कानपुर: रिसते घावों का अनूठा शहर
कानपुर। इस महानगर के दो चेहरे हैं। पहले खूबसूरत वाले की बात करता हूं- कानपुर, उत्तर प्रदेश का औद्योगिक शहर माना जाता है। यहां हर साल 43 हजार करोड़ कीमत की विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन होता है।...
कानपुर। इस महानगर के दो चेहरे हैं। पहले खूबसूरत वाले की बात करता हूं-
कानपुर, उत्तर प्रदेश का औद्योगिक शहर माना जाता है। यहां हर साल 43 हजार करोड़ कीमत की विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन होता है। प्रतिरक्षा, डिटरजेंट, मसाले, चाय, चमड़े के उत्पादों के साथ-साथ यहां छोटी-बड़ी तमाम औद्योगिक इकाइयां हैं। देश में सर्वाधिक, यानी पांच सरकारी आयुध निर्माण फैक्टरियां भी इसी शहर के हिस्से में आती हैं। हिन्दुस्तान एरोनोटिक्स लिमिटेड का कारखाना भी यहीं है। नतीजतन, प्रदेश में सर्वाधिक टैक्स ‘कनपुरिए’ देते हैं- दस हजार करोड़ रुपये।
इसी समृद्धि का परिणाम है कि सिविल लाइंस और माल रोड पर प्रतिवर्ग मीटर भूमि की दर डेढ़ से दो लाख रुपये आंकी जाती है। ये आंकड़े आपको भ्रमित कर सकते हैं कि इस शहर में हर समय चांदी के सिक्कों की टनटनाहट गूंजती रहती है पर यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है।
अब आते हैं, दूसरे यानी बदसूरत चेहरे पर।
कानपुर में कुल मिलाकर, छोटी-बड़ी 390 ‘स्लम’ बस्तियां हैं। इनमें तकरीबन सात लाख लोग रहते हैं। गंदगी, दुर्गन्ध और हर तरह की अव्यवस्था के बीच जिंदगी गुजर करते लोगों को देखकर मन में सवाल उठने लगते हैं कि यहां बच्चे कैसे पैदा होते हैं? ऐसी जगहों पर जिंदगी के फूल मुरझाने से बचते कैसे हैं? बचपन कैसे परवान चढ़ता है और उनका भविष्य क्या होता है?
इन सवालों का जवाब ढूंढ़ते हुए मेरे सहयोगी सुनील द्विवेदी ने मसवानपुर के शिवनगर मोहल्ले के एक मकान का दरवाजा खटखटाया। इसके मालिक के.के. गुप्ता ने अक्तूबर 2015 में आत्महत्या कर ली थी। वे कभी लाल इमली में सुरक्षा गार्ड हुआ करते थे। तनख्वाह के लाले पड़े, गुरबत बढ़ती गई और एक दिन उनकी हिम्मत पस्त हो गई।
उनकी पत्नी जिस दर-ओ-दीवार को अपना घर कहती हैं, वह कुल जमा एक कमरा है और नाम मात्र का सामान गृहस्थी के लिए। दीवारों की दुर्दशा यह बताने में असमर्थ है कि इस पर कभी प्लास्टर भी हुआ था, या नहीं। समूचा घर सीलन से भरा है। जिसकी टपकती छत बारिश में सिर्फ यह एहसास दिलाती है कि ऊपर नजर उठाने पर आसमान नहीं दिखता इसलिए हमारे सिर पर भी ‘छत’है।
वे बताती हैं, पति सूदखोरों से डरकर आत्महत्या कर बैठे। बेटे को स्कूल से निकालना पड़ा। छोटा पुत्र शारीरिक रूप से अक्षम है। उसे ‘दिव्यांग’ कहें तब भी उसकी दुश्वारियां दूर नहीं हो सकतीं। इंटर पास बेटे का यौवन वेल्डिंग मशीन की आहुति चढ़ रहा है और वह खुद दिन भर कपड़े सिलती हैं। बेटी सयानी हो चली है, पर उसकी शादी की सोचना तक त्रासद है। लाल इमली ने पति का बकाया 25 हजार दबा रखा है। अगर वह मिल जाए, तो शायद इसके लिए कुछ हिम्मत संजोयी जा सके।
यह सिर्फ गुप्ता परिवार की त्रासदी नहीं है। इस शहर में ऐसे हजारों गम के मारे मिलते हैं।
अभिलेखों में ये लोग भी वोटर हैं और इस बार भी अपना मताधिकार दर्शाने जाएंगे। वो वोट उनका ‘तात्कालिक’ कोई फायदा करा दे तो करा दे पर जीवन उनके लिए पहले दिन से दुश्वारियों का अंतहीन रास्ता साबित हुआ है। नेता आए और गए। वायदे उछले और दब गए। अगर कुछ कायम है, तो दुश्वारियां और मुस्तैद अंगरक्षक की तरह उन्हें पोसता हुआ दु:ख।
कानपुर के लोग आह भरते हैं, इसे कभी भारत का ‘मैनचेस्टर’ कहा जाता था पर अतीत हो चुके इस विशेषण से आज गुरबत के मारों का पेट नहीं भरता।
प्रदेश के अन्य हिस्सों की तरह कानपुर मंडल में भी मुकाबला त्रिकोणीय है पर क्या सत्ता के लिए जूझ रहे ये तीन कोण यहां की बहुकोणीय समस्याओं को लेकर गंभीर हैं? या, यह चुनाव भी हमेशा की तरह लोगों को छलने आया है?
दूसरे चरण की यात्रा यहीं समाप्त होती है।