ताकि उर्दू जिंदा रहे
पाकिस्तान में समस्याओं की कोई कमी नहीं है। दहशतगर्दी, भ्रष्टाचार के साथ-साथ खूनी झड़पों की आदत फिलहाल खत्म नहीं होगी, लेकिन इन सबके बीच हमारे मुल्क की कई दूसरी चीजें भी हाशिये पर चली गई हैं। उर्दू...
पाकिस्तान में समस्याओं की कोई कमी नहीं है। दहशतगर्दी, भ्रष्टाचार के साथ-साथ खूनी झड़पों की आदत फिलहाल खत्म नहीं होगी, लेकिन इन सबके बीच हमारे मुल्क की कई दूसरी चीजें भी हाशिये पर चली गई हैं। उर्दू साहित्य का पतन ऐसा ही एक अहम मसला है, क्योंकि ऐसा लगता है कि नई नस्ल इसको भूल गई है। ऐसे में, उर्दू कॉमिक्स का आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता चलन एक हल हो सकता है। यह कदम उर्दू की कहानियों और बच्चों के बीच एक पुल का काम कर सकता है। वैसे तो मीर जाफर अली, असीम फिदा खान और वाजिद रजा जैसे कुछ कार्टून चित्रकारों ने दुनिया भर में मकबूलियत बटोरी है, मगर पाकिस्तान की एनिमेशन इंडस्ट्री अभी कच्ची उमर में है। बहरहाल, नई बात यह है कि कॉमिक्स की किताबें रचने वाली यह तिकड़ी पासबां नामक एक शृंखला पर काम कर रही है, जिसमें कॉलेज के कुछ करीबी दोस्तों के एक समूह को पेश किया जा रहा है। समूह के नौजवान बेहद परेशान हैं, क्योंकि लड़कों की एक महजबी जमात में शामिल होने के लिए एक साथी उनका समूह छोड़ देता है। यह मजहबी जमात ऊपरी तौर पर भलाई के कामों से जुटी है। खूनी चरमपंथ पर केंद्रित यह शृंखला काफी अहमियत रखती है, न सिर्फ इस लिहाज से कि यह आज के सबसे मौजूं पहलू से बाबस्ता है और उर्दू जबान को नई जिंदगी देने की मुहिम के तहत रची जा रही है, बल्कि इसलिए भी कि मुल्क के सामाजिक-आर्थिक मसलों के प्रति यह जागरूकता भी पैदा कर रही है।
साल 2011 में कराची के दो अंडरग्रैजुएट नौजवानों ने कच्ची गलियां नाम से एक फेसबुक पेज बनाया था, जिस पर वे अपने मौलिक कॉमिक स्ट्रिप डाला करते थे। पाकिस्तान को एक सुपरहीरो देने के इरादे से उन्होंने उर्दू के पुराने पात्रों, जैसे उमरू अय्यार को जिंदा किया। उनकी इस कवायद ने इस बात का एहसास कराया कि बच्चे तस्वीरों के जरिये उर्दू को पढ़-सुन रहे हैं। हालांकि, कॉमिक्स उर्दू साहित्य को मुख्यधारा के मीडिया में लाने में जुटे हैं, मगर उनकी यह कवायद तभी कामयाब होगी, जब बच्चे, उनके मां-बाप और स्कूल इसमें दिलचस्पी दिखाएंगे।
द नेशन, पाकिस्तान