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हे निर्भय, भय भी शक्ति देता है

वह गुस्से में थे। बोले- देखो, अगर तुमने सम्मान वापसी वाले मसले पर कुछ लिखा, तो मैं तुम्हारी हत्या कर दूंगा। मैंने कहा- क्यों? वह बोले- तुम धर्मांधता के विरोध में क्यों लिखते हो? उन्होंने समझाया कि...

हे निर्भय, भय भी शक्ति देता है
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 23 Oct 2015 09:58 PM
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वह गुस्से में थे। बोले- देखो, अगर तुमने सम्मान वापसी वाले मसले पर कुछ लिखा, तो मैं तुम्हारी हत्या कर दूंगा। मैंने कहा- क्यों? वह बोले- तुम धर्मांधता के विरोध में क्यों लिखते हो? उन्होंने समझाया कि आंख वालों को अंधों का विरोध नहीं करना चाहिए। उनसे हमदर्दी जतानी चाहिए।

उन्हें सूनी सड़क पार करानी चाहिए। अगर अंधे अपनी आंखों में काजल पोत रहे हैं, तो तुम क्यों हलकान हो? मैंने पूछा- तो क्या करें? बोले, अपने अंदर भय पैदा करो। डरो। सब मिलकर भयभीत हो जाओ। सामूहिक भय को स्टोर करो। डॉक्टर जब तक भय नहीं दिखाता, तब तक कोई मरीज बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू नहीं छोड़ता। तुम में से किसी भी सम्मानित को अपनी हत्या का भय नहीं है।

इसीलिए सुविधाजनक विरोध कर रहे हो। भैया, भय कभी सुविधाजनक नहीं होता। मेरे मित्र कवि लीलाधर जगूड़ी ने तो पहले ही कहा था कि भय भी शक्ति देता है। भय को अगर संगठित कर दिया जाए, तो वह हिमालय पिघला सकता है, साहित्य अकादेमी है क्या चीज?

वह कोहनी मारते हुए बोले- देखो, जिन्होंने सम्मान लौटाया, वे निहत्थे हैं और मुंह लटकाकर बैठे हैं। उनके बीवी-बच्चे तक उन्हें भाव नहीं दे रहे। दोस्तों का क्या, वे तो जिन्होंने सम्मान नहीं लौटाया, उनके साथ बैठे पपलू खेल रहे हैं।

यह थोड़ा सच भी है। मैंने कल देखा, मेरे पड़ोस के वर्माजी के यहां कुछ लोग आंगन में शोक मुद्रा में बैठे हैं। बीच में मुंह लटकाए दाढ़ी बढ़ाए उदास वर्मा जी। सम्मान वापसी के बाद उनकी हालत कुछ ऐसी हो गई थी, जैसे मरघट से लौटे हों। एक बोला- धीरज रखो भैया, जब आपको सम्मान मिला था, तब लोग आपको जुगाड़ू-जुगाड़ू कह रहे थे और आज- हे प्रभु रक्षा करना।

कीड़ें पड़ें उनके मुंह में। दूसरा बोला- जो होना था, वह तो हो गया वर्मा जी। धीरज रखो। तीसरा बोला- भाई साहब, ईश्वर द्वारा दिए दुख को बर्दाश्त करना भी ईश्वर की उपासना का एक रूप है। उठो, कुछ खा-पी लो। उधर पड़ोस में जहां पपलू चल रहा था, वहां थानेदार तक का भय नहीं था। सब घर कहकर आए थे कि रात को मुझे देर हो जाएगी। तुम खाना खा लेना।

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