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अभी तक की यात्रा और मंजिल

देश में आर्थिक सुधारों की कथा 25 साल पहले शुरू हुई थी, हालांकि आधे-अधूरे ढंग से वे सुधार 1980 के दशक में ही शुरू हो गए थे। बाद में आर्थिक संकट इतना ज्यादा बढ़ गया कि 1990-91 के बीच प्रधानमंत्री...

अभी तक की यात्रा और मंजिल
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 10 Mar 2016 10:03 PM
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देश में आर्थिक सुधारों की कथा 25 साल पहले शुरू हुई थी, हालांकि आधे-अधूरे ढंग से वे सुधार 1980 के दशक में ही शुरू हो गए थे। बाद में आर्थिक संकट इतना ज्यादा बढ़ गया कि 1990-91 के बीच प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को कई बड़े कदम उठाने पड़े। एक जून, 1991 को गृह मंत्रालय से मेरा तबादला आर्थिक मामलों के विभाग में हो गया और मुझे भुगतान संतुलन के संकट से निपटने की जिम्मेदारी दी गई। इसके लिए मुझे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और कई अन्य एजेंसियों से बात करनी पड़ी। इस बीच नरसिंह राव ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने। उनके मंत्री पद संभालने के तीन दिन बाद 24 जून को जब मैं उनसे मिलने गया, तो मैंने उनके अंदर की ऊर्जा को महसूस किया। उन्होंने कहा, 'हम भारत को बदलेंगे, बाधा बनने वाले सभी गड़बड़ कानूनों को हटा देंगे। यह एक निर्णायक नई शुरुआत होगी।' बाद में 24 जुलाई, 1991 को जब उन्होंने अपना पहला बजट पेश किया, तो मुझे समझ में आया कि वह क्या चाहते थे?

यह वह समय था, जब देश हर तरह से काफी गहरे संकट में था। वित्तीय घाटा 8.3 फीसदी की ऊंचाई पर पहंुच चुका था। विदेशी मुद्रा कोष महज पांच अरब डॉलर था (यह अनुमान भी शायद कुछ ज्यादा ही है)। यानी इतनी कम पूंजी थी कि देश तीन महीने का आयात भी नहीं कर सकता था। आसमान पर पहुंच चुकी महंगाई लगातार बढ़ रही थी, जिससे निराशा और चिंता गहरा रही थी। जुलाई, 1990 और जनवरी, 1991 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उधार तो मिल गया, लेकिन निवेशकों के हौसले पस्त ही थे। सोवियत संघ टूट चुका था, और पश्चिम एशिया, खासकर कुवैत को लेकर तनाव के कारण खाड़ी के देशों से आने वाले धन पर भी विराम लग गया था। परेशानी का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि तब रिजर्व बैंक के गवर्नर हफ्ते में दो बार फोन करके मुझे कहते थे कि 2.5 करोड़ डॉलर जैसी छोटी धनराशि जारी की जाए, ताकि एजेंसियों का कर्ज चुकाया जा सके।

हमने दोहरी कार्य-योजना तैयार की। एक तो स्थिरता के लिए अल्पकालिक कार्यक्रम बनाया, और दूसरी, दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधार योजना बनाई, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अपर क्रेडिट ट्रेंच एग्रीमेंट और विश्व बैंक के स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट लोन के आधार पर बनाई गई थी। इसी समय दो बार रुपये का अवमूल्यन किया गया और बदनाम लाइसेंस राज को खत्म किया गया, खासकर उन मामलों में, जहां यह उद्योगों का रास्ता रोकता था। तब आयात शुल्क में भारी कटौती की गई, उद्योगों पर राज्य के एकाधिकार को खत्म किया गया और नियम-कायदों से दबे बैंकिंग क्षेत्र को मुक्त किया गया। नतीजा बहुत नाटकीय आया। वित्तीय घाटा एक साल में ही 8.3 फीसदी से घटकर 5.9 फीसदी पर आ पहुंचा। विदेशी मुद्रा कोष 6.4 (मार्च 1993) अरब डॉलर पर पहंुच गया। दो साल में ही विकास दर इतनी बढ़ गई कि हमारे अंदर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ चल रहे कार्यक्रम को खत्म करने का आत्मविश्वास आ गया। यह उस दौर में अपनाई गई नीतियों की ही कामयाबी थी।
इन ढाई दशकों में हमने क्या हासिल किया? क्या यह पर्याप्त है? इन सवालों का जवाब इस पर निर्भर करता है कि हमारी उम्मीदें क्या थीं? जाहिर है, हम उतनी विकास दर नहीं हासिल कर सके, जितनी भारत की क्षमता है। यह उतनी नहीं थी कि हम गरीबी पूरी तरह से दूर कर सकते। लेकिन हमने सामाजिक विकास के पैमाने पर काफी सुधार किया और दुनिया में एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनकर उभरे हैं। विभिन्न पैमानों पर हमारी दस बड़ी उपलब्धियां इस तरह रही हैं।

एक तो 25 वर्ष में जीडीपी विकास दर 5.3 फीसदी से बढ़कर 7.6 फीसदी पर पहंुच गई। दूसरी, प्रति व्यक्ति आय 11,535 रुपये से बढ़कर 74,193 रुपये पर जा पहंुची। तीसरी, गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 36 फीसदी से घटकर 12.4 फीसदी (विश्व बैंक 2014-15 का आंकड़ा) हो गई। चौथी, इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र को खोला गया। राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम के तहत 2015 तक 25,518 किलोमीटर सड़कें बनीं। इतना ही नहीं, 1991 में सिर्फ 42 फीसदी लोगों तक बिजली पहुंचती थी, जो 2012 में बढ़कर 78.7 फीसदी हो गई। टेलीफोन की पहंुच भी 0.67 फीसदी लोगों के पास थी, जो बढ़कर 79.98 फीसदी हो गई। पांचवीं उपलब्धि, नागरिक उड्डयन को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया, जिससे इस क्षेत्र में विदेशी निवेश भी आया। आज देश में कई निजी एयरलाइंस काम कर रही हैं और हवाई यात्रा की गुणवत्ता भी काफी सुधरी है। छठी, बैंकिंग क्षेत्र को खोलने से कई घरेलू और विदेशी निजी बैंक खुले, जिससे उपभोक्ताओं को नए विकल्प मिले। सातवीं, भारतीय अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी। 2014 तक देश में ऐसे हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स की संख्या 1.98 लाख पहंुच गई थी। आठवीं, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत मिलने से दुनिया भर के निवेशकों ने भारी मात्रा में भारत में निवेश किया। इसी तरह, भारत से विदेश में होने वाला निवेश भी लगातार बढ़ा है। नौवीं उपलब्धि है, नई संचार नीति ने भारत को सॉफ्टवेयर उद्योग की ताकत बना दिया। इससे हमें विप्रो, इन्फोसिस, टाटा कंसल्टेंसी और एचसीएल जैसी कंपनियां मिलीं, जिन्होंने नए स्टार्टअप की भूमिका बनाई। और दसवीं, मानव विकास सूचकांक में भारत की उपलब्धियां। हालांकि यह बहुत बड़ी नहीं रही है। इस मामले में भारत ने 1.48 फीसदी की दर से विकास किया है। कुछ मामलों में अच्छी प्रगति भी दिखी है, जैसे मातृ मत्यु दर प्रति एक लाख पर 437 से घटकर 2011-13 में 167 पर पहुंच गई। इसी तरह, शिशु मृत्यु दर भी प्रति एक हजार पर 80 से घटकर 40 पर पहंुच गई। लेकिन इस मामले में अभी लंबी दूरी तय करनी है।

कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बहुत कुछ किया जाना शेष है। मसलन, ऊंची विकास दर को बरकरार रखना। गरीबी को पूरी तरह खत्म करना। शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था को सुधारना और इसे कौशल विकास से जोड़ना। हर साल 90 लाख लोगों को रोजगार देने की क्षमता विकसित करना, ताकि देश की युवा आबादी का फायदा उठाया जा सके। तकनीक और आधार जैसे डिजिटल उपायों का इस्तेमाल करके प्रशासन की गुणवत्ता को सुधारना। और सबसे जरूरी है कि केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर प्रशासन की संस्कृति को सुधारना। इसके साथ कारोबार करने को भी आसान बनाया जाए, जिससे भारत में उद्यमिता विकास की संभावनाएं पैदा होंगी।

अभी हम 7.6 फीसदी की दर से विकास कर रहे हैं। अगर केंद्र, राज्य और निजी क्षेत्र मिलकर टीम इंडिया के रूप में आगे बढ़ें, तो इससे बहुत कुछ हासिल हो सकता है। दुनिया में सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ हम बदलाव के दरवाजे पर खड़े हैं। अगर हम एक दशक तक दस फीसदी की दर से आगे बढ़ते हैं, तो एक नया इतिहास बना देंगे। तब हम उन बुरे प्रभावों से मुक्त हो सकेंगे, जो हमें उपनिवेश काल ने दिए हैं। अभी तक की यात्रा बेशक काफी अच्छी रही है, लेकिन अब भी हमें लंबी दूरी तय करनी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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