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अस्थिर मणिपुर में स्थिर चेहरा इबोबी सिंह

भारतीय राज्यों में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाले मुख्यमंत्रियों की बात की जाए तो मणिपुर के सीएम ओकराम इबोबी सिंह का नाम भी सामने आता है। 2002 में मणिपुर की कमान संभालने वाले इबोबी राज्य...

अस्थिर मणिपुर में स्थिर चेहरा इबोबी सिंह
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 04 Mar 2017 10:57 PM
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भारतीय राज्यों में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाले मुख्यमंत्रियों की बात की जाए तो मणिपुर के सीएम ओकराम इबोबी सिंह का नाम भी सामने आता है। 2002 में मणिपुर की कमान संभालने वाले इबोबी राज्य के उन चुनिंदा मुख्यमंत्रियों में शामिल हैं, जो तीन बार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करने में कामयाब रहे। उनसे पहले कांग्रेस के रिषांग केशिंग मणिपुर पर सबसे लंबी अवधि (1981 से 1988) तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री थे।

इबोबी ने अपने सियासी सफर की शुरुआत एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में की थी। हालांकि जल्द ही वह कांग्रेस में शामिल हो गए। बतौर मुख्यमंत्री इबोबी के तीन कार्यकाल पूरा करने की वजह पूछने पर कोई उन्हें 'चालाक' तो कोई 'अतिमहत्वाकांक्षी' और कोई 'जोड़-तोड़ में माहिर नेता' करार देता है। 

दरअसल, इबोबी के शासन में भी मणिपुर में कई बार सियासी उथल-पुथल मची। 2004 में इबोबी सरकार उस समय मुश्किल में आ गई, जब मनोरमा देवी नाम की एक महिला के रेप और हत्या के मामले में सेना का नाम उछला। स्थानीय महिलाओं ने इंफाल में असम राइफल्स के कार्यालय के बाहर निर्वस्त्र होकर विरोध-प्रदर्शन किया। इस घटना ने पूरे देश का ध्यान खींचा। अंत में सरकार को इंफाल नगरपालिका क्षेत्र से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) हटाने का फैसला लेना पड़ा। राज्य के बाकी हिस्सों में यह कानून अब भी प्रभावी है।

मणिपुर अक्तूबर 1949 में भारत में शामिल होने के बाद से ही उग्रवाद का दंश झेल रहा है। बीते सात दशक में कभी स्वायत्तता तो कभी राज्य के कुछ हिस्सों को नगालैंड में शामिल करने की मांग को लेकर वहां कई उग्रवादी संगठन खड़े हुए हैं। केंद्र सरकार भी इन संगठनों से सख्ती से निपटी है, जिसके चलते राज्य में बड़े पैमाने पर सेना की तैनाती रही है। हाल-फिलहाल में वहां बहुसंख्यक मेती समुदाय और पहाड़ी आदिवासियों (नगा, कुकी व अन्य) के बीच तनाव बढ़ा है। 

दरअसल, मणिपुर के कुल क्षेत्रफल में पहाड़ी क्षेत्रों की हिस्सेदारी लगभग 90 फीसदी है। वहीं, राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में 40 सीटें मेती बहुल इलाकों में पड़ती हैं। ऐसे में पहाड़ी आदिवासियों के पास जमीन है तो मेती समुदाय के पास राजनीतिक ताकत। दोनों पक्षों के बीच टकराव और उग्रवादी गतिविधियों के चलते राज्य का विकास बाधित हुआ है। निवेशक वहां पैसे लगाने से हिचकिचाते हैं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 79.85 फीसदी साक्षरता दर वाले मणिपुर में बेरोजगारों की संख्या 7.5 लाख के करीब है, जो कुल आबादी का लगभग 25 फीसदी है।

मणिपुर समय-समय पर आर्थिक नाकेबंदी से भी जूझता आया है। यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) ने राज्य के नौ जिलों में से कुछ भूभाग को काटकर सात नए जिलों के गठन के इबोबी सरकार के फैसले को लेकर बीते चार माह से राज्य की लाइफलाइन कहलाने वाले एनएच-2 और एनएच-37 को बाधित कर रखा है। इन नौ जिलों में से पांच पहाड़ी इलाकों में आते हैं। आर्थिक नाकेबंदी के चलते मणिपुर में खाने-पीने और दवाओं से लेकर सभी जरूरी चीजों की कीमतों में आग लग गई है। इबोबी इस हालात में लगातार चौथे कार्यकाल के लिए मैदान में हैं।

यूं तो मणिपुर में कांग्रेस उनके नेतृत्व में चुनाव दर चुनाव मजबूत स्थिति हासिल करती आई है, लेकिन इस बार के हालात थोड़े जुदा हैं। आर्थिक नाकेबंदी से निपटने में नाकाम रहने के आरोपों के बीच कांग्रेस को इस बार पहले से ज्यादा आक्रामक भाजपा से चुनौती मिल रही है। यही नहीं, उग्रवादी संगठनों ने आदिवासी नेताओं को धमकी दी है कि वे कांग्रेस के टिकट पर चुनाव न लड़ें। इससे फुंग्जतांग तोंसिंग सहित कई दिग्गज चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस छोड़ दूसरे दलों में शामिल हो गए हैं। थोउबल से दो बार से विधायक चुने जा रहे इबोबी इस बार खुद अपनी सीट पर कांटे की टक्कर झेल रहे हैं। मणिपुर से अफस्पा हटाने की मांग को लेकर लगभग 16 साल तक अनशन करने वाली इरोम शर्मिला पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस (पीआरजेए) उम्मीदवार के रूप में उन्हें चुनौती दे रही हैं। ऐसे में लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली है।

तब लगा था, सरकार ज्यादा दिन नहीं टिकेगी
2002 में जब ओकराम इबोबी सिंह ने मणिपुर का मुख्यमंत्री पद संभाला तो लोगों को लगा था कि उनकी सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी। यह सोच बेबुनियाद भी नहीं थी क्योंकि मणिपुर कई सालों से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था। यही नहीं, इबोबी सीपीआई सहित अन्य दलों से गठबंधन के बलबूते सत्ता में आए थे। 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस विधायकों की संख्या महज 20 थी।

खेत-खलिहान से राजनीति तक
19 जून 1948 को थोउबल जिले के अथोकपम गांव में इबोबी का जन्म हुआ था 
स्कूल के दिनों में खेती में पिता का हाथ बंटाते थे, स्नातक के बाद कॉन्ट्रैक्टर बने
1981 में राजनीति में कदम रखा, थोउबल की कोऑपरेटिक सोसायटी के सचिव बने
1984 में थोउबल की खंगाबोक विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते

पूर्वोत्तर में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता
1985 में कांग्रेस में शामिल हुए, 1990 में खंगाबोक से एक बार फिर विधायक चुने गए
तत्कालीन मुख्यमंत्री राजकुमार जयचंद्र सिंह की सरकार में शहरी विकास-आवास मंत्री बने
1995 में एमपीपी के लेशराम जत्रा सिंह के हाथों गंवाईं खंगाबोक सीट, पर कांग्रेस में बढ़ता गया कद
1999 में मणिपुर कांग्रेस के अध्यक्ष बने, अलग नगा राज्य की मांग के बीच पार्टी को दोबारा खड़ा किया

मुश्किल समय में भी कांग्रेस को मजबूत किया
जब राज्य में उग्रवाद चरम पर था, उस समय भी इबोबी सिंह ने कांग्रेस को मजबूत करने का काम किया
2002 में भाकपा और क्षेत्रीय दलों के समर्थन से बनी सरकार में वह कांग्रेस के प्रमुख चेहरा बन गए। 
2007 में कांग्रेस पूर्ण बहुमत से महज एक सीट पीछे रही और भाकपा का समर्थन लेना पड़ा। 
यूपीए से अलग होने के बावजूद वाम दल ने मणिपुर में अपना समर्थन जारी रखा। 
2012 में एंटी-इनकम्बेंसी फैक्टर और दिल्ली में हार के बावजूद इबोबी सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को 42 सीट मिली। 

पत्नी ने भी रचा कीर्तिमान 
2007 के चुनावों में इबोबी सिंह की पत्नी एल. लंढोनी देवी 60 सदस्यीय विधानसभा में इकलौती महिला विधायक थीं। यहां तक कि उन्हें अपने पति से ज्यादा वोट भी मिले थे। हालांकि दो बार विधायक रहने के बावजूद उन्होंने इस बार चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है और अपनी जगह बेटे सूरजकुमार को मैदान में उतारा है। 

15,473 वोटों से पिछले चुनाव में जीत दर्ज की थी इबोबी सिंह ने 

19,121 वोट मिले थे इबोबी सिंह को 2012 में 

3,668 मतों के साथ दूसरे नंबर पर रहे भाजपा प्रत्याशी 

सबसे मुश्किल परीक्षा 
15 साल के शासन में 1200 गैर-न्यायिक हत्याओं को मुद्दा बना रहे विपक्षी दल। हालांकि इबोबी सिंह का आरोपों से इनकार। 

परिवार भी राजनीति में 
पत्नी एल. लंढोनी देवी दो बार खगाबोक विधानसभा सीट से विधायक रहीं। 
अब इस सीट से उनके बेटे सूरजकुमार सिंह कांग्रेस प्रत्याशी हैं। 
उनके भतीजे ओकराम हेनरी भी चुनावी मैदान में हैं। 

जानलेवा हमले भी हुए 
2003 में इबोबी सिंह के काफिले पर उग्रवादियों ने जानलेवा हमला किया। तीन सुरक्षाकर्मियों की जान गई। 
2016 में उनके हेलीकॉप्टर पर गोलियां चलाई गई।

पत्नी ने भी रचा कीर्तिमान 
2007 के चुनावों में इबोबी सिंह की पत्नी एल. लंढोनी देवी 60 सदस्यीय विधानसभा में इकलौती महिला विधायक थीं। यहां तक कि उन्हें अपने पति से ज्यादा वोट भी मिले थे। हालांकि दो बार विधायक रहने के बावजूद उन्होंने इस बार चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है और अपनी जगह बेटे सूरजकुमार को मैदान में उतारा है। 

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