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समस्याओं के शिखर, खाली होते पहाड़

उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के पीछे सोच यह थी कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियां और दुर्गमता विकास के अलग रास्ते की मांग करते हैं। स्थानीय लोगों को यकीन था कि उनके हालात को समझने की क्षमता मैदानी...

समस्याओं के शिखर, खाली होते पहाड़
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 06 Nov 2015 09:18 PM
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उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के पीछे सोच यह थी कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियां और दुर्गमता विकास के अलग रास्ते की मांग करते हैं। स्थानीय लोगों को यकीन था कि उनके हालात को समझने की क्षमता मैदानी नीतिकारों में नहीं है। केंद्र को झुकना पड़ा और राज्य की मांग पूरी हुई। लेकिन अब पलटकर देखें, तो इन 15 वर्षों में उत्तराखंड को आठ मुख्यमंत्रियों के अलावा शायद ही कोई उल्लेखनीय चीज मिल सकी है।

दूसरी तरफ, एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार- पिछले 15 वर्षों में इस पर्वतीय राज्य के 3,000 गांव खाली होने के कगार पर पहुंच गए हैं। जिन गांवों को सरसब्ज करने की राज्य की अवधारणा थी, वे अब बंजर हो रहे हैं। कुछ गांव तो ऐसे हैं, जहां गिने-चुने बूढ़े ही बचे हैं,  क्योंकि उन्हें अब सपने नहीं दिखाई देते और उनके पास गांव छोड़कर जाने का कोई विकल्प ही नहीं बचा है। रोजगार, बेहतर सुविधाएं जैसे न जाने कितने वादे अब इन गांवों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। वैसे भी, कृषि योग्य भूमि लगातार कम होती जा रही है।

अनुमान है कि प्रदेश में 70 हजार हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि कम हो चुकी है। कृषि के बारे में नीतियां बनाने-बिगाड़ने के अलावा कुछ नहीं हुआ। उम्मीदें न तो गांव में बची हैं और न ही कृषि में। जाहिर है, कुछ लोग अपना गांव छोड़ रहे हैं, तो कुछ लोग अपना जिला, और कुछ तो देवभूमि कहलाने वाला यह प्रदेश ही छोड़कर जा  रहे हैं।

प्रति 1,000 आबादी में 300 प्रदेशवासी पलायन कर चुके हैं। अल्मोड़ा और पौड़ी जैसे महत्वपूर्ण जिले जल्द ही सूने हो जाने के कगार पर हैं, यहां आबादी के घटने की दर गंभीर रूप ले चुकी है। उत्तराखंड की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा राज्य छोड़ चुका है।

इस दौरान राज्य के शहरों और कुछ गिने-चुने कस्बों की चमक-दमक जरूरी बढ़ी है, लेकिन उसके आगे के भूगोल तक किसी उम्मीद की कोई चमक नहीं पहुंची। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों की जरूरत को पूरा करने के लिए बने इस राज्य में आज भी 70 प्रतिशत धन शहरों पर खर्च हो रहा है, गांवों को बाकी 30 फीसदी से ही काम चलाना पड़ रहा है। भुतहा होते गांव सरकार को डरा नहीं पा रहे। त्रासदियों के बाद से गांवों में एक नया भय पैदा हो गया।

पहले यहां मानसून का स्वागत होता था, अब यही मानसून अक्सर मौत की आशंका के साथ दस्तक देता है। साल 2013 की त्रासदी के घाव आज भी पूरी तरह से भरे नहीं हैं। उसके बारे में अगर कोई चर्चा होती है, तो सिर्फ आपदा राहत के घोटालों की। त्रासदी फिर नहीं आएगी या किसी भी तरह की त्रासदी से निपटने की पूरी तैयारियां हैं, ऐसा कोई आश्वासन कहीं नहीं दिखाई देता।

पिछले 15 साल में उत्तराखंड में अगर कुछ लगातार हुआ है, तो वह है योजनाओं की घोषणा। हर बार जब राज्य को नया मुख्यमंत्री मिलता है, तो ढेर सारी घोषणाएं होती हैं। हालात यह है कि 15 साल में हुई घोषणाओं ने आने वाले मुख्यमंत्रियों के लिए शायद ही कुछ छोड़ा हो। अब तो कई बार घोषणाओं को वापस लेने की भी घोषणा होने लगी है।

इस बीच प्रदेश की सरकार ने एक नई कला सीख ली है। जब खुद से कुछ न हो पाए, तो उसे पीपीपी मोड में डाल दो। पीपीपी, यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप। और तो और, स्वास्थ्य सेवाओं को भी पीपीपी मोड में पहुंचा दिया गया है। इन सेवाओं की हालत लगातार खराब होती जा रही है। पहाड़ों में, खासकर ऊंचाई पर बसे गांवों में कोई डॉक्टर जाने को तैयार नहीं होता। यह इस क्षेत्र की पुरानी समस्या है।

सरकार के पास इसका न कोई नया समाधान है, और न ही कोई ठोस नीति। अस्पतालों को पीपीपी मोड में चलाने की मशक्कत भी कोई खास रंग नहीं दिखा पाई है। निजी क्षेत्र का इस्तेमाल करने से जिस कुशलता के आने का दावा किया गया था, उसके अभी तक कहीं दर्शन नहीं हुए हैं। गैरसैंण में पीपीपी मोड के तहत एक चिकित्सालय बनाया गया है, लेकिन वहां सिर्फ एक डॉक्टर है। यही हाल लोहाघाट के स्वास्थ्य केंद्र का भी है। लोग मानते हैं कि राज्य के स्वास्थ्य केंद्र अब बस रेफरलकेंद्र बनकर रह गए हैं, जहां लोगों को इलाज तो नहीं मिलता, बल्कि इलाज के लिए कहीं और जाने की सलाह दे दी जाती है।

शिक्षा के मामले में कुमाऊं और गढ़वाल की स्थिति पहले कभी बहुत खराब नहीं रही, लेकिन अब वह तेजी से खराब होने लगी है। राज्य के तकरीबन 1,800 प्राथमिक विद्यालय बंद होने के कगार पर हैं। और तो और, मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र में 155 में से 30 स्कूल क्षतिग्रस्त पडे़ हुए हैं। जो इन स्कूलों में पढ़ रहे हैं, वे भी अपने भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं हैं, उन्हें पता है कि बेरोजगारी उनका इंतजार कर रही है। अगर रोजगार कार्यालय के आंकड़ों को मानें, तो पिछले 15 साल में सिर्फ 31,145 बेरोजगारों को नौकरी मिल पाई है। यह हाल भी तब है, जब इन 15 वर्षों में राज्य की विकास दर काफी अच्छी रही है।

एक समय तो वह 25 फीसदी के आसपास पहुंच गई थी, ज्यादातर समय वह दहाई अंक में रही है। हालांकि पिछले कुछ समय से वह दहाई अंक से नीचे आ चुकी है, फिर भी वह राष्ट्रीय विकास दर के आसपास ही है। इसके बावजूद राज्य में रोजगार का न बढ़ना यह  बताता है कि विकास की जो रणनीति बनी है, उसमें कितनी खामियां हैं?

आज से 15 साल पहले जब उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बनाने को संसद की मंजूरी दी गई थी, तब यह माना गया था कि इन पिछड़े क्षेत्रों का भविष्य अगर उनकी जनता के हवाले कर दिया जाए, तो शायद वे अपनी मुसीबतों से छुटकारे का ज्यादा अच्छा समाधान निकाल सकेंगे। समस्याओं के समाधान और उसके लिए बनाई गई नीतियों से जनता को जोड़ने का काम राजनीति करती है। इसके लिए उत्तराखंड को जिस नई तरह की राजनीति की जरूरत थी, वह विगत 15 वर्षों में कहीं दिखाई नहीं दी। जिन सपनों को लेकर यह पर्वतीय प्रदेश बना था, वे अब भी अधूरे पडे़ हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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