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अध्यक्षीय शासन प्रणाली पर जोर

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन-व्यवस्था नागरिकों के जीवन को गहरे प्रभावित करती हैं। दिव्य हिमाचल समूह के संस्थापक व चेयरमैन भानू धमीजा भी इस विचार के प्रबल समर्थक हैं। अपनी पुस्तक 'ह्वाई...

अध्यक्षीय शासन प्रणाली पर जोर
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 07 Nov 2015 09:03 PM
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इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन-व्यवस्था नागरिकों के जीवन को गहरे प्रभावित करती हैं। दिव्य हिमाचल समूह के संस्थापक व चेयरमैन भानू धमीजा भी इस विचार के प्रबल समर्थक हैं। अपनी पुस्तक 'ह्वाई इंडिया नीड्स...' में वह कहते हैं कि किसी भी देश की शासन व्यवस्था वहां के नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण करती है। उनका मानना है कि वर्तमान भारतीय शासन व्यवस्था लोगों के जीवन को उन्नत बनाने में असफल रही है। दो दशक अमेरिका में रहने के बाद वह अपने अनुभवों से बताते हैं कि अमेरिका की प्रेसीडेंशियल शासन व्यवस्था भारत के लिए बेहतर विकल्प साबित हो सकती है। एक वैकल्पिक शासन व्यवस्था की संभावना तर्कों के साथ तलाशती इस पुस्तक को पढ़ना सुखद अनुभव है।
ह्वाई इंडिया नीड्स द प्रेसीडेंशियल सिस्टम, भानू धमीजा, हार्पर कोलिंस पब्लिशर्स, मूल्य- 550 रुपये।


अस्मिता का संकट
कविता भाटिया की यह पुस्तक साहित्यिक आलोचना होते हुए भी समसामयिक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्नों पर जिस व्यापक दायरे में विचार करती है, उसमें न तो राजनीति बची रहती है, न आर्थिकी। उनका मानना है कि वर्तमान जीवन संघर्षों का जीवन है, जिस पर धर्म, राजनीति, सामाजिक-औद्योगिक तंत्र, संचार माध्यमों का वर्चस्व, वैश्विक अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण आदि का असामान्य दबाव है। ऐसे में मनुष्य की अस्मिता का सवाल भी अत्यंत जटिल हो उठा है। लेखिका बतलाती हैं कि अस्मिता का प्रश्न वस्तुत: संकट की प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। समय के साथ-साथ संकटों का स्वरूप बदलता गया है, परिस्थितियां बदली हैं, लेकिन मनुष्य की स्वतंत्रता की आकांक्षा, अस्मिता को बचाए रखने की चिर जिजीविषा कभी खत्म नहीं हुई है। अपने कथ्य का प्रमाण वह समकालीन कविता के भीतर से प्रस्तुत करती हैं। वास्तव में लेखिका साहित्य को उसकी सामाजिक उपादेयता के संदर्भ में प्रासंगिक मानती हैं। इसलिए वह अस्मिता के छद्म स्वरूपों से सचेत भी करती हैं, जो साहित्य की स्वायत्तता का भ्रम भले पैदा करते हों, मगर मनुष्य के जीवन के लिए किसी रूप में संबल नहीं बन पाते।
अस्मिता बोध के विविध आयाम, कविता भाटिया, सामयिक बुक्स, नई दिल्ली, मूल्य- 495 रुपये।

फिराक को देखा था
रघुपति सहाय 'फिरा़क' उर्फ फिरा़क गोरखपुरी का व्यक्तित्व बहुआयामी था और वह बेलाग अपनी बात रखते थे। वह जीते जी किंवदंती बन गए थे। जिन लोगों को उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला, उनके पास फिराक के अनेक किस्से हैं। रामजी राय ऐसे ही एक लेखक हैं, जिन्होंने फिरा़क को करीब से देखा-सुना है। इस किताब में उन्होंने फिरा़क के संस्मरण के साथ-साथ उनकी शायरी के उल्लेखनीय पहलुओं पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी की है। राय ने उन्हें हैरतअंगेज, हाजिरजवाब, दिलचस्प, सबसे बराबरी के स्तर पर आकर बात करने वाला डेमोक्रेटिक मिजाज वाला शख्स बताया है। साथ ही उन्हें हिंदी-उर्दू का दोआब कहा है। राय ने संस्मरणों के हवाले से फिरा़क के 'हिंदी विरोध', समलैंगिकता, संस्कृति, क्रांति आदि के बारे में भी दिलचस्प जानकारियां दी हैं।   

यादगारे फिरा़क, रामजी राय, सांस्कृतिक संकुल, इलाहाबाद, मूल्य- 30 रुपये।

आलोचक दिनकर
रामधारी सिंह 'दिनकर' एक कवि के रूप में जितने महत्वपूर्ण हैं, एक गद्यकार के रूप में भी उनकी अहमियत उससे कम नहीं। 'संस्कृति के चार अध्याय' हो या 'शुद्ध कविता की खोज'- इन कृतियों में दिनकर के सजग चिंतक रूप का दर्शन करना कठिन नहीं है। वस्तुत: दिनकर के समस्त लेखन में उनकी चिंतन प्रक्रिया की स्पष्ट छाप है, जिसके सुनियोजित अध्ययन-विश्लेषण की कोशिश, खासकर उनके आलोचनात्मक गद्य के संदर्भ में, प्रस्तुत पुस्तक में की गई है। दिनकर एक ऐसे कवि, आलोचक थे, जिन्होने हिंदी साहित्य की अनेक रचनात्मक-आलोचनात्मक बहस-मुबाहिसों में न सिर्फ हस्तक्षेप किया, बल्कि महत्वपूर्ण योगदान किया। उनकी आलोचना में शास्त्रीयता से अधिक अनौपचारिकता है, जिससे वह अधिक आत्मीय लगती है।
नवजागरण: सृजनशीलता और दिनकर का आलोचनात्मक साहित्य, डॉ. जयपाल सिंह, शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य- 695 रुपये।    धर्मेंद्र सुशांत

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