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बचपन में भी बीमार मन

स्कूल-कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं में मानसिक परेशानियां तेजी से बढ़ रही हैं। थेरेपी जरूरी है, पर सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं, अभिभावकों के लिए भी। कम उम्र में बढ़ रहे डिप्रेशन के खतरों के बारे में...

बचपन में भी बीमार मन
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 30 Apr 2015 10:30 PM
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स्कूल-कॉलेज जाने वाले छात्र-छात्राओं में मानसिक परेशानियां तेजी से बढ़ रही हैं। थेरेपी जरूरी है, पर सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं, अभिभावकों के लिए भी। कम उम्र में बढ़ रहे डिप्रेशन के खतरों के बारे में बता रही हैं लता श्रीनिवासन

पहली नजर में वह भी अपनी कक्षा के अन्य नौ वर्ष के बच्चों के समान ही लगेगी, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। वह अलग है, उसके मूड में तेजी से उतार-चढ़ाव होता है और वह लगातार रोती रहती है। फास्ट फूड की शौकीन, खाने-पीने का कोई निश्चित समय नहीं, बार-बार अकारण पेट दर्द की शिकायत और स्कूल जाने से मना करना। नौ वर्ष की उम्र में उस लड़की में अवसाद (डिप्रेशन) के लक्षण पाए गए हैं।

चेन्नई में अभ्यास कर रही मनोवैज्ञानिक डॉ. मिनी राव कहती हैं, ‘मोटापे के शिकार ऐसे बच्चों के लिए चीजें आसान नहीं होतीं। कक्षा के बच्चे उन्हें चिढ़ाते हैं, जिसे ये बच्चे अक्सर चुपचाप सहते रहते हैं। रोजमर्रा की इस यातना को वे अभिभावकों के समक्ष नहीं रख पाते। वे डरते हैं कि शायद उनका ऐसा करना समस्या को बढ़ा देगा और कक्षा के बच्चे फिर कभी उनसे बात नहीं करेंगे।’

ऐसा नहीं है कि केवल मोटे या फिर कक्षा में तंग किए जाने वाले बच्चे ही मनोचिकित्सकों व मनोवैज्ञानिकों के पास बेचैनी और डिप्रेशन के उपचार के लिए जाते हैं। माता-पिता की अपेक्षाएं, परीक्षा में असफलता और मानसिक समस्याएं जैसे कई कारण हैं, जिन्हें बच्चे अकेले झेलते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार मानसिक परेशानी झेल रहे 50% लोगों में इस संबंध में पहला लक्षण 14 वर्ष की उम्र तक सामने नजर आ जाता है। शुरुआत में ही उपचार प्रारंभ होने पर उनकी  समस्या को बढ़ने से रोका जा सकता है और आत्महत्या के मामलों में कमी लायी जा सकती है।  

क्यों बढ़ रही हैं समस्याएं
सर गंगाराम हॉस्पिटल में बाल व किशोर मनोरोग विशेषज्ञ व दिल्ली साइकाइट्री सोसायटी के अध्यक्ष डॉ. दीपक गुप्ता कहते हैं, ‘क्लीनिकल स्तर पर कहें तो पहले की तुलना में अभिभावक डिप्रेशन पीड़ित बच्चों के उपचार के प्रति गंभीर हुए हैं। हालांकि यह भी सही है कि अभिभावक नहीं जानते कि बच्चों में निराशा घर कर रही है। बच्चों की मानसिक समस्याओं के पीछे जैविक-मानसिक व सामाजिक तीनों ही कारणों की भूमिका देखने को मिल रही है। जैविक कारणों में आनुवंशिक व परिवार में किसी अन्य सदस्य को डिप्रेशन होने जैसे कारण आते हैं। मनोवैज्ञानिक कारणों में, बच्चा स्वयं के बारे में क्या सोचता है, घटना व परिस्थिति का बच्चे पर क्या असर पड़ता है आदि और सामाजिक कारणों में पीयर गु्रप और स्कूल से बाहर के परिवेश का असर शामिल किया जाता है। लंबे समय तक बच्चे का चुपचाप रहते हुए समस्याओं से जूझना या फिर अभिभावकों द्वारा बच्चे की आधारभूत जरूरतों से समझौता करना उनकी मानसिक स्थिति पर बुरा असर डालता है।’

बच्चों में डिप्रेशन के प्रमुख कारणों में अभिभावकों की अत्यधिक अपेक्षाएं, माता-पिता में आपसी मतभेद, अलगाव, पढ़ाई का दबाव, स्कूल में बदलाव, दोस्तों से लड़ाई, यौन उत्पीड़न और दूसरे बच्चों द्वारा चिढ़ाया जाना प्रमुख रूप से शामिल किए जाते हैं। 
मुंबई स्थित पीडी हिंदुजा नेशनल हॉस्पिटल एंड मेडिकल रिसर्च सेंटर के कंसल्टेंट साइकाइट्रिस्ट वसंत मुंद्रा कहते हैं, ‘अभिभावकों को यह ध्यान रखने की जरूरत है कि छोटे और बड़ों में डिप्रेशन के लक्षण अलग-अलग होते हैं। दोस्तों से अलग होना, कक्षा, यहां तक कि स्कूल बस का बदलना बच्चों में बेचैनी व डिप्रेशन का कारण बन सकता है।’

अभिभावकों की भूमिका है महत्वपूर्ण
’ यह पता लगने पर कि बच्चा किसी समस्या से जूझ रहा है, अभिभावकों को कुछ सप्ताह तक बच्चे के लक्षणों का अध्ययन करना चाहिए। वे बच्चे में आ रहे  बदलावों पर नजर रखें। बच्चे के परिवेश या व्यवहार में आए बदलाव को समझने के लिए बच्चे के दोस्त व शिक्षक से बात करें।

’यदि बच्चा अभिभावक से खुल कर बात नहीं कर रहा है, दूसरे पक्षों से बात करके भी कुछ समझ नहीं आ रहा है तो मनोरोग विशेषज्ञों से बात करने में देर न करें।
डॉ. गुप्ता के अनुसार, ‘सिर्फ बच्चों को ही काउंसलिंग की जरूरत नहीं होती, अभिभावकों की काउंसलिंग भी जरूरी होती है। कई बार बच्चे व अभिभावक दोनों को साथ बिठा कर बात की जाती है, पर ऐसा करने से पहले बच्चे से जाना जाता है कि वह अभिभावक के सामने बात करने में सहज है या नहीं। आमतौर पर लड़कियों को अभिभावक महिला विशेषज्ञ के पास ही ले जाना पसंद करते हैं।’

मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार अभिभावकों को उपचार की प्रक्रिया से जोड़ना जरूरी होता है, क्योंकि कई बार उन्हें पता ही नहीं होता कि बच्चे को कोई समस्या है और उनका नजरिया बच्चे की समस्या को बढ़ा रहा है। डॉ. मिनी राव कहती हैं, ‘अभिभावक चाहते हैं कि सभी क्षेत्रों में बच्चे का प्रदर्शन बेहतर हो। कई बार अपेक्षाओं का अधिक दबाव भी बच्चों में हीनता का भाव ले आता है। दूसरों की अपेक्षाओं को झेलने पर नाकामयाब रहना उन्हें डिप्रेशन का शिकार बना देता है। उनमें आत्महत्या तक के विचार पनपने लगते हैं।’ 
आर्थिक मजबूरियां
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े उपचार जीवन बीमा में शामिल नहीं होते। डॉ. राव के अनुसार, ‘एंटी डिप्रेसेंट दवाएं महंगी होती हैं और कई बार उन्हें लंबे समय तक लेना होता है। यदि मनोरोगों को भी बीमा में शामिल कर लिया जाए तो इस संबंध में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है।’

मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार इलाज लंबा होने के कारण अक्सर लोग इससे बचते हैं। डॉक्टर के अनुभव के आधार पर, एक बार जाने के 500 रुपये से हजारों रुपये तक  खर्च करने पड़ते हैं। कुछ मामलों में परिणाम सामने आने में समय लगता है और थेरेपी व दवाएं एक साथ चलती हैं।

बच्चों में पहचानें एंग्जाइटी व डिप्रेशन के लक्षण
’मूड में तेजी से उतार-चढ़ाव आना (चिड़चिड़ाना व लगातार रोना)। बात-बात पर बहुत गुस्सा आना।
’अकारण पेट दर्द व अन्य परेशानियों की बात करना।
’दूसरों के साथ नहीं घुलना। हीनता के भाव रखना। 
’स्कूल जाने से मना करना।
’नींद की प्रक्रिया और खाने के तरीकों  में बदलाव आना।
’पढ़ाई के तौर-तरीके में बदलाव।

माता-पिता बच्चों की मानसिक समस्याओं को छुपा कर रखना चाहते हैं। यह अच्छी बात है कि वे बच्चों की मानसिक व व्यवहार संबंधी परेशानियों के बारे में बात करने के लिए पहले से अधिक आगे आ रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि वे परेशानी का समाधान तुरंत चाहते हैं। कुछ अभिभावकों का इस तरह के उपचार पर विश्वास ही नहीं होता। कुछ के लिए विशेषज्ञों की कमी, स्थान की दूरी और आर्थिक कारण बड़ी बाधा हैं। कुछ अभिभावक चाहते हैं कि डॉक्टर दवा लिख कर दे दें, ताकि उन्हें बार-बार आना न पड़े।
- डॉ. दीपक गुप्ता, बाल व मनोरोग विशेषज्ञ

क्या कहते हैं आंकड़े
2891 के करीब 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों ने 2013 में आत्महत्या की। परीक्षा परिणाम आत्महत्या का एक प्रमुख कारण रहा। 

2738 से अधिक 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों ने वर्ष 2012 में आत्महत्या की। मानसिक परेशानी आत्महत्या के प्रमुख कारण के रूप में सामने आई।
2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘हेल्थ फॉर द वर्ल्ड एडॉलेसेंट्स’ नामक रिपोर्ट में 10 से 19 आयु वर्ग के लड़के-लड़कियों में विभिन्न रोग और अक्षमता का कारण डिप्रेशन बताया गया है।  

अभिभावक क्या करें
’अपने बच्चों को लचीला रहना सिखाएं। उन्हें गलतियां करने की छूट दें। अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कार दें और महत्वपूर्ण निर्णयों में उन्हें शामिल करें। ऐसा करना उनमें आत्मविश्वास की भावना विकसित करेगा।

’बच्चों के प्रति अपनी अपेक्षाओं में व्यावहारिक रुख अपनाएं। लक्ष्य तय करते समय बच्चे की अपेक्षाओं का ध्यान रखें। दूसरों से तुलना न करें। बच्चों के साथ नम्रता से पेश आएं और उन्हें स्वीकार करते हुए नई चीजें सीखने में उनकी मदद करें।

’बच्चे को सजा न दें। गुस्से से पेश आने की तकनीक का बार-बार इस्तेमाल सही नहीं। अपनी जिद या अहंकार को पीछे रख कर उनसे व्यवहार करें।
’बच्चों को अपनी भावनाएं खुल कर व्यक्त करने के लिए प्रेरित करें। इस दौरान उनकी बातों की आलोचना न करें या फिर अपने निर्णय न सुनाएं।
’आवश्यकता पड़ने पर बच्चों के काउंसलर से मिलने में भी हिचकिचाएं नहीं। शुरुआती उपचार बच्चे की किशोरावस्था को प्रभावित होने से बचाएगा।

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