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कैसे चक दे इंडिया के शाहरुख खान बने कोच हरेंद्र सिंह की प्रेरणा

अपने कैरियर में कदम कदम पर अपमान और संघर्षों का सामना करने के बावजूद एक चैम्पियन टीम तैयार करने का जुनून उन्होंने चक दे इंडिया में शाहरूख खान के किरदार से मिला और जूनियर हॉकी विश्व कप विजेता भारतीय...

कैसे चक दे इंडिया के शाहरुख खान बने कोच हरेंद्र सिंह की प्रेरणा
एजेंसीThu, 22 Dec 2016 06:33 PM
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अपने कैरियर में कदम कदम पर अपमान और संघर्षों का सामना करने के बावजूद एक चैम्पियन टीम तैयार करने का जुनून उन्होंने चक दे इंडिया में शाहरूख खान के किरदार से मिला और जूनियर हॉकी विश्व कप विजेता भारतीय टीम के कोच हरेंद्र सिंह ने कहा कि कहीं ना कहीं कबीर खान का किरदार उनके जेहन में था। भारतीय टीम ने लखनऊ में हाल ही में संपन्न जूनियर हॉकी विश्व कप में बेल्जियम को हराकर पंद्रह बरस बाद खिताब जीता।
 
पिछले दो साल से टीम तैयार कर रहे हरेंद्र ने कहा कि भारत में लोग हॉकी से जज्बाती तौर पर जुड़े हुए हैं और हमारे खून में हॉकी है। देशवासियों को अपनी सरजमीं पर जीत का तोहफा देना भारतीय हॉकी को आगे ले जाने के लिए जरूरी था। इसके अलावा मैं स्वीकार करूंगा कि अपने कैरियर में काफी कुछ झेलने के बाद मुझ पर खुद को साबित करने का दबाव था और मेरे लिए इससे बेहतर मंच कोई और नहीं हो सकता था। यह मेरे लिए आखिरी मौका था।

उन्होंने कहा कि मैंने तय कर लिया था कि अगर हमने विश्व कप नहीं जीता तो मैं हॉकी से सारे नाते तोड़ लूंगा और सिर्फ एयर इंडिया की नौकरी करूंगा। यह मेरा जुनून था। बिहार के छपरा जिले के रहने वाले हरेंद्र ने यह भी कहा कि चक दे इंडिया में हॉकी कोच बने शाहरुख खान कहीं ना कहीं उनकी प्रेरणा रहे। उन्होंने कहा कि मैंने और मेरे बेटे ने सौ बार से ज्यादा यह फिल्म देखी है। जब भी फिल्म चलती तो मुझे लगता कि मेरी कहानी भी तो यही है। कोच कबीर खान की तरह मुझे भी अपमान झेलने पड़े लेकिन उसी की तरह मैं भी जज्बाती और जुनूनी हूं और मैने भी कुछ कर दिखाने की ठान रखी थी।

हरेंद्र ने कहा कि मैंने आधुनिक हॉकी की तकनीकें सीखी। टीम को पिछले दो साल में मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार किया और इसमें हॉकी इंडिया से पूरा सहयोग मिला। यह ऐसी टीम है जो अपने लिए नहीं खेलती बल्कि देश के लिए खेलती है। इसमें कोई पंजाब, झारखंड या ओडिशा का नहीं बल्कि सारे भारत के खिलाड़ी हैं। इसकी जीत का असर 2018 सीनियर विश्व कप में देखने को मिलेगा।
   
अपने कैरियर के संघर्षों के बारे में उन्होंने कहा कि मैंने 1982 एशियाई खेलों के बाद पहली बार हॉकी उठाई तो मेरे पास स्टिक नहीं थी। यहां बिड़ला मंदिर के आसपास की पहाड़ियों में पेड़ों की टहनी से हॉकी बनाकर खेलते थे। मैं पहली बार हॉकी खेलने गया तो मेरी हॉकी यह कहकर फेंक दी गई कि अब बिहारी और आटोरिक्शा वाले भी हॉकी खेलेंगे।

उन्होंने कहा कि बिहारी मेरे लिए ताने की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा। हमारे तथाकथित हॉकी विशेषज्ञ मेरी क्षमता पर अंगुली उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। मैं ओलंपिक नहीं खेल सका लेकिन मैने प्रण किया कि एक दिन कोच बनकर ओलंपियन तैयार करूंगा। मेरे इस फैसले में परिवार ने पूरा साथ दिया।

रोटरडम में 11 साल पहले हरेंद्र सिंह के कोच रहते ही टीम स्पेन से जूनियर विश्व कप कांस्य पदक का मुकाबला पेनल्टी शूट आउट में हारी थी और वह टीम नासूर की तरह उनके भीतर घर कर गई थी। यह पूछने पर कि क्या उन्होंने अपनी मंजिल को पा लिया है या यह सफर का आगाज है, हरेंद्र ने कहा कि मैं कभी संतुष्ट होकर नहीं बैठता। यह जरूर है कि अब मैं रोटरडम को भूलकर चैन की नींद सो सकता हूं लेकिन अभी तो शुरुआत है और कई मुकाम तय करने हैं। मुझे अपनी टीम पर भरोसा है और यह ओलंपिक में स्वर्ण जीत सकती है।

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