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कृष्ण को प्रिय कदम्ब और मुरली!

पूरे मधुबन में कदम्ब का वृक्ष कृष्ण को बहुत प्रिय था। यह अकारण न था। इसकी कई विशिष्टताएं हैं। यह पेड़ बहुत जल्दी बढ़ता है। वर्षा ऋतु में इस पर फूल आते हैं। इसके डंठल पर पीले गुच्छे के रूप में बहुत...

कृष्ण को प्रिय कदम्ब और मुरली!
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 31 Aug 2015 09:02 PM
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पूरे मधुबन में कदम्ब का वृक्ष कृष्ण को बहुत प्रिय था। यह अकारण न था। इसकी कई विशिष्टताएं हैं। यह पेड़ बहुत जल्दी बढ़ता है। वर्षा ऋतु में इस पर फूल आते हैं। इसके डंठल पर पीले गुच्छे के रूप में बहुत छोटे और सुगंधमय फूल होते हैं। कहा जाता है कि बादलों की गर्जना से इसके फूल अचानक खिल उठते हैं। इसके फूलों में से इत्र निकाला जाता है।

इसके खट्टे-मीठे फलों का प्रयोग अचार और चटनी के लिए किया जाता है। इनसे औषधि भी बनती है। कदम्ब के पेड़ से एक प्रकार का द्रव निकलता है, जिसे 'कादम्बरी' कहा जाता है। मिथकों में बलराम, शेषनाग, स्कंद के प्रिय मादक पेय के रूप में इसका उल्लेख है। कृष्ण का प्रिय वृक्ष होने के नाते जन्माष्टमी को झूला सजाने में इसके फूल भी लगाए जाते हैं।

तो क्या केवल भौतिक उपयोगिता के कारण यह वृक्ष कृष्ण की क्रीड़ास्थली का अंग बना? क्या एक ही डंठल पर पुष्पों का समूह एक ब्रह्म से अनेक जीवात्माओं के अभिन्न संबंध को प्रकट नहीं करता? ब्रह्म ने एक से अनेक होने की प्रक्रिया में जीवों के रूप में अपना विस्तार किया। इसी मूल एकता के भाव का प्रतीक है कदम्ब।  मधु-भरी सुगंध में सराबोर, आनंदित कृष्ण सभी को आनन्दमग्न कर देते हैं। इसीलिए तो वे माधव भी कहलाए।

व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'क' का अर्थ प्रजापति होता है। सृष्टि का सृजन करने के लिए वे 'उपस्थ इंद्रिय' (जननेंद्रिय) में निवास करते हैं। परंतु इसी इंद्रिय का दमन भी कर सकते हैं। अत: 'कदम्ब' जितेंद्रिय और तत्त्वज्ञानी का भी प्रतीक है। इस प्रकार कदम्ब और कृष्ण का संबंध सामान्य नहीं। 'कदम्ब' की छाया में खड़े कृष्ण इंद्रियजित हैं, सृष्टि के सर्जक, जगत् के पालक हैं।

मानव अवतार रूप में राधा और गोपियों के साथ उनका संबंध काम से परे है। वंशी कृष्ण के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है। 'मुर' नामक दैत्य का संहार करने वाले 'मुरारी' के अधरों पर वंशी विभूषित रहती है। बांसुरी की तान अमृत बरसाती है। जीव उसी के पोषण से ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाता है। फिर कोई बाधा उसे रोक नहीं पाती। कृष्ण का वेणुवादन सृष्टि के मूल तत्त्व 'नाद' का भी प्रतीक है। इसके सात छिद्रों में से निकलता नाद जीव को ईश्वर की ओर ले जाता है।

यह सात सोपान हैं, जो आरोहण और अवरोहण से अंतत: परमपद की प्राप्ति करवाते हैं। इसके अतिरिक्त बांस की बनी बांसुरी मनुष्य के मन का भी प्रतीक है। अंदर से खोखली वंशी में से जैसे मधुर स्वर निकलता है, इसी तरह जब हमारा मन विकारों से रिक्त हो जाता है तो उसमें से ईश्वरीय नाद सुनाई पड़ता है।

'वंशी' गोपियों की ईर्ष्या का पात्र बनी।  गिरिवरधारी कृष्ण दास की भांति उसकी सेवा में गर्दन एक ओर झुका कर, एक पैर पर खड़े-खड़े टेढ़े हुए जाते हैं। मुरली छिपा ली जाती है। पर 'रास' के समय यही वंशी ध्वनि सुन कर वे घर-द्वार छोड़ अस्त-व्यस्त वेशभूषा में बेसुध-सी भागी चली आती हैं। ऐसे अचूक प्रभाव वाली वेणु वास्तव में भगवान के अनुग्रह का ही विस्तार है।

वनविहारी नंद नंदन गले में वैजयन्ती माला पहनते हैं। यह माला पंचरंगी है। पांच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का चिह्न। भक्तों ने 'कृष्ण' के व्यक्तित्व में कर्षक के तत्त्व का गुणगान किया है। स्वामी अखंडानंद सरस्वती के अनुसार 'कृ' में अंकुश है, जो एक बार हृदय में गड़ गया तो भक्त का सब कुछ खींच कर अपना बना लेता है। इसीलिए पंढरीनाथ ने पथिकों को सावधान किया था कि भीमा नदी के किनारे मत जाना, वहां तमाल वृक्ष-सा काला नौजवान है। इतना धूर्त कि बिना छुए ही हृदय की पूंजी छीन लेता है।

शरद पूर्णिमा की रात्रि में कृष्ण प्रत्येक गोपी के पास विद्यमान होते हैं। मंडलाकार नृत्य का कोई आदि-अंत नहीं। नित्य, शाश्वत आनंद की स्थिति को पहुंचाने वाला यह महारास- वेदों में वर्णित नक्षत्ररास से भिन्न नहीं है। सूर्य को केंद्र में रख कर ज्योति पिंड नियमित गति से अपनी-अपनी धुरी पर परिक्रमा करते हैं। ब्रजभूमि के निधि वन में हुआ रास आकाशीय रास की प्रतीक है।

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