श्री जगन्नाथ पुरी रथयात्रा जगयात्रा
भारत पर्वां-त्योहारों का देश है। हमारे पर्व शाश्वत सरोकारों में ऐसे रचे-गुंथे हैं कि आज के जमाने में भी उनका सम्मोहन बरकरार है। पुरी की रथयात्रा में इसीलिए दूर-दूर और विदेश तक से लोग आते हैं और यहां...

भारत पर्वां-त्योहारों का देश है। हमारे पर्व शाश्वत सरोकारों में ऐसे रचे-गुंथे हैं कि आज के जमाने में भी उनका सम्मोहन बरकरार है। पुरी की रथयात्रा में इसीलिए दूर-दूर और विदेश तक से लोग आते हैं और यहां की पावनता में विभोर हो जाते हैं। यह अद्भुत, अनुपम और अनन्य रथयात्रा 13 जुलाई से शुरू हो रही है
अष्टादश पुराणों में से ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, नारदपुराण आदि में जगन्नाथ जी एवं उनकी रथयात्रा का वर्णन है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम् एवं जगन्नाथ पुरी जैसे भारत के चार धामों में से अपनी रथयात्रा के कारण जगन्नाथ पुरी विश्व-विख्यात है। महावेदी महोत्सव के नाम से स्कन्दपुराण में उल्लिखित इस यात्रा को रथयात्रा, गुण्डिचा यात्रा, घोष यात्रा, वनदिन यात्रा, पतित पावन यात्रा आदि कई नामों ले अभिहित किया जाता है। पौराणिक परंपरा के अनुसार सतयुग में चंदन, त्रेता में बसंत और द्वापर में होली की भांति कलियुग में पतितों के उद्धार हेतु रथयात्रा का आयोजन हुआ है। तभी ब्रह्मपुराण कहता है-‘‘गुण्डिचा नाम यात्रा वै सर्वकामफलप्रदा।’’
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथ अपने ज्येष्ठ भ्राता बलराम एवं बहन सुभद्रा के साथ श्रीमन्दिर से निकलकर अलग-अलग रथों में आरूढ़ होकर अपने जन्मस्थान गुण्डिचा मन्दिर की ओर यात्रा करते हैं। लाल-पीले रंग के अपने ‘तालध्वज’ रथ में पहले बलभद्र जी, काले-पीले रंग के ‘दर्पदलम’ रथ में सुभद्रा जी और अंत में लाल-पीले रंग के ‘नंदिघोष’ रथ में सज-धजकर जगन्नाथ जी यात्रा करते हैं। अपने भक्तवत्सल नाम को सार्थक करने के लिए साल में एक बार प्रभु श्रीमन्दिर का रत्न-सिंहासन त्याग कर बड़दाण्ड (चौड़ी सड़क) पर उतर आते हैं। रथयात्रा में सभी जाति, धर्म, संप्रदाय के लोग विश्व-भ्रातृक्व भाव से प्रेरित होकर श्री जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथ खींचते हैं। क्योंकि स्कन्दपुराण में कहा गया है-‘‘रथेतु वामनं दृष्ट्वा पुनजर्न्म न विद्यते।’’ रथयात्रा के समय दारुब्रह्म पतितपावन जगन्नाथ जी के दर्शन करने से प्राणी पुनजर्न्म से मुक्त हो जाता है।
कहा जाता है कि श्रीमन्दिर के प्रतिष्ठाता महाराज इन्द्रद्युम्न ने गुण्डिचा मन्दिर के महावेदी पर नृसिंह भगवान की स्थापना की थी। फिर वहीं पर अश्वमेघ यज्ञ कराने के बाद श्रीमन्दिर बनवाया था। गुण्डिचा मन्दिर में ही श्री जगन्नाथ, श्री बलभद्र, देवी सुभद्रा एवं श्री सुदर्शन के नाम से चार दारु विग्रहों का निर्माण हुआ था। इसलिए गुण्डिचा मन्दिर श्री जगन्नाथ जी का जन्म स्थान है। इन्द्रद्युम्न की रानी गुण्डिचा देवी के अनुरोध पर साल में एक बार हफ्ते भर के लिए भगवान अपने जन्मस्थान में अवसान करने के लिए आते हैं। रानी के नामानुसार इस यात्रा को ‘गुण्डिचा यात्रा’ कहा जाता है।
श्रीमन्दिर की परंपरा में पुरी के गजपति महाराज की विशेष भूमिका रही है। वे जगन्नाथ जी के प्रथम सेवक और सजीव प्रतिभू हैं। तीन देवों के रथारूढ़ होने के बाद गजपति महाराज को श्री जगन्नाथ जी का ‘आख्य माल’ भेजा जाता है और आदेश पाकर महाराज अविलम्ब वहां आ पहुंचते हैं। वे बारी-बारी से तालध्वज, दर्पदलन और नंदिघोष रथ पर जाकर दण्ड-प्रणामपूर्वक प्रभु को सोने के मूठ वाले चामर झलते हैं, फिर चंदन, कपूर मिश्रित सुवासित जल छिड़क कर सोने के मूठ वाले झाड़ू से रथ की समाजर्ना करते हैं, जिसे ‘धेरापहैरा’ के नाम से जाना जाता है। देश-विदेश से आये लाखों श्रद्धालुओं के समक्ष मानवतावाद से उद्बुद्ध होकर दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, अहमदाबाद, गंगटोक आदि भारतीय नगर तथा लंदन, न्यूयार्क आदि विदेशी महानगरों श्रीक्षेत्र के अनुकरण में रथयात्रा मनाई जाती है। जगन्नाथ जी की परिकल्पना में बहुर्विध धार्मिक भावनाओं से परे ब्राह्मण धर्म से लेकर आदिवासी तक, बौद्ध, जैन, वैष्णव, ईसाई सभी जाति, धर्म और वर्ण के लोग इन्हें अपना मानते हैं। अत: इस पर्व की लोकप्रियता से प्रेरित होकर गांव-गांव के गली-कूचे से लेकर दूर देशों के नगर-नगर तक जगन्नाथ मन्दिर और रथयात्रा का विस्तार हुआ है। संसार की डोरी जिसके हाथ में है, उसे संसारवाले डोरी से बांधकर खींच ले जाने का जो उल्लास एवं अनुभव प्राप्त करते हैं, वास्तव में वह अद्भुत, अनुपम और अनन्य है।
(लेखक भुवनेश्वर में रहते हैं और हिन्दी व उड़िया के जाने-माने विद्वान हैं)
