समाधान की निकलती राह
हाल के वर्षों में नेपाल की राजनीति में यह एक गंभीर मसला बना हुआ है कि राज्यों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण से जुड़ी समस्या का किस कदर समाधान निकाला जाए, ताकि वह सत्ताधारी दल और मधेसी पार्टियों, दोनों को...
हाल के वर्षों में नेपाल की राजनीति में यह एक गंभीर मसला बना हुआ है कि राज्यों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण से जुड़ी समस्या का किस कदर समाधान निकाला जाए, ताकि वह सत्ताधारी दल और मधेसी पार्टियों, दोनों को मान्य हो। इस सवाल से पहली संविधान सभा के गठन के बाद से ही देश जूझ रहा है। इसे हल करने के वादे के साथ एक के बाद दूसरी सरकारें आती रहीं, मगर नेता अपने मूल मकसद से भटकते दिखे। मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद भी यह तस्वीर बदली नहीं थी। हालांकि अब कुछ ऐसे संकेत दिख रहे हैं कि सरकार मधेसी पार्टियों के साथ एक मान्य समझौते के करीब है। ऐसा लग रहा है कि चार मुद्दों को समेटते हुए एक समग्र समझौते पर सहमति बनने वाली है, जिनमें प्रांतीय सीमाएं, नागरिकता, ऊपरी सदन में प्रतिनिधित्व और मधेसी व जनजाति लोगों की भाषाओं को मान्यता देना शामिल होगा।
हालांकि हमने पहले भी कई बार देखा है कि आखिरी मौके पर किस तरह समझौता टल जाता है, लिहाजा इस बार सहमति बन ही जाएगी, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। इसके अलावा, अब तक यह भी साफ नहीं है कि दोनों पक्षों ने किस तरह सीमाओं के निर्धारण का मसला हल करने की योजना बनाई है। हम अभी यही जानते हैं कि दोनों पक्ष प्रांत नंबर-5 के पहाड़ी और मैदानी इलाकों के बंटवारे पर सहमत हो गए हैं। मगर पूर्व के तीन विवादित जिले (झापा, मोरंग और सुनसरी) और पश्चिम के दो जिलों (कंचनपुर और कैलाली) पर उनकी स्थिति साफ नहीं हुई है।
सत्ताधारी दल इन जिलों को क्रमश: प्रांत नंबर-1 और 7 का हिस्सा बने रहने देने के पक्ष में हैं, तो मधेसी पार्टियां इन जिलों के कुछ हिस्सों को प्रांत नंबर-2 और 6 में शामिल कराना चाहती हैं। ऐसे में, किसी एक पक्ष को अपना दावा छोड़ना ही होगा, तभी इसका समाधान निकल सकेगा। बहरहाल, इन पार्टियों को समझना चाहिए कि काफी दिनों से मुल्क इन्हीं मसलों में उलझा हुआ है। यह तमाम दलों व लोगों के लिए फायदेमंद होगा कि वे अब इससे आगे बढ़ें और देश के भविष्य के मद्देनजर अन्य मसलों पर भी विचार-विमर्श करें।
काठमांडू पोस्ट, नेपाल