आबादी की बढ़ोतरी का गुणा-भाग
बरसों बीत गए। हम ‘हिन्दुस्तान की छत’ यानी लेह में थे। यह एक ऐसा शहर है, जिसे प्रकृति ने रहस्य के तमाम आवरणों में ढक रखा है। सिर्फ प्रकृति क्यों, इतिहास, भूगोल, संस्कृति और समाज, सब जैसे...
बरसों बीत गए। हम ‘हिन्दुस्तान की छत’ यानी लेह में थे। यह एक ऐसा शहर है, जिसे प्रकृति ने रहस्य के तमाम आवरणों में ढक रखा है। सिर्फ प्रकृति क्यों, इतिहास, भूगोल, संस्कृति और समाज, सब जैसे गहरी खाई की मानिंद अज्ञात तिलिस्म से भरपूर हैं। यहां के बारे में कहावत है कि अगर आप सिर छांह और पैर धूप में कर लेट जाएं, तो सिर पर बर्फ जम जाएगी और पैर झुलस जाएंगे।
उस दिन गजब का अनुभव हुआ।
हम बौद्ध परिषद (बुद्धिष्ट काउंसिल) के एक वरिष्ठ पदाधिकारी की बैठक में बैठे थे। वहां के पुराने घरों में अब भी सोफे और कुरसियों का चलन नहीं है। ऊन की मोटी कालीनें बिछी रहती हैं, उन पर तरह-तरह के तकियों के साथ मसनद सुशोभित होते हैं। जानलेवा सरदी से बचने का यह खास तरीका है। उसी दौरान घर की मालकिन तिब्बत की नमकीन चाय बना लाई। हम उसे सुड़कते हुए वहां के समाज और अपर्याप्त राजकीय व्यवस्थाओं पर बात करते रहे। उसी दौरान पदाधिकारी महोदय बोले कि हमारी एक समस्या तो आप ‘मैदानी लोगों’ जैसी है।
‘क्या?’ मैंने विस्मय से पूछा।
जवाब आश्चर्यजनक था। उन्होंने कहा कि कारगिल से ‘खास किस्म के लोग’ यहां आकर तेजी से बस रहे हैं। वे बौद्धों की लड़कियों को मोहजाल में फंसाकर धर्मांतरित करते हैं। ‘इंडियन गवर्नमेंट’ को इस पर कडे़ कदम उठाने चाहिए। ऐसा न हो कि किसी दिन लेह-लद्दाख के बहाने पाकिस्तान हम पर कब्जा कर ले। इन लोगों के दिल में पाकिस्तान बसता है। ये कहते हुए वह बेहद उत्तेजित हो चले थे और उनकी आवाज ऊंची हो गई थी।
मैं चौंक गया। ‘खास किस्म के लोगों’ से उनका आशय कारगिल के मुसलमानों से था।
हम हिंदी पट्टी के शहरों में इसी तरह की बातें बचपन से सुनते आए हैं। तमाम लोगों के लिए समाज में रौब गालिब करने का एक बहाना यह भी है। जिन दिनों मैंने लेह यात्रा की थी, उन दिनों मैं मेरठ में रहता था। वहां अक्सर युवकों का एक वर्ग फोटो और खबर लेकर आ जाता कि देखिए, यह लड़का ‘हमारी लड़की’ को अपने प्रेमजाल में भरमा रहा था। हमने इसे ठोक-पीटकर दुरुस्त कर दिया है। माजरा समझने में एक सेकंड भी न लगता। घृणा अथवा धार्मिक भय दिखाकर सिर्फ अल्पसंख्यक नेता अपनी दुकान नहीं चलाते, बहुसंख्यक ‘समझदारों’ का भी यही हथियार है। उन दिनों लेह में बौद्ध 77 प्रतिशत के करीब थे, उन्हें भला किसका डर? पर नहीं, ‘बौद्ध परिषद’ के नेता की बातों से लग रहा था कि उन्होंने एकजुटता दिखाने के लिए इंसान के सबसे पुराने हथियार, यानी ‘भय’ को सहारा बना लिया है।
इस बार जब सरकार ने 2011 की जनगणना के धार्मिक आंकडे़ पेश किए, तो आरोपों की तेजाबी बारिश की झड़ी लग गई। कहा गया कि बिहार चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने यह दांव चला है। यह तोहमत भी उछाली गई कि भाजपा सामाजिक फूट के जरिए चुनाव जीतने की जुगत में है। मालूम नहीं, इस तरह की बयानबाजी में कितना दम है? इन आंकड़ों पर गंभीरता से नजर डालें, तो स्पष्ट होता है कि आबादी के बढ़ने-घटने का जनसंख्या के अनुपात से कोई मतलब नहीं। देश के 529 जिलों में से जिन शीर्ष पांच जनपदों में मुस्लिम आबादी सर्वाधिक बढ़ी है, उनमें से एक भी बिहार का नहीं है। और तो और किशनगंज, जो कि बांग्लादेश की सीमा पर है, वह भी इस सूची से बाहर है। हालांकि, बिहार यात्रा के दौरान अक्सर मुझे सुनने को मिलता है कि बांग्लादेशियों की वजह से हमारे तमाम जिलों में आबादी का अनुपात असंतुलित हो रहा है।
यह सच है कि बांग्लादेशी घुसपैठिए आबादी के संतुलन पर असर डाल रहे हैं, पर इसका बिहार से ज्यादा दुष्प्रभाव असम पर पड़ा है। अधिकतम मुस्लिम आबादी बढ़ने वाले पांच में से चार जिले असम के हैं। उन चारों जनपदों में वे पहले से बहुसंख्यक थे। ‘हिन्दुस्तान’ के सहयोगी प्रकाशन ‘मिंट’ के मुताबिक, 2001 में धुबरी में 74.3, नौगांव में 51, करीमगंज में 52.3 गोलपाड़ा में 53.7 फीसदी मुस्लिम थे। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि धुबरी में सर्वाधिक 5.4 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, यानी अब वहां लगभग 80 फीसदी आबादी इस्लाम को मानने वाली है। पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों से भी इसी तरह की खबरें आ रही हैं। ये सभी इलाके बांग्लादेश से जुडे़ हुए हैं।
सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि उत्तर प्रदेश का श्रावस्ती जिला मुस्लिम जनसंख्या की बढ़ोतरी के मामले में दूसरे नंबर पर आया है। 2001 की जनगणना में यहां 25.6 फीसदी मुस्लिम आबादी आंकी गई थी। इस बार उसमें 5.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि श्रावस्ती नेपाल के समीप है और सीमावर्ती नेपाली इलाकों में मुस्लिम आबादी का घनत्व अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा है। यहां यह भी गौरतलब है कि आबादी की बढ़ोतरी के बावजूद उनकी संपन्नता नहीं बढ़ी है। श्रावस्ती में महज 8.5 फीसदी मुस्लिम परिवारों के पास दोपहिया है और 4.1 प्रतिशत को बिजली व शौचालय उपलब्ध है।
अब हिंदुओं पर आते हैं। हिंदू आबादी बढ़ने के ‘टॉप पांच’ जिलों में से तीन में वे पहले से अव्वल हैं। इनमें मध्य प्रदेश का डिंडौरी सबसे आगे है। यर्हां ंहदुओं की आबादी 2001 में 80.2 प्रतिशत थी, जिसमें 5.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह, पंजाब के जालंधर में 4.5 और कर्नाटक के बीदर में 7.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। यहां गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर और पंजाब के कुछ जिलों में, जहां पहले हिंदू अल्पसंख्यक थे, वहां बहुसंख्यकों की आबादी घटी और हिंदुओं की बढ़ी है।
तय है कि जैसे-जैसे इन आंकड़ों की चीर-फाड़ की जाएगी, नए तथ्य सामने आएंगे, जो यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त होंगे कि जनसंख्या की बढ़ोतरी को राष्ट्रहित से जोड़ा जाना चाहिए। इसे किसी खास चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है।
यहां यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि सांप्रदायिक दंगों की वजह से लोग अपना घर-बार छोड़कर नहीं भागते। गुजरात के चार शहर इसका उदाहरण हैं। अहमदाबाद में 2002 में भीषण दंगा हुआ था। वहां हिंदू आबादी 0.9 फीसदी घटी है और मुस्लिम 0.8 फीसदी बढ़े हैं। इसी तरह, खेड़ा में 2001 के मुकाबले हिंदू 0.7 प्रतिशत घटे और मुस्लिम इतनी ही फीसदी बढ़े। साबरकांठा में भी ऐसा हुआ। वहां मुस्लिम आबादी में 0.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, जबकि हिंदू 0.4 फीसदी घटे। एक और दिलचस्प तथ्य से आपको रूबरू कराता हूं। लेह में, जहां मैंने बौद्ध परिषद के वरिष्ठ पदाधिकारी को कौतूहलपूर्वक सुना था, वहां मुस्लिम नहीं, बल्कि हिंदू आबादी में सर्वाधिक वृद्धि दर्ज की गई है। लेह में इस प्राचीन धर्म के मानने वालों में नौ फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।
मध्य प्रदेश में पिछले 12 वर्षों से भाजपा का शासन है, वहां के बडे़ शहर इंदौर का हाल भी जान लीजिए। वहां हिंदू 0.5 प्रतिशत घटे, जबकि मुस्लिम आबादी में एक प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 1990 के दशक में इस शहर ने भी सांप्रदायिक संघर्ष देखा था और उसी के बाद वहां भाजपा की सरकार आई थी। क्या अब भी आप इस देश को सेक्युलर नहीं मानेंगे? ध्यान रखें। जनसंख्या में घटोतरी का मामला सामाजिक समीकरणों से जुड़ा है। इस पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए।
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