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भारत के भ्रष्टाचार का ताना-बाना

भारत में भ्रष्टाचार के ढांचे की बुनावट क्या है? 1990 के दशक की शुरुआत से चल रहे उदारीकरण के बाद देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया या घटा है? भ्रष्टाचार और काली अर्थव्यवस्था के पूरे आंकड़े मिलने मुश्किल हैं,...

भारत के भ्रष्टाचार का ताना-बाना
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 15 Oct 2015 09:46 PM
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भारत में भ्रष्टाचार के ढांचे की बुनावट क्या है? 1990 के दशक की शुरुआत से चल रहे उदारीकरण के बाद देश में भ्रष्टाचार बढ़ गया या घटा है? भ्रष्टाचार और काली अर्थव्यवस्था के पूरे आंकड़े मिलने मुश्किल हैं, क्योंकि इसका सारा कार-व्यापार लुका-छिपा होता है। हां, इस पर गरमा-गरम बहस जरूर सार्वजनिक होती है।
आम धारणा यही है कि पहले के मुकाबले भ्रष्टाचार बढ़ा है, क्योंकि अब इसके लेन-देन में ज्यादा बड़ी रकम शामिल होती है। लेकिन निष्पक्ष विश्लेषण के लिए हमें इसके थोड़े-बहुत उपलब्ध आंकड़ों को पांच तरह से देखना होगा।

पहला मसला है परिभाषा का। भ्रष्टाचार का अर्थ होता है निजी हित में सत्ता का दुरुपयोग करना। यदि हम विस्तृत परिभाषा बनाएं, तो इसमें सरकारी संपत्ति जैसे सरकारी कार, उपकरण, स्टेशनरी, इमारत वगैरह का दुरुपयोग भी शामिल हो जाएगा। इसमें कई ऐसी चीजें भी हैं, जिनमें यह भेद बहुत मुश्किल होता है कि क्या निजी उपयोग है और क्या सरकारी उपयोग। विकासशील देशों में इसमें ऐसा भेद करने की परंपरा अभी शुरू नहीं हुई है। अगर परिभाषा को थोड़ा संकीर्ण बनाएं, तो यह जान-बूझकर किए गए घपले या किसी थर्ड पार्टी से लेन-देन के आसपास सीमित रह जाएगी।

यानी कोई लाभ या धन लेकर उन सरकारी सेवाओं को देना, जिन पर लोगों का अधिकार है या सेवाओं को प्राथमिकता के आधार पर तुरंत उपलब्ध कराने के लिए लाभ लेना, या लाभ लेकर उन सेवाओं को देना, जिसका वह व्यक्ति या संगठन अधिकारी ही नहीं है।

दूसरा, भ्रष्टाचार में दो अलग-अलग चीजें शामिल होती हैं, जिनका आपस में संबंध भी है। एक है काला धन, जो राज्य के करों की चोरी करके हासिल किया जाता है, और दूसरी चीज है राज्य की सत्ता के दुरुपयोग से खुद को स्मृद्ध बनाना।

तीसरा, हमें छोटे और बड़े भ्रष्टाचार में भी भेद करना होगा। उस भ्रष्टाचार में, जो ट्रैफिक कांस्टेबल, पटवारी, आयकर अधिकारी के स्तर पर होता है और उस भ्रष्टाचार के बीच, जो नौकरशाहों और नेताओं के गठजोड़ से होता है। इस गठजोड़ वाले भ्रष्टाचार को पहले वाले भ्रष्टाचार के साथ नहीं तौला जा सकता। और फिर इस गठजोड़ वाले भ्रष्टाचार में यह भी जरूरी नहीं है कि इसका लाभ लेने वाले लाभ के लिए पूरी तरह सक्रिय ही हों।

छोटा भ्रष्टाचार सीधा होता है, आम आदमी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इसे सीधे महसूस कर सकता है। ऊंचे स्तर का भ्रष्टाचार अप्रत्यक्ष होता है, लेकिन वह बहुत ज्यादा असरदार होता है। उसका असर हमारी विकास दर पर पड़ता है, हमारे जीवन स्तर पर पड़ता है, महंगाई पर पड़ता है, सार्वजनिक कर्ज पर पड़ता है। लेकिन यह तय करना मुश्किल है कि किस तरह का भ्रष्टाचार ज्यादा चलन में है।

चौथा, हम जब भ्रष्टाचार को देखें, तो हमें मुद्रास्फीति यानी महंगाई को भी देखना होगा। जरूरी नहीं है कि भ्रष्टाचार की रकम ज्यादा होने का अर्थ वास्तविक रूप में भ्रष्टाचार का बढ़ना हो। अगर हम मुद्रास्फीति के हिसाब से देखें, तो जो10 रुपये में हो जाता था, अब उसकी कीमत 100 रुपये होनी चाहिए।

पांचवां, भ्रष्टाचार एक वित्तीय प्रवाह है। अतीत के भ्रष्ट तरीकों से जो संपत्ति हासिल की गई थी, यह उससे अलग है। जब भ्रष्टाचार से अर्जित सालाना प्रवाह इसके उपभोग से ज्यादा हो जाता है (जो कि अक्सर होता ही है), तो वह भ्रष्ट संपत्ति में वृद्धि करता है, जो लगातार बढ़ती जाती है। इसके एक हिस्से को भी हम काला धन कहते हैं। लेकिन इसका कुछ हिस्सा काले धन की परिधि से बाहर होता है, जैसे जमीन-जायदाद के मूल्यों में वृद्धि।
भ्रष्टाचार के आकलन की इस बड़ी कवायद में अनुमान लगाने लायक आंकड़े भी नदारद हैं। भ्रष्टाचार और काले धन को लेकर जो बहस चलती है, वह अक्सर आक्रामक हो जाती है।

ऐसी बहसों में जो आंकड़े उछाले जाते हैं, उनकी कहीं से पुष्टि भी नहीं हो सकती। यानी आकड़े एक तो आसानी से मिलते नहीं हैं और मिल जाएं, तो उनकी पुष्टि और भी मुश्किल होती है। यह जरूर माना जा सकता है कि प्रशासनिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का जो लोभ होता है, वह हमेशा समान बना रहता है। साल 1990 से जो चीज बदली है, वह है भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना और विकास दर का बदल जाना। अर्थव्यवस्था में वित्तीय प्रवाह बढ़ा है और उसी अनुपात में भ्रष्टाचार और काले धन का स्तर भी बढ़ा है। देश की अर्थव्यवस्था आज पहले के मुकाबले ज्यादा खुली हुई है। आर्थिक व्यवस्था को गति देने वाले कल-पुर्जे अब बदल गए हैं।

अर्थव्यवस्था में व्यापार अब बहुत ज्यादा बढ़ गया है, वैश्विक स्पर्द्धा में टिके रहने के दबाव में गैर-कानूनी धन को सोखने की व्यापारिक क्षेत्र की क्षमता कम हुई है। इसलिए भ्रष्टाचार का तरीका बदल गया है। पहले लाइसेंस और कोटा परमिट जैसे व्यापारिक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार ज्यादा था, अब यह इन्फ्रास्ट्रक्चर और जमीन-जायदाद जैसे क्षेत्रों में बढ़ गया है। इसका असर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर पड़ा है और विकास दर कम हुई है, जिसकी वजह से जमीन के इस्तेमाल का पैटर्न इस तरह से बदला है कि नुकसान सरकार को हुआ है। पश्चिमी देशों में जमीन-जायदाद की कीमतों में तेज वृद्धि का कारण होता है, वित्तीय नीतियां होती हैं, जबकि भारत में इसका कारण है भ्रष्टाचार से अर्जित धन और काले धन का जमीन-जायदाद में  निवेश करना। राजनीतिक दलों को धन देने का भी यही जरिया है, इसलिए इसके खिलाफ कुछ भी करना काफी मुश्किल होगा।

वैसे भ्रष्टाचार और विकास दर के बीच जो रिश्ता है, वह किसी भी तरह से बहुत स्पष्ट नहीं है। भारत में हम यह सोच सकते हैं, इससे विकास दर कम होती है, लेकिन चीन संस्थागत भ्रष्टाचार और विकास दर में एक समीकरण बना चुका है। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल के वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 85वें नंबर पर है, जबकि चीन इससे थोड़ा नीचे 100वें नंबर पर, लेकिन विश्व बैंक के कारोबार में आसानी सूचकांक में यह भारत से बहुत ऊपर है। हो सकता है कि वह भ्रष्टाचार को कुशल टैक्स प्रशासन की तरह इस्तेमाल करता हो। भारतीय अर्थव्यवस्था 1990 के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ रही है, जिससे बड़े पैमाने पर सरप्लस भी पैदा हो रही है। दूषित जीवन मूल्यों और कम आत्म सम्मान वाले समाजों में यह सरप्लस भ्रष्टाचार के लिए चारे का काम करती है। अगर राजनीतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों के लोभ और लालच नहीं बदले हैं, तो यह आशंका भी नहीं है कि अब 1990 के दशक के मुकाबले वास्तविक अर्थों में भ्रष्टाचार बढ़ गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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