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शिक्षा पर ऐसी उदासीनता क्यों

पिछले संसद सत्र के दौरान शिक्षा के गिरते स्तर पर बहस के लिए राज्यसभा में सांसदों ने सत्र बढ़ाने की मांग की। कार्य-मंत्रणा समिति द्वारा तीन बार बहस का समय तय किया गया, लेकिन सरकारी एजेंडे की भरमार ने...

शिक्षा पर ऐसी उदासीनता क्यों
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 07 Jun 2015 09:09 PM
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पिछले संसद सत्र के दौरान शिक्षा के गिरते स्तर पर बहस के लिए राज्यसभा में सांसदों ने सत्र बढ़ाने की मांग की। कार्य-मंत्रणा समिति द्वारा तीन बार बहस का समय तय किया गया, लेकिन सरकारी एजेंडे की भरमार ने बहस का अवसर नहीं आने दिया। पूरा साल बीत गया, लेकिन सरकार ने शिक्षा को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई है। राष्ट्रपति के अभिभाषण में शिक्षा सुधार को लेकर साफ चिंता जाहिर की गई थी। लेकिन बजट आते-आते सरकार ने शिक्षा के निजीकरण के एजेंडे को अपनाते हुए शिक्षा बजट को 83,000 करोड़ से घटाकर 69,000 हजार करोड़ रुपये कर दिया। यानी इसमें 16.5 प्रतिशत की कटौती कर दी गई। पिछले साठ साल में ऐसा पहली बार हुआ, जब बढ़ोतरी की बजाय इसे घटा दिया गया। सर्व शिक्षा अभियान में करीब 2,375 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गई है। स्कूल में बच्चों को दोपहर का भोजन देने की बेहद लोकप्रिय योजना के भी पर कतर दिए गए हैं। इस योजना में लगभग 4,000 करोड़ रुपये की कटौती की गई है।

राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान में करीब 85 करोड़ रुपये की कटौती की गई है। सर्व शिक्षा अभियान में पिछले साल 24,375.14 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जबकि इस बार सिर्फ 22,000 करोड़ रुपये देकर पल्ला झाड़ लिया गया है। यही नहीं, मिड-डे मील में पिछले साल लगभग 13,000 करोड़ का आवंटन था। इस बार सिर्फ 9,236 करोड़ रुपये देकर सरकार ने अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी कर ली है। और अब यह सरकार मौजूदा शिक्षा बजट को खर्च करने में भी पिछड़ रही है। यह हालत तब है, जब देश में 60 लाख बच्चे आज भी स्कूल से वंचित हैं और शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए पांच साल हो चुके हैं। इस कानून में निजी स्कूलों में भी 25 प्रतिशत सीटों को आरक्षित करने का प्रावधान था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी अनिवार्यता से लागू करने का आदेश दिया। इसके बावजूद क्रियान्वयन के अभाव में 21 लाख सीटों में से सिर्फ 29 प्रतिशत सीटें ही भरी गईं। इन आंकड़ों से मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी वाकिफ है। मंत्रालय ने माना है कि 2009 के मुकाबले 2014 के अंत तक 26 प्रतिशत नामकंन में गिरावट दर्ज की गई है।

यही हाल स्कूली भवनों और शिक्षकों की कमी का है। इस समय देश में तीन लाख स्कूल भवनों और करीब 12 लाख शिक्षकों की दरकार है। इस कमी के चलते कई स्कूल खुले में चल रहे हैं। शिक्षकों की कमी गंभीर चिंता का विषय है। अधिनियम के मुताबिक, 30 बच्चों पर एक शिक्षक का होना अनिवार्य है, लेकिन देश के लगभग सभी स्कूलों में 100 से अधिक बच्चों पर सिर्फ शिक्षक है। इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ रहा है। कई गैर-सरकारी संस्थाओं ने इसको लेकर चिंता भी जाहिर की है। जाहिर है, इन वजहों से स्कूलों पर ताले तक लग रहे हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में एक लाख से अधिक स्कूलों में ताले पड़ चुके हैं। यही कारण है कि निजी स्कूलों में दाखिले का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। वंचित तबके भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाय निजी स्कूल में भेजने को मजबूर हैं। यह सिलसिला अभी जारी है। ये तथ्य भी चौंकाने वाले हैं कि देश के कई राज्यों में निजी स्कूलों की सालाना फीस आईआईटी की सालाना फीस से भी ज्यादा है। सरकारी दखल न होने के कारण हर वर्ष फीस में बढ़ोतरी हो रही है। दिल्ली स्कूल एजुकेशन ऐक्ट के मुताबिक, स्कूल खुद फीस बढ़ा सकते हैं। यही कारण है कि राजधानी के निजी स्कूलों में 10 से 30 प्रतिशत फीस में इजाफा हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्किल इंडिया की बात की है। स्किल इंडिया से ही मेक इन इंडिया के सफर की शुरुआत होगी। विश्व रैंकिंग बताती है कि शीर्ष 200 यूनिवर्सिटी में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय नहीं है। 800 शीर्ष संस्थानों की सूची में हमारे केवल 11 संस्थान हैं। इन संस्थानों में मात्र 12 प्रतिशत छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और लगभग तीन लाख छात्र अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया आदि देश के उच्च संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने चले जाते हैं। हमारी शिक्षा पद्धति की विडंबना यह है कि हमने शिक्षा को किताबी बना दिया है, उसे स्किल और रोजगार से नहीं जोड़ा। सीआईआई की नवीनतम रपट 'इंडिया स्किल रिपोर्ट-2015' के मुताबिक, हर साल सवा करोड़ नौजवान रोजगार बाजार में उतरते हैं, लेकिन इनमें से केवल 37 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल होते हैं। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हर साल 15 लाख इंजीनियर तैयार होते हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ चार लाख को ही नौकरी मिल पाती है।

आज दौर बदल चुका है। पिछले 20 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं। विश्व में लगभग सभी विकसित देशों ने समय के साथ अपनी शिक्षा व्यवस्था में आधारभूत बदलाव किए हैं। लेकिन जैसे-जैसे दौर बदले, उतना हमारी सरकारों का ध्यान शिक्षा से हटा है। पिछली यूपीए सरकार ने भी शिक्षा का क्षेत्र में ठोस कदम नहीं उठाए। स्किल डेवलपमेंट के लिए सरकार जरूर संजीदा हुई और इसके लिए बाकायदा अलग मंत्रालय भी बनाया गया, लेकिन इसके ठोस नतीजे अभी तक आए नहीं हैं। दूसरी तरफ, देश में तकनीकी शिक्षा की हालत और खराब हुई है। हायर और टेक्निकल एजुकेशन के मौजूदा सत्र में देश भर में सात लाख से ज्यादा सीटें खाली हैं। नया सत्र जुलाई से शुरू होने वाला है, मौजूदा समय में स्थिति में कोई बदलाव नहीं नजर आ रहा है।

कुछ उच्च शिक्षण संस्थानों, आईआईटी, आईआईएम और गिने-चुने विश्वविद्यालयों को शिक्षा का विकास नहीं कहा जा सकता। ये श्रेष्ठ संस्थान भी मूलभूत बदलावों और सुविधाओं के अभाव में पिछड़ रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा की तरह उच्च शिक्षण संस्थान भी तंगी और बदहाली से गुजर रहे हैं। उच्च संस्थान भी कम बजट आवंटन की मार झेल रहे हैं। आज भी आईआईटी जैसे उच्च संस्थान में हजारों शिक्षकों की जगह खाली है। कई यूनिवर्सिटियों में कुलपति के पद खाली पड़े हैं। और इनमें भी जो नियुक्तियां मौजूदा सरकार कर रही है, उनको लेकर भी विवाद खड़े हो रहे हैं। जो संस्थान सूचारु रूप से चल रहे हैं, उनमें सरकार और यूजीसी की दखलंदाजी जारी है।

भविष्य की चुनौतियों को देखें, तो साल 2020 तक उच्च शिक्षा में दाखिला प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या पांच करोड़ और बढ़ जाएगी। प्राथमिक शिक्षा पाने वाले बच्चों की संख्या भी लाखों में होगी। ऐसे में, सरकार के पास शिक्षा नीति को लेकर ठोस दृष्टिकोण और नियत्रंण होना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है, तो उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास को उत्कृष्टता की ओर ले जाने वाली संस्था है। शिक्षा से अर्थव्यवस्था की प्रगति भी जुड़ी है। इसलिए शिक्षा के इन दोनों केंद्रबिंदुओं को ध्यान में रखकर शिक्षा पर विचार होना चाहिए। 
 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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