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पुस्तक मेले में हैं नारी व दलित विमर्श की किताबें

पुस्तक मेला ऐसी जगह हैं जहां किताबों में रुचि रखने वाले लोग आते हैं। पाठक किताबें खरीदते हैं, लेकिन लेखकों को पता नहीं होता कि उन्हें कौन लोग पढ़ रहे हैं। यहां लेखक मंच में लेखक आमने-सामने अपने...

पुस्तक मेले में हैं नारी व दलित विमर्श की किताबें
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 15 Jan 2016 07:01 PM
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पुस्तक मेला ऐसी जगह हैं जहां किताबों में रुचि रखने वाले लोग आते हैं। पाठक किताबें खरीदते हैं, लेकिन लेखकों को पता नहीं होता कि उन्हें कौन लोग पढ़ रहे हैं। यहां लेखक मंच में लेखक आमने-सामने अपने पाठकों से रूबरू हो रहे हैं। इस तरह के पुस्तक मेले से लेखकों का मनोबल बढ़ता है।

पुस्तक मेले में मैंने इस बार जो सबसे ज्यादा महसूस किया, वह है कि यहां हिन्दी साहित्य में दलित और नारी विमर्श पर बड़ी संख्या में किताबें मौजूद हैं।

मेले में इस बार दलित और नारी विमर्श की किताबों की भरमार दिख रही है। अब हिंदी में नवलेखन परंपरा खूब आगे बढ़ रही है। साथ ही इनकी भाषा भी बदली हुई है। या यूं कहें कि भाषा कुछ अमर्यादित और चरित्रहीन हो रही है। इस समय का साहित्य स्मृतिहीन साहित्य हो गया है। लेकिन सबसे खुशी की बात यह है कि आज हिंदी साहित्य में दलितों और स्त्री ने जिस तरह बोलना शुरू कर दिया है वह नये समय का आगाज है।

कृष्णा सोबती की ये लड़की, जिंदगीनामा, समय सरगम और दिलो दानिश जैसी किताबों में सच्चाई की कठोरता से लालित्य पेश किया गया है। वहीं मैत्रेयी पुष्पा के लेखन में दलित और महिला लेखन एक साथ मिल जाते हैं। उनकी किताबें चाक, त्रिया हठ और अल्मा कबूतरी में भी औरत की जिन्दगी के कई पक्ष दिए गए हैं। मैंने हाल नंबर 14 में बच्चों के स्टाल में भी भारी भीड़ देखी। बच्चों के लिए अंग्रेजी में विविध किस्म की किताबें हैं जो ज्ञान और तर्कशीलता बढ़ाती हैं।

मैंने हमेशा महसूस किया है कि पुस्तक मेले लोगों को किताबों और साहित्य से जोड़ने का अच्छा और जरूरी तरीका है। फिर भी यही एकमात्र तरीका नहीं हो सकता। हमें हिन्दी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए और भी रास्ते अपनाने होंगे। अब यही देख लीजिए कि दिल्ली में हिन्दी की किताब लेनी हो तो कहां जाएं। इसके लिए भी हमें सोचना होगा। वैसे भी हिंदी समाज में पुस्तकों की बहुत ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं है। वैसा ही हिन्दी लेखकों के भी साथ है। यहां हिंदी साहित्य के स्टालों में इतनी भारी भीड़ देखकर लगता है कि लोग हिन्दी के प्रति भी तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। मैंने अब तक कलकत्ता और पटना के पुस्तक मेलों में ही इतनी भीड़ देखी थी।

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