के रिश्तों में आई नई गरमाहट पाकिस्तान सहित उन तमाम चुनौतियों से पार पाने में मददगार होगी, जो हमारे लिए परेशानी का सबब रही हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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