सुलझी नहीं समस्या
यह समस्या है कि सुलझ ही नहीं रही। एक कोशिश सुबह कर चुके हैं। शाम को भी फिर कोशिश की। लेकिन बात नहीं बनी। अब उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या करें? 'हमें अगर समस्या का समाधान निकालना है,...
यह समस्या है कि सुलझ ही नहीं रही। एक कोशिश सुबह कर चुके हैं। शाम को भी फिर कोशिश की। लेकिन बात नहीं बनी। अब उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या करें?
'हमें अगर समस्या का समाधान निकालना है, तो अपनी भावनाओं को संभालना होगा, ताकि हम बिल्कुल साफ ढंग से सोच सकें।' यह मानना है डॉ. कैरिन हॉल का। वह ह्यूस्टन में डायलेक्टिकल बिहेवियर थिरेपी सेंटर की संस्थापक हैं। उनकी चर्चित किताब है, द इमोशनली सेंसिटिव पर्सन: फाइंडिंग पीस व्हेन योर इमोशन ओवरह्वेल्म यू।
हम जब समस्या के समाधान की ओर बढ़ते हैं, तो एक लकीर पर चल पड़ते हैं। हमें भरोसा होता है कि उस लकीर से हम उसका हल निकाल लेंगे। वह जब नाकामयाब होता है, तो हमें सिरदर्द होने लगता है। हम किसी तरह अपने को ठेलकर दूसरा समाधान खोजने में लग जाते हैं। जब वह भी कामयाब नहीं होता, तो हमारा धीरज जवाब दे जाता है।
समस्या समाधान की ओर देखने तक का हमारा मन नहीं करता। हम समस्या की चुनौती से भागने लगते हैं। समस्या का समाधान सचमुच एक चुनौती तो है ही। हम एक समाधान पर काम करते हैं। उसमें नाकामयाब होते हैं, तो दूसरा कुछ सोचते हैं। हर नाकामयाबी हमें कुछ नया सोचने को मजबूर करती है। हम कुछ ज्यादा अनुभवी होते हैं। बस हमें खुले मन से काम करने की जरूरत होती है। हम अगर अपने को बांध लेंगे, तो समस्या का समाधान मुश्किल हो जाएगा। हमें धीरज रखना होता है। हमें खुलेपन से समस्या की ओर देखना होता है। अक्सर कुछ सुलझाते हुए हमारी भावनाएं आड़े आ जाती हैं। हम बहुत जल्द भावुक हो जाते हैं। उसी वजह से उखड़ जाते हैं। और हमारे उखड़ते ही हमारी सोच डगमग हो जाती है। और डगमग सोच से हम समस्या पर ठीक से विचार कर ही नहीं सकते। समाधान क्या निकालेंगे?