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World AIDS Day 2016: समझना ज़रूरी है, बीमारी का इलाज भेदभाव नहीं

1 दिसंबर को दुनिया भर में हर साल वर्ल्ड एड्स डे के रूप में याद किया जाता है। एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से साल 1988 से इसकी शुरुआत की गई थी। दुनिया भर में फिलहाल 3.67 करोड़ लोग इस

लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 01 Dec 2016 10:06 AM

1 दिसंबर को दुनिया भर में हर साल वर्ल्ड एड्स डे के रूप में याद किया जाता है। एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से साल 1988 से इसकी शुरुआत की गई थी। दुनिया भर में फिलहाल 3.67 करोड़ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं जबकि भारत 21 लाख रोगियों के साथ दुनिया में सबसे ज्यादा HIV पीड़ित लोगों की सूची में तीसरे नंबर पर आता है। साल 2015 में इस बीमारी की वजह से दुनिया में 11 लाख जबकि भारत में 68 हज़ार मौतें हुई हैं। दुनिया भर में एड्स और HIV पीड़ित लोगों के प्रति भेदभाव की घटनाएं भी लगातार सामने आती रहीं हैं। आज Livehindustan.com आपको बता रहा है कि क्यों एड्स या HIV पीड़ितों के साथ भेदभाव सिर्फ नासमझी और जानकारी के आभाव का नतीजा है...

भेदभाव से सिर्फ गलतफहमियां बढ़ती हैं
बता दें कि एक NGO के सर्वे के मुताबिक भारत में करीब 67% एड्स मरीजों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इन लोगों को या तो अपनी बीमारी को छुपाकर रहना पड़ता है या फिर सार्वजानिक जगहों पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। साल 1986 में चेन्नई में डॉ सुनीति सोलोमन ने एक महिला यौनकर्मी में एड्स के वायरस की पहचान की थी। इसे भारत में एड्स का पहला मामला माना जाता है लेकिन उसके बाद से एड्स का संकट एक महामारी के तौर पर लगातार बढ़ता जा रहा है। आप नीचे दी जा रही वीडियो के जरिए भी इस बात को समझ सकते हैं। वीडियो देखने के लिए क्लिक करें...

 

एड्स की बीमारी और उसके रोकथाम के अलावा इसका सबसे दर्दनाक पक्ष है एड्स से पीड़ित व्यक्ति को जिस तरह से अछूत समझा जाता है और सामाजिक भेदभाव का शिकार होना होता है। स्कूल-कॉलेज से बेदखल होना होता है, नौकरी से निकाल दिया जाता है और यहां तक कि कई बार कैद कर देने और प्रताड़ित भी करने के मामले सामने आए हैं। इसके लिये उपचार और रोकथाम के साथ-साथ एड्स पीड़ित के मानवाधिकार की रक्षा करना भी जरूरी है। इसके लिये समाज को अपना नजरिया बदलना ही होगा।


अगली स्लाइड में जानिए AIDS के बारे में फैली हैं क्या गलतफहमियां...

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AIDS को लेकर फैले हैं ये झूठ...

गले मिलना और किसिंग: 
जी नहीं। यह सच नहीं है। खून, वीर्य, योनि या गुदा द्रव्य और स्तन के दूध इसके फैलने के कारण हैं। ये सच है की थूक में भी ये वायरस होता है, लेकिन इन्फेक्शन के फैलने के लिए कई बाल्टियां भर कर थूक इकठ्ठा करना पड़ेगा। और हम उम्मीद करते हैं की किसी को चुम्बन के दौरान इतने थूक का आदान-प्रदान ना करना पड़े! लेकिन ये ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है की आपके या उस व्यक्ति के मुह में कोई ऐसा घाव नहीं हो जहां से खून निकल रहा हो, क्यूंकि ऐसा हुआ तो इन्फेक्शन हो सकता है।

बर्तन या ग्लास इस्तेमाल करने से: 
नहीं! किसिंग की ही तरह, ये भी असंभव है। यदि किसी अवस्था में आपको अपनी चम्मच पर खून का निशान दिखाई भी दे, तो नही ये संभव नहीं क्यूंकि ये वायरस शरीर के बाहर कुछ पलों में दम तोड़ देता है।

मच्छर से: 
गलत! मच्छर आपको कई तरह के बीमारियां दे सकता है लेकिन एड्स उनमे से नहीं है। क्यूंकि जब कोई कीड़ा आपको काटता है तो वो उस व्यक्ति के वायरस आपके शरीर में नहीं डाल सकता जिसे उसने आपसे पहले काटा हो।

कंडोम एड्स से नहीं बचाता: 
ये धारणा भी गलत है। शारीरक सम्बन्ध बनाते समय कंडोम का उपयोग अवश्य करें। अपने साथी के लिए वफादारी भी एड्स से बचाव का तरीका है।

अगर दोनों को इन्फेक्शन हो तो कंडोम की ज़रूरत नहीं:
अगर सेक्स करने वाले दोनों लोग एड्स वायरस का शिकार हैं तो भी कंडोम का उपयोग ज़रूरी है। आपको फिर से इन्फेक्शन हो सकता है, या किसी और प्रकार का वायरस आपके शरीर में अपनी जगह बना सकता है जो आपके इलाज और उम्र को मुश्किल बना सकता है।

एड्स सिर्फ गलत काम करने से होता है: 
नहीं। सदियों से लोग एक से अधिक व्यक्ति से सेक्स करते रहे हैं, वेश्यवृति में लिप्त रहे हैं और ड्रग्स का प्रयोग भी करते रहे हैं। तब से जब कोई एड्स के बारे में जानता ही नहीं था। एड्स होने का मतलब ये नहीं की आपने कुछ गलत काम ही किया हो। रक्तदान, जन्म या आपके साथी (अगर उन्हें एड्स हो तो) से आपको इन्फेक्शन हो सकता है।

एड्स है तो बच्चे पैदा नहीं कर सकते: 
आधुनिक मेडिकल रिसर्च को, जिसने अब ये संभव कर दिखाया है की यदि आप दोनों को एड्स है तो भी आप सावधानीपूर्व प्लानिंग और अपने मेडिकल सलाहकार की मदद से बच्चों को इस दुनिया में वायरस मुक्त ला सकते हैं।

व्यक्ति को देख कर बताया जा सकता है की उसे एड्स है:
नहीं। एड्स के शिकार ज़यादातर लोग किसी भी सामान्य स्वस्थ व्यक्ति की तरह स्वस्थ ही दिखते हैं। असल में इस इन्फेक्शन के होने के करीब 10 साल बाद ही इसके पहले संकेत सामने आते हैं। और मेडिकल रिसर्च के कारण अब इस से भी ज़्यादा समय तक स्वस्थ रहना और दिखना संभव है।

अगली स्लाइड में जानिए भारत में क्या है इसकी स्थिति..

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भारत में क्या है स्थिति

यूएनएड्स के मुताबिक भारत में सिर्फ 36 % लोगों को ही एड्स का उपचार मिल पाता है। बाकी 64 % लोगों को इसका उपचार मिल ही नहीं पाता है। हालांकि इसी रिपोर्ट के अनुसार 2005 से 2013 के बीच एड्स से हुई मौतों की संख्या में करीब 38 % की गिरावट आई है। इसकी वजह उपचार के साधनों का विस्तार माना जाता है। एड्स के ज्यादातर मामले पूर्वोत्तर के राज्यों और दक्षिण के राज्यों में हैं। इस बीच बिहार और मध्य प्रदेश में भी एड्स पीड़ितों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है। यौन कर्मियों में भी एड्स के मामले बढ़ते जा रहे हैं। यौन कर्मियों की संख्या करीब 868000 बताई जाती है जिसमें से लगभग 2।8 % एड्स से पीड़ित हैं।

क्या हैं वजहें
भारत में एड्स की प्रमुख वजह है प्रवासी श्रमिक और दूसरे देशों में जानेवाले नौकरीपेशा लोग, असुरक्षित यौन संबंध और असुरक्षित रक्तदान। हांलाकि भारतीय सेना इसे आधिकारिक तौर पर नहीं स्वीकारती है लेकिन कुछ गैरसरकारी संगठनों और स्वैच्छिक संस्थाओं के अनुसार सेना में भी एड्स के मामले बढ़ते जा रहे हैं। खास तौर पर ऐसे सैनिक जो दूरदराज के इलाकों में तैनात हैं उनमें और उनसे एड्स के फैलने की आशंका रहती है। अगर नैको के आंकड़े देखें तो एड्स के प्राथमिक उपचार से लेकर सेकेंड लाइन ट्रीटमेंट तक एक मरीज के उपचार में करीब 6500 से लेकर 28500 का खर्च आता है। लिहाजा एड्स का इलाज काफी मंहगा है। हांलाकि हाल के वर्षों में भारत में स्थानीय स्तर पर जेनेरिक दवाओं के उत्पादन से भी एड्स की रोकथाम में व्यापक सफलता मिली है।

एक और क्लिक पर जानिए AIDS से जुड़ी कुछ और ज़रूरी बातें...

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क्या है HIV और AIDS

एचआईवी सबसे पहली बार 19वीं सदी की शुरुआत में जानवरों में मिला था। माना जाता है की इंसानों में यह चिंपांजी से आया। 1959 में कांगो के एक बीमार आदमी के खून का नमूना लिया गया। कई साल बाद डॉक्टरों को उसमें एचआईवी वायरस मिला। माना जाता है कि यह पहला एचआईवी संक्रमित व्यक्ति था।

981 में एड्स की पहचान हुई। लॉस एंजिलिस के डॉक्टर माइकल गॉटलीब ने पांच मरीजों में एक अलग किस्म का निमोनिया पाया। इन सभी मरीजों में रोग से लड़ने वाला तंत्र अचानक कमजोर पड़ गया था। ये पांचों मरीज समलैंगिक थे इसलिए शुरुआत में डॉक्टरों को लगा कि यह बीमारी केवल समलैंगिकों में ही होती है। इसीलिए एड्स को ग्रिड यानी गे रिलेटिड इम्यून डेफिशिएंसी का नाम दिया।

बाद में जब दूसरे लोगों में भी यह वायरस मिला तो पता चला कि यह धारणा गलत है। 1982 में ग्रिड का नाम बदल कर एड्स यानी एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम रखा गया। 1983 में सेन फ्रांसिस्को में समलैंगिकों ने इस विषय पर जागरूकता फैलाने के लिए प्रदर्शन भी किए।

1983 में फ्रांस के लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की। इसके एक साल बाद अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की पहचान की। 1985 में पता चला कि ये दोनों एक ही वायरस हैं। 1985 में मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जबकि गैलो ने अपने परीक्षण का पेटेंट कराया। 1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस का नाम मिला।

अगली स्लाइड में जानिए एड्स का इलाज क्यों है मुश्किल...

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एड्स की दवा

1987 में पहली बार एड्स से लड़ने के लिए दवा तैयार की गई। लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट्स थे और मरीजों को दिन में कई खुराक लेनी पड़ती थी। 90 के दशक के अंत तक इसमें सुधार आया। कुछ क्विक टेस्ट भी आए। जैसे तस्वीर में ओरा क्विक। इसका दावा था कि लार के परीक्षण से 20 मिनट में बताया जा सकता है कि शरीर में वायरस है या नहीं। 1991 में पहली बार लाल रिबन को एड्स का निशान बनाया गया। यह एड्स पीड़ित लोगों के खिलाफ दशकों से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने की एक कोशिश थी।

संयुक्त राष्ट्र ने मलेरिया और टीबी की तरह एड्स को भी महामारी का नाम दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 2012 के अंत तक एक करोड़ लोगों को एंटीरिट्रोवायरल थेरेपी मिल रही है। लेकिन बाकी एक करोड़ 60 लाख लोग इससे 2013 में भी वंचित हैं। अधिकतर लोग यह बात नहीं समझ पाते कि अगर वक्त रहते वायरस का इलाज शुरू कर दिया जाए तो एड्स से बचा जा सकता है।

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