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इमरान को आजमाने में कैसा ऐतराज

नए प्रधानमंत्री के रूप में इमरान खान पाकिस्तान की बागडोर संभाल चुके हैं। उनका सियासी जीवन क्रिकेट करियर जैसा ही दिखता है। दोनों में उन्हें बड़ी कामयाबी मिली। हालांकि क्रिकेट में जहां उन्होंने यह माना...

इमरान को आजमाने में कैसा ऐतराज
टीसीए रंगाचारी, पूर्व राजनयिकSun, 19 Aug 2018 09:17 PM
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नए प्रधानमंत्री के रूप में इमरान खान पाकिस्तान की बागडोर संभाल चुके हैं। उनका सियासी जीवन क्रिकेट करियर जैसा ही दिखता है। दोनों में उन्हें बड़ी कामयाबी मिली। हालांकि क्रिकेट में जहां उन्होंने यह माना कि वह नियमों के खिलाफ ‘बॉल टेम्र्पंरग’ (गेंद से छेड़छाड़) किया करते थे, तो वहीं सियासी मैदान में पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) सरकार को सत्ता से बेदखल करने और खुद को शीर्ष पर लाने के लिए उन्होंने ‘तीसरे अंपायर’ (फौज) की मदद ली। तमाम अलोकतांत्रिक और असांविधानिक तरीके भी अपनाए।

इस पृष्ठभूमि में उनके आगामी कार्यकाल से भला क्या उम्मीद पाली जाए? क्या उनकी सफलता से हम उत्साहित हो जाएं या फिर उनकी शैली से सचेत? सवाल यह भी है कि क्या उनका दागदार अतीत यह भरोसा दिला पाता है कि वह जम्हूरियत को बचा पाएंगे? और क्या नियम व अनुशासन की तयशुदा व्यवस्था से इतर काम करने की उनकी आदत पाकिस्तानी फौज को पसंद आएगी, जो मुल्क की भाग्य-विधाता है?

इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने अपने समर्थकों में एक नई ऊर्जा भर दी है। बेरोजगारी से हताश व भ्रष्टाचार से निराश नौजवानों में भी उन्होंने नई उम्मीदें जगाई हैं। यह भरोसा भी बना है कि उनके जैसा प्रतिबद्ध व मुल्क से मोहब्बत करने वाला नेता ही पाकिस्तान को गरीबी, पिछड़ेपन और दूसरे कलंकों से उबार सकेगा। इसीलिए इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) ने खैबर पख्तूनख्वा में फिर से सत्ता हासिल की है, जबकि वहां अब तक कोई भी दल लगातार ऐसा नहीं कर सका है। सिंध में भी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के बाद उसे दूसरा स्थान मिला है। मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) के प्रभाव वाले कराची में भी उसने कई सीटें जीतीं। पंजाब में भी उसे पीएमएल-एन से महज छह सीटें कम मिली हैं। बलूचिस्तान में तो सिर्फ चार सीटें जीतकर बलूचिस्तान अवामी पार्टी (बीएपी) के साथ वह सरकार बना चुकी है।

आम चुनाव के बाद 26 जुलाई को इमरान खान ने अपना नजरिया पेश किया था, जिसमें दूरदर्शिता की झलक मिली। उन्होंने पाकिस्तान को एक ‘मानवीय राष्ट्र’ बनाने की हिमायत की थी। उन्होंने यह भरोसा दिलाया है कि वंचित वर्गों, श्रमिकों व गरीब किसानों की बेहतरी, शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार, बच्चों का विकास व उन्हें बेहतर तालीम और युवा हाथों को रोजगार उनकी ‘नीतियों’ के केंद्र में रहेंगे। उन्होंने चुनाव सुधार और अवाम को सशक्त बनाने की वकालत भी की है। इसके बावजूद उनका सियासी इतिहास इन उद्देश्यों को मुश्किल बना सकता है। पाकिस्तान में लोग उन्हें फौज का ‘लाडला’ भी कह रहे हैं। जबकि इमरान की ‘धरने’ की जिस रणनीति ने नवाज शरीफ सरकार को कमजोर किया, वह उनके खिलाफ भी आजमाई जा सकती है। 

इमरान खान ने इस आम चुनाव को ‘पाकिस्तान के इतिहास का सबसे निष्पक्ष चुनाव’ बताया है। मगर सच यह है कि जिन मामलों में नवाज शरीफ, उनकी बेटी मरियम शरीफ और कई पीएमएल-एन नेता दोषी पाए गए और चुनावी प्रक्रिया से बाहर कर दिए गए, ठीक उसी तरह के आरोपों (शुचिता, संपत्ति की घोषणा और चुनाव आयोग पर टिप्पणी) से इमरान खान आसानी से पार पा गए। वोट डालते समय चुनावी भाषण देने और अपना मतपत्र सार्वजनिक करने पर भी चुनाव आयोग करीब-करीब चुप रहा, जबकि इसके लिए छह महीने की कैद का प्रावधान है। इतना ही नहीं, लाहौर एनए-131 सीट पर वह महज 608 वोटों के अंतर से जीते हैं। यहां विपक्षी दल पीएमएल (एन) के उम्मीदवार की पुनर्गणना की मांग सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी, जबकि कानून कहता है कि यदि अंतर कुल मतदान (यहां 1,70,000 मत पड़े थे) का पांच प्रतिशत से कम हो, तो दोबारा गणना की जाएगी। 2013 के मुकाबले इस चुनाव के अधिक दागदार होने की तस्दीक पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग और यूरोपीय संघ के पर्यवेक्षकों ने भी की है। 

बहरहाल, नई सरकार के सामने ‘सबसे बड़ी चुनौती’ मुल्क की ‘अर्थव्यवस्था’ है। पाकिस्तान का राजकोषीय घाटा अभूतपूर्व स्तर पर चला गया है। ऐसे में, मुद्रा का अवमूल्यन महंगाई बढ़ाएगा। घाटे को कम करने से सार्वजनिक खर्च में कमी आएगी, रोजगार पर असर पड़ेगा और उपभोक्ता-मांग प्रभावित होगी। भुगतान में संतुलन बनाने के लिए आयात में कमी व पूंजी हस्तांतरण पर रोक लगाने से कारोबारी गतिविधियां थम सकती हैं। अगर टैक्स की दरों को बढ़ाया जाता है, तो जाहिर तौर पर लोकप्रियता गिरने का खतरा होगा। ऐसे में, भारत के साथ रिश्ते सुधारकर ही पाकिस्तान को कुछ फायदा हो सकता है। हालांकि दिलचस्प यह भी है कि चुनाव से पहले इमरान ने नवाज शरीफ पर ‘भारत और पाकिस्तान-विरोधी पश्चिमी देशों की तरफदारी करके’ मुल्क से विश्वासघात करने का आरोप लगाया था, मगर चुनाव के बाद उन्होंने यह ‘दृढ़ विश्वास’ जताया है कि ‘हिन्दुस्तान से दोस्ती इस उप-महाद्वीप के लिए सबसे अहम’ है। देखना होगा कि उनका यह बयान अवसरवादिता है या फिर वह द्विपक्षीय संबंध सुधारने को लेकर वाकई  गंभीर हैं? हालांकि  उसी समय उन्होंने कश्मीर-मसला भी छेड़ा और इसे ‘बुनियादी मुद्दा’ बताते हुए दोनों मुल्कों के हुक्मरानों को मिल-बैठकर इसका हल निकालने की बात कही। जाहिर है, अभी साफ-साफ नहीं कहा जा सकता कि कश्मीर का संतोषजनक समाधान निकलने के बाद द्विपक्षीय व्यापार गति पकड़ेगा या संबंध सुधार व कश्मीर समाधान, दोनों पर साथ-साथ कदम आगे बढ़ाए जाएंगे? पहली स्थिति हालात को जस की तस रखेगी, जबकि दूसरी पाकिस्तान के रुख में सकारात्मक बदलाव का संकेत होगी।

आतंकवाद का मसला भी हमारे लिए खासा महत्व रखता है। पाकिस्तानी फौज की छत्रछाया में पले-बढ़े आतंकी गुटों को इस चुनाव में मुख्यधारा में शामिल किया गया है। सवाल यह है कि अब क्या वे और अधिक राजनीतिक होंगे या फिर वहां की सियासत कहीं ज्यादा अतिवाद की ओर बढ़ेगी?

इमरान खान के ‘दृढ़ निश्चय’ की राह में चुनौतियां कई हैं। मगर जब वह भारत से कहते हैं कि ‘हम संबंध सुधारने के पक्ष में हैं, और आप एक कदम बढ़ाएंगे, तो हम दो’, तो क्या हमें उन्हें एक मौका नहीं देना चाहिए? हिन्दुस्तान उन पर एतबार करे या न करे, पर उन्हें आजमाना जरूर चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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