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भटकते कोलंबस

यह बात उस समय की है, जब मैं मुंबई में था और अपनी कुछ कहानियों के सिलसिले में कभी-कभी फिल्म-निर्माताओं से मिला करता था। मेरा मित्र परवेज ये मुलाकातें तय कराता था। एक दिन बहुत बड़़े निर्माता से मिलना...

भटकते कोलंबस
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 14 Feb 2016 08:42 PM
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यह बात उस समय की है, जब मैं मुंबई में था और अपनी कुछ कहानियों के सिलसिले में कभी-कभी फिल्म-निर्माताओं से मिला करता था। मेरा मित्र परवेज ये मुलाकातें तय कराता था। एक दिन बहुत बड़़े निर्माता से मिलना तय हुआ। मैं अकेला ही तय समय पर उनके दफ्तर मिलने पहुंचा।

कुछ देर की बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपने घर साथ चलने को कहा। उनकी कार दरवाजे पर लगी थी। उन्होंने मुझे गाड़ी में बैठने के लिए कहा और स्वयं दफ्तर के लोगों को कुछ समझाने लगे। गाड़ी में मैं पीछे बैठने लगा, तो ड्राइवर ने जैसे ही गरदन पीछे घुमाई और नमस्कार करने की मुद्रा में अपना मुंह उठाया, मैं चौंक गया। लड़का बेहद स्मार्ट और संभ्रांत लग रहा था। मुझे लगा, शायद उनका बेटा या परिवार का कोई सदस्य हो।

खैर, वह आए और मेरे साथ बैठ गए। गाड़ी चल पड़ी। उनके बंगले पर पहुंचते ही एक दरबान लड़के ने दरवाजा खोला, एक और लड़के ने भीतर से आकर उनके हाथ से बैग पकड़ा। ड्रॉइंग रूम में मुझे बैठने का इशारा करके वह भीतर चले गए। एक लड़का तुरंत पानी लेकर आया और जाते-जाते धीरे से पूछ गया कि 'चाय में चीनी लेंगे न?' अब मैं ड्राइवर लड़के की बात भूल गया था, क्योंकि सभी लड़के उसी की तरह स्मार्ट, शायद बड़े घरों के थे। मुझे दामोदर खडसे की कहानी 'भटकते कोलंबस' याद हो आई, जिसमें अपनी दुनिया ढूंढ़ते बेरोजगार युवाओं का मार्मिक चित्रण है। थोड़ी देर के लिए मैं यह भी भूल बैठा कि यहां मैं अपनी कहानी सुनाने आया हूं।
 कहना पड़ता है में प्रबोध कुमार गोविल

 

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