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पहला मेहनताना मिला एक रुपया

मैंने जब एक बार उस्ताद जी के सारे इम्तिहानों को पास कर लिया, तो उसके बाद वह  मुझे बहुत प्यार करने लगे। मैं दिन भर उनकी सेवा करता और उनसे सीखता था। गुरु-शिष्य के बीच जो रिश्ता होना चाहिए, वह हम...

पहला मेहनताना मिला एक रुपया
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 04 Jun 2016 09:48 PM
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मैंने जब एक बार उस्ताद जी के सारे इम्तिहानों को पास कर लिया, तो उसके बाद वह  मुझे बहुत प्यार करने लगे। मैं दिन भर उनकी सेवा करता और उनसे सीखता था। गुरु-शिष्य के बीच जो रिश्ता होना चाहिए, वह हम निभाते थे। देखते-देखते कब आठ-नौ साल निकल गए, पता ही न चला। मैंने करीब नौ साल तक उस्ताद जी से शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सीखा। धीरे-धीरे उन्हें मेरी लगन और  काबिलियत पर भरोसा हो गया। मेरी गायकी और गायकी के अंदाज की चर्चा भी होने लगी। उस्ताद जी को इन बातों से बहुत खुशी होती। आज भी उन्हें याद करता हूं, तो आंखें नम हो आती हैं। मेरे कमरे में अब भी उनकी तस्वीर है। कई लोग उस्ताद जी को दबी जुबान में समझाते थे कि घर से बाहर के लड़के को सब कुछ नहीं बताया जाता, लेकिन उन्होंने मुझे अपनी सगी संतान की तरह सिखाया।

ऐसी कोई चीज नहीं थी, जो उन्होंने मुझे न बताई हो। उनके संगीत सिखाने में हद दर्जे की ईमानदारी थी। उन्होंने मुझे संगीत की अथाह दुनिया में सही रास्ते पर चलना सिखाया। मुझे याद है कि जब वह आखिरी सांसें ले रहे थे, तो उन्होंने मुझे पुकारा- छन्नू। मैं भागता हुआ गया और उनके सिर को अपनी गोद में रख लिया। कुछ ही क्षणों में उन्होंने देखते-देखते मेरी गोद में ही दम तोड़ दिया, उनके जनाजे को मैंने कंधा दिया। पिताजी और मां की अपेक्षाओं के साथ अब मुझ पर उस्ताद जी की अपेक्षाओं को भी पूरा करने की चुनौती थी। मैंने अपनी जिंदगी संगीत के नाम कर दी। उस्ताद जी के जाने के बाद मुझे ठाकुर जयदेव सिंह से सीखने का सौभाग्य भी मिला। वह भी संगीत के अद्भुत जानकार थे। उन्होंने मेरी कला को और तराशा।

जब हम मुजफ्परपुर में थे, तब का एक और किस्सा है। हुआ यूं कि हमारी गायकी के अभी कुछ साल ही बीते होंगे, जब चंपानगर के राजा कुमार श्यामानंद तक हमारी चर्चा पहुंची। उन्होंने खास तौर पर हमारा गाना सुना, उन्हें हमारी गायकी बहुत पसंद आई। उन्होंने पिताजी से कहा  कि छन्नू लाल को यहीं छोड़ दीजिए, हम उसको राजगायक बनाना चाहते हैं। लेकिन पिताजी मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने बहुत ही विनम्रता से कुमार श्यामानंद जी को मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वह मेरे बिना नहीं रह सकते, इसलिए वह मुझे राजगायक बनने के लिए वहां नहीं छोड़ सकते। इसके बाद पिताजी मुझे लेकर बनारस आ गए। अब हम काशी नगरी में थे, जहां संगीत के एक से बढ़कर एक दिग्गज रहते थे। लेकिन हमको सभी कलाकारों का बहुत प्यार मिला। उन दिनों की एक घटना मुझे हमेशा याद रहती है। हम सारनाथ में गा रहे थे।

हमारे साथ तबले पर संगत करने वाले का तबला अचानक फट गया। ऐसा लगा, जैसे किसी ने पूरे रस में बाधा डाल दी हो। मैंने माहौल की गंभीरता को समझते हुए वहीं बैठे-बैठे पूछा-कोई है, जो मेरे साथ ढोलक बजा सके। उस भीड़ में सुरजन सिंह नाम के एक कलाकार बैठे थे, उन्होंने ढोलक बजाने के लिए हामी भर दी। मैंने पूरी वही बंदिश गाई, जो तबले के साथ गाई जाती थी। हर कोई हैरान रह गया। बनारस में लोगों को संगीत की अच्छी समझ है। हर कोई इस बात पर ताज्जुब कर रहा था कि मैंने ढोलक की संगत पर कैसे निभा लिया? वह घटना मुझे हमेशा याद रहती है। मुझे आज भी एक रुपया का अपना पहला मेहनताना याद है, जो मुझे मानस की चौपाई गाने पर मिला था। बाद में तो मैं खूब चौपाई गाता रहा। बनारस में गीत-संगीत का माहौल था ही, गुरुजनों के आशीर्वाद और मेरी लगन का नतीजा था कि धीरे-धीरे शास्त्रीय संगीत की दुनिया में मेरा नाम होता चला गया। आकाशवाणी से लेकर देश के अलग-अलग शहरों में होने वाले सम्मेलनों से गायकी का न्योता आने लगा।

पिताजी जो चाहते थे, उसकी शुरुआत हो चुकी थी। कई बार मुझे यह भी लगता है कि शुरू में घर के माहौल में जो संगीत की शिक्षा मिली थी, उससे व्यावहारिक ज्ञान परिपक्व नहीं हुआ था। बाद में जब उस्ताद जी का आशीर्वाद मिला, तब कहीं जाकर मेरा ज्ञान परिपक्व हुआ। उस ज्ञान के जरिये अपनी पहचान बनाने में बहुत मदद मिली। उसके बाद जब पिताजी बनारस ले आए, तो यहां और भी कई नई-नई चीजें सुनने और सीखने को मिलीं। बनारस में बहुत से पुराने-पुराने कलाकार गाते थे। गायकी में अपनी बात को कहने का उन कलाकारों का अंदाज ही अलग था। सेजिया से सैयां रूठ गइलैं ए रामा... कोयल तोरी बोलियां... जैसी गायकी में बनारस की सुगंध है। इसकी महक अब भी ताजा है। ये बोल अब भी मेरे कानों में गूंजते रहते हैं। इस शहर का मोह कुछ ऐसा लगा कि फिर हम बनारस के ही होकर रह गए। पिछले जाने कितने सावन यहीं बीत गए। बनारस की मिट्टी में ही संगीत बसा हुआ है। 
(जारी...)

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