गर्मी में प्रदूषण से रहें बचकर, रखें इन बातों का ध्यान
प्रदूषण को लेकर दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों का हाल अकसर बुरा ही रहता है। यह समस्या कमोबेश सालभर बनी रहती है। गर्मी में धूल आदि के कारण समस्या और बढ़ जाती है। आखिर इससे बचाव के लिए आप क्या करें,...
Anuradhaदुनिया का सबसे प्रदूषित बना गुरुग्राम, टॉप-10 में NCR के 5 शहर शामिल: रिपोर्ट (मोहम्मद जाकिर, एचटी फ
प्रदूषण को लेकर दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले लोगों का हाल अकसर बुरा ही रहता है। यह समस्या कमोबेश सालभर बनी रहती है। गर्मी में धूल आदि के कारण समस्या और बढ़ जाती है। आखिर इससे बचाव के लिए आप क्या करें, क्या नहीं, जानकारी दे रही हैं स्वाति गौड़ गर्मियों में भी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का स्तर खराब या सबसे खराब के बीच झूलता रहता है। इससे सबसे ज्यादा परेशानी अस्थमा पीड़ित लोगों को होती है। इसलिए सर्दी की तरह गर्मियों में भी प्रदूषण से बचकर रहना जरूरी हो जाता है। खासतौर से अस्थमा या फेफड़ों और सांस संबंधी परेशानियों से ग्रस्त लोगों के लिए यह बहुत जरूरी है। वैसे सामान्य लोग भी प्रदूषण से खूब बीमारी हो रहे हैं।
Before Diwali Delhi-NCR turns into Gas Chamber
गर्मियों में भी रखें ध्यान इन दिनों दिल्ली-एनसीआर का प्रदूषण 200 से 300 एक्यूआई(एयर क्वालिटी इंडेक्स) के बीच झूल रहा है। लेकिन मई और जून जैसे महीनों में तेज गर्मी के दौरान धूल भरी आंधी, विभिन्न प्रकार के प्रदूषण स्तर में बढ़ोत्तरी तथा बारिश ना होने आदि के कारण प्रदूषण का स्तर सर्दियों की तरह बढ़ जाता है। गर्मियों में पीएम 2.5 और पीएम 10 के अलावा हवा में एनओ 2 का स्तर भी काफी बढ़ जाता है। बीते साल की बात करें, तो मई माह में दिल्ली के सात इलाकों जैसे आईटीओ (सबसे ज्यादा), इबहास, निजामुद्दीन, सिरीफोर्ट, शहजादाबाग, पीतमपुरा और शाहदरा में एनओ 2 का स्तर तय मानकों से काफी बढ़ा हुआ पाया गया था। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अनुसार, दिल्ली में गर्मियों के दौरान प्रदूषण बढ़ने की वजह गड़ियों से निकलने वाला बेइंतहा खतरनाक धुआं तो है ही, वातावरण में मौजूद धूल के कण, बायोमास बर्निग, फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं, निर्माण कार्यों में लापरवाही आदि भी हैं।
Air quality in Delhi poor category 15 trains late
क्यों होती है दिक्कत सर्दियों और गर्मियों के प्रदूषण में अंतर होता है। गर्मियों में हवा में धूल की मात्रा बढ़ जाने से खतरा बढ़ जाता है, क्योंकि गाड़ियों से निकलने वाले अन्य प्रदूषण से धूल के कण चिपक जाते हैं, जिससे सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। ऐसी स्थिति में गर्मी के साथ-साथ वातावरण में मौजूद सूखेपन से दिक्कत और बढ़ जाती है। इस मौसम में धूल के कण दूसरे प्रदूषित कणों के साथ मिलकर कैरियर का काम करते हैं, जिससे सबसे ज्यादा प्रभावित सांस के मरीज होते हैं। धूल, प्रदूषण, तेज गर्मी, सूखेपन सहित कुछ कारणों के सक्रिय हो जाने से ये चीजें उनके मर्ज के लिए ट्रिगर का काम करती हैं। श्वास संबंधी रोगियों को इस दौरान ज्यादा दिक्कत इसलिए भी होती है, क्योंकि जैसे-जैसे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ता है, उससे फेफड़ों के मरीजों की दिक्कतें बढ़ जाती हैं। परेशानी आने से पहले बरतें ये सावधानियां प्रदूषण का स्तर खतरनाक से बेहद खतरनाक (350 से 450) की तरफ जाता दिखे, तो कुछ समय के लिए दिल्ली से बाहर चले जाएं, सामान्य होने पर लौटें। ऐसी किसी जगह जाएं, जहां प्रदूषण का स्तर 150 या इससे कम हो। एन 95 मास्क पहनें। इससे सांस घुटती है, तो पूरे दिन सामान्य मास्क लगाएं या गीला रूमाल मुंह पर बांधें। इन्फ्लूएंजा का वैक्सीन लगवाने का ध्यान रखें, ताकि आपकी इम्यूनिटी बेहतर रहे। गले में खराब महसूस होने पर स्टीम लें और गरारे करें। पानी के साथ-साथ अन्य शीतल पेय जैसे, लस्सी, छाछ, शिकंजी, शर्बत आदि का भी सेवन करते रहें।
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lungs health
महत्वपूर्ण है साफ-सफाई फेफड़े संबंधी रोगियों को साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखना चाहिए। खासतौर पर ओरल हाईजीन, क्योंकि वे दिन में कई बार इन्हेलर और नेबुलाइजर लेते हैं। कई लोगों को रुटीन की दवाओं और खान-पान के साथ अतिरिक्त प्रोटीन भी लेना पड़ता है, इसलिए रोजाना मुंह की सफाई उतनी ही जरूरी है, जितनी कि रोज भोजन करना। स्टीम: जरूरत पड़ने पर भाप हमेशा किसी ऐसे बर्तन से लें, जिससे वह सीधा आपकी नाक में जाए और गले एवं छाती को भी सेंक मिले। नाक से लंबी सांस खींच कर मुंह से निकालें। ऐसा करने से नाक और गले से होते हुए गर्म हवा फेफड़ों तक पहुंचती है, जिससे हमारी सांस की नलियां नर्म हो कर खुल जाती हैं। मास्क: बाजार में और ऑनलाइन आजकल सर्जिकल मास्क, एन-सीरीज मास्क और आर-सीरीज मास्क बहुत आसानी से मिल जाते हैं। कुछ मास्क ऐसे होते हैं, जिनमें अलग-अलग कपड़े की तीन परतें होती हैं। सस्ते कपड़े से बने मास्क जहां लगभग 10 से 15 प्रतिशत तक ही सुरक्षा प्रदान कर पाते हैं, वहीं एन-95 और एन-98 जैसे मास्क बहुत ज्यादा कारगर होते हैं। इस प्रकार के मास्क 2़ 5 माइक्रोमीटर से भी बारीक धूल के कणों को रोकने में सक्षम होते हैं, क्योंकि यही वो महीन कण होते हैं, जो फेफड़ों की गहराई में जाकर नुकसान पहुंचाते हैं। ऑक्सीजन थेरेपी: सांस की गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों को डॉक्टर कई बार ऑक्सीजन थेरेपी की सलाह भी देते हैं। यह कई बार आपातकालीन स्थिति में बचाव का काम भी करती है। बहुत ज्यादा बीमार होने की स्थिति में जब व्यक्ति खुद से सांस नहीं ले पाता तो उसे ऑक्सीजन सिलेंडर से ऑक्सीजन कॉन्संट्रेटर द्वारा सांस देते हैं।
lungs
पल्स ऑक्सीमीटर: यह एक छोटा-सा डिजीटल यंत्र होता है, जिससे आप सेचुरेशन (शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा) को माप सकते हैं। एक स्वस्थ इंसान के शरीर का सेचुरेशन 96 से 99 फीसदी के आसपास रहता है। सांस फूलने और खिंचकर आने की स्थिति में यदि यह सेचुरेशन 70 फीसदी से नीचे चला जाए, तो स्थिति गंभीर होती है। एयर प्यूरीफायर की कारगर भूमिका विभिन्न शोध बताते हैं कि घर के अंदर की हवा बाहर की हवा से लगभग चार से पांच गुना तक ज्यादा खतरनाक हो सकती है। इसलिए आजकल एयर प्यूरीफायर काफी चलन में आ गये हैं। इसका फिल्टर कमरे की हवा में मौजूद धूल के कणों, बाल आदि को खत्म कर हवा को साफ करता है। आपको अपने कमरे के आकार के हिसाब से ही प्यूरीफायर खरीदना चाहिए, क्योंकि हर प्यूरीफायर की क्षमता अलग-अलग होती है। इसके लिए कंपनी की डेमो सुविधा का लाभ लें।
dry cough
इनकी होती है अहम भूमिका अस्थमा: यह सांस जनित रोगों का सबसे सामान्य प्रकार है। इसमें सांस की नलियों में सूजन आ जाती है, जिसकी वजह से सांस लेने और छोड़ने में काफी दम लगाना पड़ता है। ब्रोंकाइटिस: ब्रोंकाइटिस गतिशील बीमारी की श्रेणी में आता है। मतलब, उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह बीमारी भी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। ब्रोंकाइटिस बड़ी उम्र के लोगों में ज्यादा पाया जाता है। पीएएच (पल्मनरी आर्टरी हाइपरटेंशन): पीएएच एक ऐसी स्थिति है, जिसमें फौरी तौर पर व्यक्ति अस्थमा से पीड़ित लगता है, पर असल में यह स्थिति ज्यादा गंभीर होती है। पीएएच में व्यक्ति के दिल के दाहिने भाग को फेफड़ों तक खून पहुंचाने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि इसमें धमनियां (आर्टरी) सूज कर सख्त और तंग हो जाती हैं। सीओपीडी (क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मनरी डिजीज): इसे सांस जनित रोगों में काफी गंभीर माना जाता है। इसमें फेफड़ों में छेद हो जाने या खराब हो जाने पर सांस द्वारा पूरी ऑक्सीजन अंदर नहीं जा पाती और न ही पूरी कार्बन डाईआक्साइड बाहर निकल पाती है। एबीपीए (एक्यूट ब्रोंकोपल्मनरी एस्परजिलोसिस): सीओपीडी की तरह ही यह तेजी से फैल रही है। एबीपीए समय रहते अगर पकड़ में न आये या इसका सही इलाज न किया जाए, तो यह बहुत विकराल रूप ले सकती है। (वसंत विहार स्थित होली एंजिल्स हॉस्पिटल के पल्मनरी क्रिटिकल केयर एंड स्लीप मेडिसिन विभाग के डायरेक्टर डॉ. हेमंत तिवारी से की गई बातचीत पर आधारित)