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इस उपलब्धि पर कैसे इतराएं

देश भर के कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया अपने चरम पर है। हर साल की तरह 12वीं की परीक्षा पास हजारों बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिले की चाहत लिए दक्षिणी राज्यों की ओर दौड़ रहे हैं।...

इस उपलब्धि पर कैसे इतराएं
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 12 Jul 2015 07:36 PM
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देश भर के कॉलेजों में दाखिले की प्रक्रिया अपने चरम पर है। हर साल की तरह 12वीं की परीक्षा पास हजारों बच्चे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिले की चाहत लिए दक्षिणी राज्यों की ओर दौड़ रहे हैं। दरअसल, इंजीनियर बनने का सपना संजोए जो बच्चे आईआईटी और एनआईटी की कटऑफ सूची से बाहर रह जाते हैं, उनकी पहली पसंद दक्षिणी राज्यों के ही निजी इंजीनियरिंग कॉलेज होते हैं। इसी तरह, जो देश के मुख्य मेडिकल कॉलेजों में दाखिल होने से वंचित रह जाते हैं, वे अपने ख्वाब पूरा करने के लिए दक्षिण भारतीय कॉलेजों की ओर रुख करते हैं।

भारत के पहले निजी मेडिकल कॉलेज की स्थापना 1953 में मणिपाल में हुई थी। कर्नाटक को देश के पहले निजी इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना का भी गौरव हासिल है। मगर उच्च शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने की अगुवाई तमिलनाडु ने की और इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि देश में सबसे अधिक इंजीनियरिंग कॉलेज तमिलनाडु में ही हैं। इनमें से 90 प्रतिशत निजी क्षेत्र के तहत आते हैं। इन्हें स्व-वित्त पोषित कॉलेज के रूप में चिन्हित किया जाता है, जहां अपनी शिक्षा का पूरा वित्तीय भार छात्र ही उठाते हैं।

घोषित तौर पर एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते सरकार को शिक्षा क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मगर चूंकि केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों ने अपनी जिम्मेदारियों को त्याग दिया है, इसलिए निजी क्षेत्र उस निर्वात को भरने का काम कर रहा है। यह स्थिति तमिलनाडु में अधिक स्पष्टता के साथ दिखती है। बहरहाल, निजी कॉलेजों ने उच्च शिक्षा को काफी विस्तार दिया और एक ऐसी पेशेवर पीढ़ी तैयार की, जिसने आईटी के उत्कर्ष-काल में न सिर्फ अपने लिए आर्थिक संपन्नता अर्जित की, बल्कि समाज को भी समृद्ध किया। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तमिलनाडु ऐतिहासिक रूप से आगे रहा है और अन्य राज्यों के मुकाबले उसे इसका फायदा भी मिला। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया ने भारत में जिन तीन विश्वविद्यालयों की स्थापना की थी, उनमें से एक चेन्नई स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास थी। कालांतर में विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तमिलनाडु अग्रणी राज्य बनकर उभरा। कुछ लोग तो इसे 'दक्षिण का ऑक्सफोर्ड' कहते हैं। पर क्या यह राज्य वाकई इस तारीफ के लायक है?

1980 के दशक के मध्य में आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जब पर्याप्त राशि नहीं जुटा पा रहे थे, तो उन्होंने कॉलेज शिक्षा के निजीकरण का रास्ता अपनाया। एम जी रामचंद्रन (एमजीआर) ने एक योजना शुरू की। मुख्यमंत्री के तौर पर वह अपने सूबे की जनता के कल्याण को लेकर प्रतिबद्ध थे, उन्होंने अपनी पार्टी के लोगों और विभिन्न जाति, धर्म व सामाजिक समूहों को बुलाया और उनसे अपील की कि वे सोसायटी बनाएं और निजी कॉलेज शुरू करें। और कारोबारियों की नई नस्ल, जिसमें कुछ राजनेता भी शामिल थे, इस कल्याणकारी व परोपकार आधारित व्यावसायिक समूहों की दौड़ में शामिल हो गई। ये कॉलेज अमेरिकी उच्च शिक्षा के तर्ज पर शुरू हुए।

जल्द ही तमिलनाडु के भीतर से और आंध्र व कर्नाटक जैसे पड़ोसी राज्यों के छात्र व अभिभावक इन कॉलेजों में उमड़ने लगे। इन कॉलेजों को राज्य से मामूली दर पर जमीन समेत कई तरह की सुविधाएं मिलीं। कुछ समय के बाद उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया गया कि वे स्वायत्त बनें, जिसका मतलब था कि वे अपने पाठ्यक्रम लागू कर सकते थे, और नए-नए विषयों की पढ़ाई भी शुरू कर सकते थे। व्यावसायिक कॉलेजों में दाखिले के लिए साझा परीक्षा यानी सीईटी की व्यवस्था भी खत्म कर दी गई। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि यह ग्रामीण व कमजोर तबकों के लिए नुकसानदेह है।

ग्रामीण और आर्थिक रूप में कमजोर तबकों की मदद के लिए राज्य ने गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों की 65 फीसदी और अल्पसंख्यक संस्थानों की 50 प्रतिशत सीटों को अलग कर दिया। अन्ना यूनिविर्सिटी में एक खिड़की खोली गई, जहां से छात्रों को उनकी रैंकिंग के हिसाब से सरकारी व गैर-सरकारी कॉलेजों में सीट आवंटित की जाती है। अनेक कॉलेजों ने अपने पाठ्यक्रमों का विस्तार किया और निजी या डीम्ड यूनिवर्सिटियों की स्थापना की। स्व-वित्त पोषित कॉलेजों की जबर्दस्त मांग को देखते हुए सरकार ने इन इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले की न्यूनतम योग्यता भी घटा दी। यही नहीं, निजी कॉलेजों को प्रबंधन कोटा, एनआरआई कोटा जैसे विशेषाधिकार दिए गए।

तमिलनाडु में सरकारी और निजी कॉलेजों, दोनों की फीस की एक व्यवस्था है। इस साल कुल तीन लाख, 10 हजार सीटों में से दो लाख, 10 हजार सीटों का आवंटन अन्ना यूनिवर्सिटी की 'सिंगल विंडो' व्यवस्था से ही किया जा रहा है। बेसिक सीट, जिसे 'फ्री सीट' भी कहा जाता है, उसकी सालाना फीस करीब 25,000 रखी गई है। एससी और एसटी श्रेणी, हाल में धर्मांतरित योग्य उम्मीदवारों तथा परिवार के पहले स्नातक होने के मामले में यह फीस भी माफ या वापस कर दी जाती है। निजी संस्थान जो दूसरी श्रेणी की फीस वसूलते हैं, वह सालाना 80,000 से 1,00,000 रुपये के बीच है। तीसरी श्रेणी मैनेजमेंट कोटा की है, जिसके तहत बेसिक फीस की पांच गुनी रकम ली जाती है। लेकिन निजी कॉलेज कैपिटेशन फीस के अलावा कैंटीन और हॉस्टल फीस के जरिये पैसे उगाह रहे हैं। ये हॉस्टल चार छात्रों के एक कमरे में रहने से लेकर पांच सितारा सुविधाओं से लैस एकल एनआरआई कमरे वाले तक हैं। क्या इस तरह की शिक्षा व्यवस्था सरकार के मकसद, खासकर 'पहुंच, समानता और गुणवत्ता' के लक्ष्य को पूरा करती है?  इसका जवाब मिला-जुला है।

दाखिले में आरक्षण व्यवस्था के कारण सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को यकीनन फायदा मिला है। उच्च शिक्षा तक उनकी पहुंच बनी है। उनमें से अनेक लोगों को बेहतरीन नौकरियां हासिल हुई हैं। अन्ना यूनिवर्सिटी दाखिले की प्रक्रिया को काफी पारदर्शी तरीके से संचालित करती है और यहां तक कि राजनेता भी इसमें दखल नहीं दे सकते। इसीलिए निजी विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी है, मगर अब भी छात्रों की पहली पसंद अन्ना यूनिवर्सिटी ही है।
लेकिन गुणवत्ता? व्यवसायीकरण और आईटी इंडस्ट्री के प्रति सनक ने उच्च शिक्षा की पूरी तस्वीर को विकृत कर दिया है। अनेक इंजीनियर अनुत्पादक बनते जा रहे हैं।

हताशा में उनमें से अनेक नए क्षेत्रों की ओर मुड़ने लगे हैं। शोध और इनोवेशन लगभग गायब है। जाहिर है, राज्य ने उच्च शिक्षा की अमेरिकी शैली को अपनाया है कि 'अपनी डिग्री की कीमत आप अदा करें', लेकिन कॉलेज उनकी गुणवत्ता के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते। दुनिया के श्रेष्ठ 20 कॉलेजों में से 19 अमेरिकी हैं। भारत विश्व रैंकिंग में नजर नहीं आता। यहां तक कि हमारे आईआईटी भी शीर्ष 275 कॉलेजों में नहीं हैं। तमिलनाडु ने इंजीनियरों की तादाद तो बढ़ाई है, मगर उनकी गुणवत्ता नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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