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डिप्रेशन : जानें खतरे की सीमा

उदासी, फिर निराशा और फिर अवसाद। यह छोटी-सी भावना गहरा जाए तो जानलेवा हो जाती है। भारत जैसा खुशहाली में यकीन रखने वाला देश अवसाद के मामले में नंबर दो पर आ पहुंचा है। सचेत हो जाइए। समय रहते इससे...

डिप्रेशन : जानें खतरे की सीमा
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 22 Dec 2016 11:39 PM
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उदासी, फिर निराशा और फिर अवसाद। यह छोटी-सी भावना गहरा जाए तो जानलेवा हो जाती है। भारत जैसा खुशहाली में यकीन रखने वाला देश अवसाद के मामले में नंबर दो पर आ पहुंचा है। सचेत हो जाइए। समय रहते इससे छुटकारा पाना ही ठीक है। जितनी सतही यह समस्या लगती है, उसकी जड़ें उतनी ही गहरी बैठ जाती हैं, बता रही हैं प्रतिमा पांडेय

निराश ही तो है, कुछ दिन में अपने-आप मन बहल जाएगा। सब ठीक हो जाएगा...। हम ऐसा ही तो सोचते हैं, जब कुछ दिनों से घर-परिवार में हमें कोई चुप-चुप, अलसाया सा, चिड़चिड़ाया सा दिखता है। हम वक्त को डॉक्टर मान कर निश्चिंत हो जाते हैं। शायद हम भी नहीं जानते कि ऐसे में क्या करना चाहिए। पता ही नहीं होता कि वह व्यक्ति मानसिक तनाव की उस दहलीज पर है, जहां से तनाव निराशा और फिर अवसाद की जहरीली बेल में तब्दील हो सकता है। फिर ये जहरीली बेल ना सिर्फ उस शिकार मन को खोखला कर देती है, बल्कि उसके तन पर भी असर करने लगती है। अगर इसे जड़ से ना उखाड़ा जाए तो जानलेवा भी हो सकती है।

ऐसे में व्यक्ति का सामाजिक समायोजन बिगड़ने लगता है। तरक्की छोड़िए, सामान्य कामों को पूरा करने लायक आत्म-विश्वास और प्रेरणा तक नहीं बचती। नतीजा, हार और रोग आसपास मंडराने लगते हैं। अंतत: एक हंसती-खेलती जिंदगी जागरूकता और सही उपचार के अभाव में अंधेरों में गुम हो जाती है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज ने 12 राज्यों में अवसादग्रस्त लोगों  पर एक सर्वे किया और पाया कि हर 20 में से एक भारतीय अवसादग्रस्त है। सर्वे में यह भी कहा गया कि इस तरह की समस्याओं के सूत्र आगे जाकर डायबिटीज और दिल की बीमारियों से मिलते हैं। 40-49 साल की महिलाओं और मेट्रो शहरों में रहने वाली महिलाओं में अवसाद के मामले ज्यादा हैं। इस सर्वे के मुताबिक  कुल बुजुर्गों में से 3.5 फीसदी अवसादग्रस्त हैं।

इस समस्या की कई परतें हैं। जैसे कि मेजर डिप्रेशन, जो गहन अवसाद की स्थिति है, जिसमें दवाई, कॉग्निटिव बिहेवियरल साइकोथेरेपी  और काउंसलिंग से निदान किया जाता है। वहीं डिस्थीमिया या क्रॉनिक डिप्रेशन, गहन नहीं होता, लेकिन कम से कम दो साल तक चलता है। इसमें कई बार मरीज को देख कर पता ही नहीं चलता कि वह डिप्रेशन में चल रहा है। वहीं एटिपिकल डिप्रेशन में जब-जब कोई अच्छी बात होती है, मरीज भी उबर जाता है, लेकिन फिर कुछ समय बाद अवसाद में आ जाता है। इसके साथ ही ज्यादा या कम नींद, अस्वीकार किए जाने के प्रति संवेदनशीलता, ओवरईटिंग और हाथ-पैरों में जकड़न या भारीपन महसूस होने के लक्षण भी होते हैं। यह बीमार व्यक्ति को भी हो सकता है और खुशहाल को भी। यह किसी भी आयुवर्ग के लोगों को हो सकता है। कुछ लोगों में मौसम के हिसाब से भी अवसाद के दौर आते हैं। सीजनल अफेक्टिव डिसॉर्डर-सैड (एसएडी) में साल में सर्दी या गर्मी के आने पर अवसाद घेरता है और वसंत या शरद के आने पर समाप्त हो जाता है। अमेरिका में इस तरह के डिप्रेशन के मरीज ज्यादा देखने को मिलते हैं।

क्यों बढ़ रहे हैं मामले?
अभी भी अवसाद के कारणों को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं हो पाया है, लेकिन कुछेक कारण स्पष्ट रूप से सामने आए हैं। अगर डिप्रेशन के मामलों को देखें तो पाएंगे कि उनमें से अधिकतर की कुछ भावनात्मक आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं और मरीज का उबरना मुश्किल हो जाता है। पहले की अपेक्षा अब स्वकेंद्रित होने की जीवनशैली है। इससे सामुदायिक भावना कम होती जा रही है, जो मानसिक रूप से असुरक्षा की भावना को जन्म दे रही है। माहौल ऐसा है कि तनाव ज्यादा हैं। अवसाद के प्रति जागरूकता भी पर्याप्त नहीं है। एक ट्विटर सर्वे में 50 फीसदी लोगों का कहना था कि वे अपने सहकर्मी को अपने डिप्रेशन के बारे में बताना पसंद नहीं करेंगे। अवसाद को इन सामाजिक रुढ़ियों के कारण अनदेखा किया जाता है, जो समस्या का रूप ले लेता है। डिप्रेशन के कारण आनुवंशिक, शारीरिक  और माहौल से जुड़े भी हो सकते हैं। अध्ययन बताते हैं कि अवसाद के मरीज के परिवार में किसी अन्य के भी डिप्रेशन की चपेट में आने की आशंका अन्य परिवारों की तुलना में छह गुना ज्यादा होती है।

न्यूरोट्रांसमिटर्स बना सकते हैं अवसाद
कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि अवसाद का आधार मस्तिष्क के संदेशों को अंगों तक पहुंचाने वाले न्यूरोट्रांसमिटर्स, जैसे कि सेरोटोनिन, में आई असामान्यता भी होती है। सेरोटोनिन अवसाद के मामले में काफी महत्वपूर्ण न्यूरोट्रांसमिटर है। यहां तक कि महिलाओं में एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन भी अवसाद में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं।
दवाइयां : बहुत सी दवाएं भी हैं, जो अवसाद पैदा करती हैं। ये गैस, हाईबीपी, कब्ज, पार्किन्सन बीमारी, सूजन जैसी सामान्य समस्याएं भी हो सकती हैं।

जीवनशैली में बदलाव कर सकता है मदद
व्यायाम और योग: थोड़ी देर के लिए या फिर एक निश्चित अवधि तक  एरोबिक जैसे व्यायाम करने से शरीर में ऐसे केमिकल्स के स्राव तेज हो जाते हैं, जो डिप्रेशन कम करने में मदद करते हैं। विभिन्न योगासनों, प्राणायाम आदि से मूड संभालने में मदद मिलती है। ध्यान योग भी सहायक है। 
सामाजिकता: अवसाद को रोकने और उसके उपचार में अन्य लोगों से सहायता मिलना बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। ये लोग रिश्तेदार, दोस्त या फिर आस-पड़ोस के भी हो सकते हैं। एक मजबूत सामाजिक दायरा होना बहुत जरूरी है।

कुछ बीमारियां, जो लाती हैं अवसाद
- गंभीर शारीरिक समस्याएं, जो प्राणघातक हों या कि उनसे पूरा जीवन प्रभावित हो रहा हो, जैसे डायबिटीज, में रोगी अवसादग्रस्त भी हो सकता है।
- हाइपोथाइरॉएडिज्म, जिसमें थाइरॉएड ग्रंथि हार्मोन का स्राव कम करती है, में अवसाद  पनपने के मामले भी देखे गए हैं।
- विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि डिप्रेशन का संबंध भयंकर दर्द की समस्याओं से भी होता है। जैसे कि तनाव में होने वाला सिरदर्द, माइग्रेन, आर्थाइटिस, फाइब्रोमाएल्जिया आदि।
- अगर ब्रेन अटैक हुआ है, दिल का दौरा पड़ा है, तो भी अवसादग्रस्त हो सकते हैं।

जीवन और रिश्ते हो जाते हैं बेहाल
- अगर अभिभावकों में से कोई भी अवसादग्रस्त है तो बच्चों को भी अवसाद घेर सकता है।
- अवसाद से करियर भी प्रभावित होता है। अवसादग्रस्त लोगों को बेरोजगारी और कम आय की समस्या की आशंका होती है।
- अवसादग्रस्त लोगों की एल्कोहल और ड्रग के आदी होने की आशंका बढ़ जाती है। डिप्रेशन के कई मरीजों में सिगरेट पीने की आदत भी पनप जाती है। निकोटिन पर निर्भरता बढ़ जाती है।

खुद से पूछें कुछ प्रश्न
- क्या लगभग हर दिन उत्साह में कमी महसूस होती है?
- क्या लगभग हर दिन रोजमर्रा के अधिकतर कामों में कोई रुचि नहीं होती?
- क्या मुझे कोई भी चीज मुश्किल से प्रेरित कर पा रही है?
- क्या आसान काम करने में भी बहुत प्रयास करना पड़ रहा है?
- क्या मैं पहले तो एकाग्र ना हो पाने के कारण कोई काम टाल देता हूं और फिर बार-बार उसी के बारे में सोचता रहता हूं?
- क्या मुझे खुद की अयोग्यता, अपराधबोध से जुड़े निराशावादी विचार आते हैं और अपने को कमतर करके आंकता हूं?
- क्या बार-बार मृत्यु या आत्म -हत्या जैसे विचार आ रहे हैं?
- क्या हर दिन भूख की कमी या फिर ज्यादा भूख लग रही है?

डिप्रेशन की जांच
डिप्रेशन का पता लगाने के लिए टेस्ट से ज्यादा मरीज के इंटरव्यू कारगर देखे गए हैं। कई मनोवैज्ञानिक टेस्ट भी हैं, जिन्हें मनोवैज्ञानिक ही आपसे करवाएगा। ऑनलाइन भी कुछ टेस्ट उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी विश्वसनीयता के बारे में कहा नहीं जा सकता।

क्या हैं लक्षण
अवसादग्रस्त व्यक्ति में निराशा, चिड़चिड़ाहट, प्रसन्नता का अभाव, भूख और वजन का कम या ज्यादा हो जाना, ऊर्जापूर्ण ना रहना, मन उखड़ा रहना, थकान, अनिद्रा या बहुत ज्यादा सोना, खुद के किसी काम ना आने की भावना का पनपना या फिर अपराधबोध, एकाग्र होकर काम न कर पाना और कभी-कभी मृत्यु या आत्महत्या जैसे विचार आना जैसे लक्षण आम तौर पर लगभग दो-तीन हफ्ते तक चलते हैं। इन लक्षणों की पहचान में यह भी देखना जरूरी होता है कि कहीं ये किसी दवाई या किसी तात्कालिक दुख के कारण तो नहीं हैं। लेकिन हर हाल में लंबे समय तक ऐसे लक्षण हों तो मनोवैज्ञानिक परामर्श लेना उचित होगा। अध्ययनों की मानें तो घोर अवसाद के दौर बीस हफ्तों जितने लंबे भी हो सकते हैं। बच्चों में उदासी, चिड़चिड़ाहट, पसंद के कामों में अरुचि, सिर दर्द, अनिद्रा, थकान जैसे लक्षणों में यह अभिव्यक्त हो सकता है।

क्या होता है इलाज
डिप्रेशन के इलाज में कॉग्निटिव बिहेवियरल साइकोथेरेपी और गंभीर मामलों में दवाओं की भी जरूरत पड़ती है। मनोवैज्ञानिक और साइकियाट्रिस्ट इसके इलाज में अहम भूमिका निभाते हैं। इसका इलाज लंबी अवधि तक चल सकता है। यह मरीज की स्थिति पर निर्भर करता है।

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