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पूजा है भीतर की शक्ति का बोध

अंतर के संयम के बिना बाहर का संयम टिकाऊ नहीं होता। और एक बात, नियमित व्यायाम से जिस प्रकार स्वास्थ्य उन्नत होता है, उसी प्रकार नियमित साधना से सद्वृत्ति का उन्मेष और रिपु का नाश होता है। साधना का...

पूजा है भीतर की शक्ति का बोध
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 18 Jan 2016 08:49 PM
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अंतर के संयम के बिना बाहर का संयम टिकाऊ नहीं होता। और एक बात, नियमित व्यायाम से जिस प्रकार स्वास्थ्य उन्नत होता है, उसी प्रकार नियमित साधना से सद्वृत्ति का उन्मेष और रिपु का नाश होता है। साधना का उद्देश्य दृष्टि है- (1) रिपु नाश- प्रधानत: काम, भय और स्वार्थपरता पर विजय पाना। (2) प्रीति, भक्ति, त्याग-बुद्धि आदि गुणों का विकास करना। काम पर विजय पाने का प्रमुख उपाय है स्त्रियों में मातृरूप का दर्शन और मातृभाव-आरोपण एवं नारी-स्वरूप (दुर्गा-काली) में भगवान का विचारणा। नारी-स्वरूप में भगवान या गुरु को विचारणे से मनुष्य सभी स्त्रियों में भगवान को देखना सीखते हैं। उस अवस्था में पहुंचने से मनुष्य निष्काम होता है। इसीलिए महाशक्ति को रूप देते हुए हमारे पूर्वजों ने स्त्री-रूप की कल्पना की थी। व्यावहारिक जीवन में सभी स्त्रियों को मातृरूप में विचारने पर मन धीरे-धीरे पवित्र और शुद्ध हो जाता है।

भक्ति और प्रेम के द्वारा मनुष्य नि:स्वार्थ हो जाता है। आदमी के मन में जब भी किसी व्यक्ति या आदर्श के प्रति प्रेम और भक्ति उपजती है, तब ठीक उसी अनुपात में स्वार्थपरता का ह्रास होता है। प्रेमाभ्यास से मनुष्य क्रमश: सभी संकीर्णताओं के ऊपर उठ कर विश्व में लीन हो सकता है। इसी प्रेम, भक्ति या श्रद्धा इनमें से किसी को भी चित्त में लाना आवश्यक है। मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा हो जाता है। जो अपने को ‘दुर्बल, पापी’  सोचते हैं, वह क्रमश: दुर्बल, पापी हो जाते हैं; जो अपने को शक्तिशाली और पवित्र मानते हैं, वह शक्तिशाली और पवित्र हो उठते हैं। ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’।

भय को जीतने का उपाय है शक्ति की साधना। दुर्गा और काली की मूर्तियां शक्ति का रूप विशेष हैं। शक्ति के जिस किसी रूप की मन ही मन कल्पना कर उसके समक्ष शक्ति के लिए प्रार्थना करने तथा उसके चरणों पर मन की दुर्बलता और मलिनता बलिस्वरूप चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान हो सकता है। हमारे अंदर अनंत शक्ति निहित है, उस शक्ति का बोध करना होगा। पूजा का उद्देश्य है- मन के भीतर की शक्ति का बोध करना। प्रतिदिन शक्ति-रूप को ध्यान में धर कर प्रार्थना करें और पंचेन्द्रियों एवं सभी रिपुओं की उसके चरणों में बलि चढ़ाएं।

पंचदीप का अर्थ है पंचेन्द्रिय। इस पंचेन्द्रिय की सहायता से मां की पूजा होती है। हमारे चक्षु हैं, तभी
धूप, गुग्गुल आदि सुगंधित वस्तुओं से पूजा करते हैं। बलि का अर्थ है रिपु-बलि-कारण, बकरा है काम का रूप-विशेष। साधना के द्वारा एक ओर रिपु का नाश करना है तो दूसरी ओर सद्वृत्ति का अनुशीलन करना है। रिपु का नाश होते ही हृदय दिव्य भाव से परिपूर्ण हो जाता है और दिव्य भाव के हृदय में उत्पन्न होते ही सब दुर्बलताएं तिरोहित हो जाती हैं। रोज ही संभव हो तो दोनों समय ऐसा ध्यान करो। कुछ दिन ध्यान करने के साथ-ही-साथ शक्ति मिलेगी, हृदय में शांति भी अनुभव करोगे।

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