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मनन शक्ति को जगाती है साधना

व्यावहारिक क्षेत्र में कौन-सी चीज कितनी सार्थक है, इसका विचार विवेकशील मन ही कर सकता है। खाना-पीना और शांति से रहना भी तो अंतत: मानसिक तृप्ति के लिए ही होता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि तर्क शास्त्र...

मनन शक्ति को जगाती है साधना
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 05 Oct 2015 09:15 PM
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व्यावहारिक क्षेत्र में कौन-सी चीज कितनी सार्थक है, इसका विचार विवेकशील मन ही कर सकता है। खाना-पीना और शांति से रहना भी तो अंतत: मानसिक तृप्ति के लिए ही होता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि तर्क शास्त्र भी मननशीलता के ऊपर ही निर्भर है, चाहे किसी मतवाद की बातें ही क्यों न लें। वर्तमान परिवेश में मनुष्य के मन की परिस्थिति को ध्यान में रख कर एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही एक समुचित दर्शन दे सकता है। अर्थात नियमित साधना के माध्यम से आगे बढ़ते हुए ही मनुष्य आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आनंद मार्ग ऐसा ही एक दर्शन है।

इसलिए अध्यात्म विद्या की आराधना में जो सुख मिलेगा, वह नित्य सुख है और उसे ही आनंद कहते हैं। अनित्य वस्तुओं से आनंद नहीं मिलता। अनित्य वस्तुएं आएंगी, कभी हंसाएंगी तो कभी रुलाएंगी। अनित्य जगत में चाहे कितनी भी प्रिय वस्तुएं पाओ, एक दिन तुम्हें कंगाल बना कर और रुला कर चली जाएंगी। किंतु नित्य वस्तु तुम्हें कभी नहीं रुलाएगी। वह नित्य है, अपरिणामी है और अपरिवर्तनशील सत्ता है।

यम कहते हैं- हे नचिकेता, तुम्हारे सामने ब्रह्मधाम का द्वार खुल गया है। जिसने विनाशशील तथा विनाशरहित दोनों प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान अर्जन किया है, मननशीलता की वृद्धि के साथ-साथ वह जीव खंड सुख से वृहत् सुख की ओर अर्थात् आनंद की ओर अग्रसर होता है। उस समय वह उतना ही शरीरगत सुख छोड़ कर मानसिक सूक्ष्म सुख की ओर झुकता है। देश प्रेम या ऐसे ही अनेक सूक्ष्म सुखों के लिए मनुष्य अपनी देह को उत्सर्ग करने में जरा भी नहीं हिचकता। ये मनुष्य के उन्नत मन का लक्षण है। अष्टांग योग की साधना के द्वारा साधक धीरे-धीरे अपनी छिपी हुई मनन शक्ति को जगा सकता है और उस उन्नत  मन की सहायता से अंत में आत्मिक स्थिति पा सकता है। इस आत्मिक स्थिति में ही उसे सच्चा आनंद मिल सकता है। इसीलिए कहता हूं कि उपयुक्त आचार्य के पास ब्रह्मविद्या सीख लो। प्रात ज्ञान के द्वारा यह नहीं मिल पाएगा, मोटी-मोटी पोथियां पढ़ कर ब्रह्मज्ञान का अर्जन नहीं होता। निष्ठा जगाने की इच्छा करो, इच्छा करने से ही निष्ठा जगेगी और निष्ठा जग जाने से भगवत-कृपा अवश्य होगी।

इस भगवत कृपा का तनिक मात्र पा लेने पर भी मनुष्य का अपने स्थूल शरीर से 'मैं' पन का बोध हट जाता है, नित्य-अनित्य विवेक जागृत होता है और यह विवेक ही उसे ब्रह्मस्वरूप में प्रतिष्ठित करता है। याद रखो, साधना मार्ग में सबसे बड़ी बात है निष्ठा। निष्ठा रहे तो भगवत कृपा अवश्य होगी, उसे होना ही पड़ेगा। देहगत आसक्ति छोड़ना बहुत कठिन है। स्थूल देह की देखभाल करना और उसके प्रति आसक्त होकर रहना- ये दोनों एक बात नहीं हैं, किन्तु जहां स्थूल देह की रक्षा व्यवस्था में उलट-पुलट नहीं हो गया है, वहां भी मनुष्य यदि अपनी देह के मोह में बंधा रहता है तो आश्चर्य की बात है।

मान लो भूकम्प के समय मां अपने बच्चे को सोता छोड़ कर घर से बाहर भागती है। आधे रास्ते में उसे अपनी संतान की याद आती है, तब वह फिर उसकी रक्षा के लिए भीतर घुसती है। अपनी संतान की ऐसी याद, जिस माता को जितनी जल्दी आती है, उससे समझना होगा कि उस माता को अपनी देहगत आसक्ति उतनी कम है। जो इस आसक्ति से ऊपर उठ चुकी है, वह पहले ही अपनी संतान की बात सोचेगी और उसे अपने साथ लेकर ही घर से बाहर निकलेगी। यथोपयुक्त साधना के द्वारा ही मनुष्य इस देहगत आसक्ति तथा सब तरह की आसक्तियों को जीत सकता है। अष्टांग योग साधना द्वारा जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप को जगा सका है, उसकी सब तरह की आसक्तियों के बंधन छिन्न हो जाने को बाध्य हो जाते हैं और वह नियमित साधना के द्वारा परम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है।   
प्रस्तुति: आचार्य दिव्यचेतनानंद

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