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होली पर प्रकृति के रंगों से विमुख क्यों हैं हम

होली ऋतु परिवर्तन से जुड़ा पर्व है। शिशिर और हेमंत की ठिठुरा देने वाली सर्दी के बाद बसंत के आगमन की सूचना देता फाल्गुन वातावरण में मौज-मस्ती, हर्षोल्लास का रंग घोलने लगता है। बसंत जीवन की नीरसता दूर...

होली पर प्रकृति के रंगों से विमुख क्यों हैं हम
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 13 Mar 2017 12:59 AM
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होली ऋतु परिवर्तन से जुड़ा पर्व है। शिशिर और हेमंत की ठिठुरा देने वाली सर्दी के बाद बसंत के आगमन की सूचना देता फाल्गुन वातावरण में मौज-मस्ती, हर्षोल्लास का रंग घोलने लगता है। बसंत जीवन की नीरसता दूर करके उसमें माधुर्य के संचरण का काल है। इस मास में प्रकृति नई नवेली दुल्हन की तरह सजने लगती है। पवन मत्त-मयूर सा वृक्षों की डालियों के साथ अठखेलियां करने लगता है। वातावरण प्रफुल्लित हो उठता है। आदिग्रंथों में भी इस माहौल को होलीकोत्सव में बदलते दिखाया गया है। 

आधी सदी पूर्व तक होली कुदरत के रंगों यानी टेसू, केसर, मजीठ आदि के रंगों से खेली जाती थी। लेकिन बाजारीकरण या भूमंडलीकरण का असर कहें कि कुदरत के रंग न जाने कहां खो गए और हम अपनी संस्कृति-सभ्यता को लगभग भुला बैठे। अब तो इनके रंगों से होली खेलने वालों की तादाद नगण्य सी है, जबकि राहु-केतु के प्रतीक पेंट, वार्निश व काले रंग, जो राग-द्वेष बढ़ाते हैं, का प्रयोग संपन्नता का परिचायक माना जाता है। टेसू के जिस वृक्ष का जिक्र ग्रंथों में है, उसे कहीं पलाश, त्रिशंकु और ढाक भी कहते हैं। वह अपने गठीले आकार और नारंगी लाल रंग के फूलों के कारण सर्वत्र जाना जाता है। इस टेसू के रंग का प्रयोग प्राचीनकाल से होता आया है। टेसू के सूखे फूलों को रात में भिगो देते हैं, जो सुबह खेलने का रंग तैयार कर देता है। केसर के पौधे से मिलने वाला केसर का रंग बहुत अच्छा होता है, हालांकि यह          खासा महंगा होता है। लगभग 450 ग्राम केसर में ढाई से पांच लाख सूखे वर्तिकाग्र पाए जाते हैं, जिनको इकट्ठा करने के लिए कम से कम 71 हजार के लगभग फूल             तोड़ने होते हैं।

रत्नाकर की कविताओं में टेसू के साथ मजीठ के रंग का भी वर्णन है। सिंदूरी रंग मजीठ के पौधे की जड़ से मिलता है। इसे कपड़ों की रंगाई में भी इस्तेमाल करते हैं। कुमायूं के इलाकों में मजेठी व कश्मीर में टिंजाड़ू नाम से प्रचलित इस रंग का होली में खासा महत्व है। नील का इस्तेमाल भी पहले होली के रंग में होता था, लेकिन बाद में वह रंगाई में काम आने लगा। गेंदा, गुलाब से बने रंग पूरी तरह सुरक्षित हैं। चुकंदर को भी पानी में डालकर गहरा भूरा रंग बनाया जा सकता है।

प्राकृतिक रंगों से होली खेलना सबसे सुरक्षित होता है। यह हमें अनेक बीमारियों से भी बचाता है। ये रंग न शरीर के लिए हानिकारक होते हैं और न इन्हें छुड़ाने में हमें किसी तरह की दिक्कत आती है। जबकि बाजार में मिलने वाले रंग और गुलाल, दोनों ही आमतौर पर सेहत के लिए घातक होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि अब तो प्राकृतिक जड़ी-बूटियों की जगह सिंथेटिक डाइयों ने ले ली है। नहीं भूलना चाहिए कि देखने में सुंदर लगने, आंखों को भड़कीली रंगत दिखाने वाले ये रंग विषैले भी हो सकते हैं। इसकी वजह यह है कि इनमें सीसा, माइका, अम्ल, क्षार, कांच के टुकड़े तक पाए जाते हैं, जो न केवल त्वचा व नेत्र रोग के कारण बनते हैं, बल्कि कैंसर व श्वांस जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ाते हैं। प्रख्यात चिकित्सकों व विशेषज्ञों की राय है कि गुलाल को रंगीन बनाने में जिन चीजों का इस्तेमाल होता है, उनमें ज्यादातर भारी धातुएं होती हैं, जो जाने-माने सिस्टेमिक टॉक्सिन हैं। ये न केवल गुर्दे, जिगर और हड्डियों में जमा हो जाते हैं, बल्कि शरीर के मेटाबॉलिक कामकाज को भी प्रभावित करते हैं। यदि ये रंग आंख में चले जाएं, तो वह ओकुलर सर्फेस को क्षतिग्रस्त कर सकता है। इससे अस्थायी स्तर पर दृष्टिहीनता का खतरा बना रहता है। 

इसमें दो राय नहीं कि प्रकृति ने वनस्पतियों के माध्यम से दुनिया को रंगों से परिपूर्ण किया है, लेकिन यह विडंबना ही है कि समूची दुनिया में लगभग बारह लाख टन से भी ज्यादा उपयोग में लाए जाने वाले रंगों में प्राकृतिक रंगों का प्रतिशत मात्र एक हजार टन यानी एक फीसदी ही है। यह प्रकृति और मानव जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या है? होली के लिए जहां प्राकृतिक रंगों का उपयोग मानव जीवन के लिए हितकर है, वहीं यह प्रकृति के सम्मान का प्रतीक भी है। परंपरागत तरीके से होली खेलने से आपके अपनों पर प्रेम का रंग गहरा चढ़ेगा, वहीं होली के पर्व का आनंद आप नई उमंग और उल्लास के साथ उठा सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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